प्रजातंत्र में चुनाव सिर्फ सरकार बनाने की प्रक्रिया नहीं है. यह राजनीतिक दलों की नीतियां संगठन और नेतृत्व की परीक्षा भी है. यह राजनीतिक दलों के चाल चरित्र और चेहरे को भी उजागर करता है. चुनाव नतीजे ने आम आदमी पार्टी की कमर तोड़ दी. पार्टी को न सिर्फ शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा बल्कि पार्टी के विरोधाभास को भी उजागर कर दिया. आम आदमी पार्टी की नीतियों, संगठन और नेतृत्व के विरोधाभास सामने आ गए. यह समझना जरूरी है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने और व्यवस्था परिवर्तन के लिए राजनीति में आने का दावा करने वाली को देश की जनता ने सिरे से क्यों खारिज कर दिया? दिल्ली विधानसभा चुनाव में पूरे देश में नायक बने केजरीवाल को जनता ने क्यों नकार दिया? पार्टी से क्या गलतियां हुई? चुनाव नतीजे ने आम आदमी पार्टी क्या संकेत दिए हैं?
चुनाव नतीजे आने के बाद कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने हार की जिम्मेदारी ली. यूपीए की चेयरपर्सन सोनिया गांधी ने खुद को जिम्मेदार बताया. बहुजन समाजवादी पार्टी की सुप्रीमो मायावती ने हार की जिम्मेदारी ली. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश ने माना कि चूक हो गई. सिर्फ अकेले अरविंद केजरीवाल हैं जिन्होंने कहा कि यह उनकी हार नहीं नहीं है. पार्टी ने बेहतर प्रदर्शन किया. जबकि हकीकत यह है कि सभी नामचीन पार्टियों में सबसे ज्यादा शर्मनाक हार आम आदमी पार्टी की हुई है. आम आदमी पार्टी ने 443 उम्मीदवार खड़े किए थे. इनमें से 421 सीटों पर पार्टी की जमानत जब्त हो गई. बनारस में केजरीवाल की बड़ी हार हुई लेकिन जमानत बच गई. दिल्ली और पंजाब के बाहर, केजरीवाल के अलावा जितने भी बड़े बड़े नेता थे उनकी जमानत जब्त हो गई. चाहे वो तमिलनाडू में उदय कुमार हों या मुंबई में मेधा पाटेकर, मीरा सान्याल, मयंक गांधी हो. या फिर नागपुर में अंजली दमानिया हो या फिर बड़गड़ उड़िसा से लिंगराज प्रधान हो. इनकी सभी की जमानत जब्त हो गई. आम आदमी पार्टी के ये नेता मीडिया पर छाए रहे. टीवी में आम आदमी पार्टी के समर्थक रिपोर्टर और संपादकों के जरिए यह अभियान चलाया गया कि ये लोग ऩई किस्म की राजनीति करने आए हैं. ऐसा माहौल बनाया गया था ये लोग जीत रहे हैं लेकिन जब गिनती शुरु हुई तो पता चला कि मीडिया में इतना तूफान मचाने के बावजूद ये लोग कुछ हजार वोट ही पा सके.
दिल्ली में केजरीवाल और आम आदमी पार्टी जीत से कई लोगों को लगने लगा था कि भारत की राजनीति में एक नई शुरुआत हुई है. लेकिन 49 दिनों की सरकार ने आम आदमी पार्टी की पोल खुल गई. कांग्रेस से मदद लेकर सरकार बनाने पर केजरीवाल की काफी निंदा हुई. केजरीवाल ने लोकलुभावन कुछ फैसले लिए लेकिन ये सब अप्रैल तक ही था इसलिए लोगों को इन फैसले का फायदा नहीं पहुंचा. अरविंद केजरीवाल एक ऐसे मुख्यमंत्री बनकर उभरे जिनके पास न कोई योजना थी, न प्रशासनिक क्षमता, न राजनीतिक अनुभव और न ही समस्याओं का कोई समाधान था. 49 दिनों के कार्यकाल में पार्टी के तरफ दिए गए बयान व क्रियाकलापों से उन्होंने ये साबित कर दिया कि वो एक अनुभवहीन नेता हैं जो राजनीति को छात्रसंघ की तरह चलाना चाहते हैं. लोग निराश होने लगे थे. लोगों का भरोसा टूट रहा था. इस बीच, उनके एक मंत्री की खबर मीडिया की सुर्खियां बन गई. पता चला कि वो रात के अंधेरे विदेशी महिलाओं के साथ अभद्र व्यवहार किया है. जब ऐसा लगने लगा कि वो गिरफ्तार होने वाले हैं तो केजरीवाल ने धरना का नाटक शुरु किया. सड़क पर रात बिताई. गैरजिम्मेदार बयान दिए. गणतंत्र दिवस परेड का मजाक उड़ाया. खुद को अराजक बताया. यहीं से केजरीवाल की उल्टी गिनती शुरु हो गई. देश में चुनाव होने वाले थे और आम आदमी पार्टी के पास केजरीवाल के अलावा कोई दूसरा नेता नहीं था जो देश में कैंपेन कर सके. जिसे सुनने सौ लोग भी आएं.
लोकसभा की रणनीति बनी. पहले यह तय हुआ कि जितने भी भ्रष्ट नेता हैं उनके खिलाफ आम आदमी पार्टी उम्मीदवार खड़ा करेगी. अगर ऐसा होता तो शायद पार्टी आज पार्टी बेहतर स्थिति में होती. लेकिन केजरीवाल से एक गलती हो गई. उन्होंने राजनीतिक महौल को समझने में और पार्टी की क्षमता का गलत आंकलन किया. पार्टी को लगा कि जिस तरह से दिल्ली में उन्हें सफलता मिली है उसी तरह पूरे देश में सफलता मिल जाएगी. रणनीति यह बनी कि ज्यादा से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ा जाए. जिस तरह दिल्ली में बीजेपी और कांग्रेस दोनों के वोटबैंक में पार्टी ने सेंध मार दिया वही पूरे देश में होगा. खुद चुनाव जीते या न जीते लेकिन किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिलेगा. केजरीवाल की नजर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर थी. उन्हें लगा कि अगर 40-50 सीटें भी आ गई तो कांग्रेस की मदद से वो सरकार बनाने में सफल हो जाएंगे और प्रधानमंत्री बन जाएंगे. आम आदमी पार्टी की सबसे बड़ी चूक यह हुई कि उन्होंने दिल्ली को मिनी इंडिया मान लिया. उन्हें लगा कि जैसा दिल्ली में हुआ वही पूरे देश में होगा. और जिस तरह उन्होंने शीला दीक्षित को हराया वैसे ही वो गुजरात के बाहर नरेंद्र मोदी को हरा देंगे.. पार्टी ने 443 उम्मीदवार मैदान में उतार दिया. केजरीवाल खुद वाराणसी में मोदी को चुनौती देने पहुंच गए और कुमार विश्वास को अमेठी में राहुल गांधी के खिलाफ खड़ा कर दिया. मीडिया से मदद मिली. एक माहौल तैयार हुआ ठीक वैसा ही जैसा दिल्ली चुनाव के दौरान हुआ था.
आम आदमी पार्टी अतिआत्मविश्वास की शिकार हो गई. केजरीवाल इसका आंकलन नहीं कर सके कि नरेंद्र मोदी और शीला दीक्षित में क्या फर्क है. मोदी को बनारस में घेरने से पहले वो गुजरात भी गए. मीडिया की सुर्खियों में बने रहने के लिए हर संभव प्रयास किया. गुजरात मॉडल पर सवाल खड़ा किया और खुद को मोदी के सबसे बड़े नेता के रुप में पेश करने की कोशिश की. इस रणनीति के पीछे दो दलील थी. एक तो इससे मुस्लिम वोट आम आदमी पार्टी की तरफ आएगा और दूसरा यह कि चुनाव के बाद प्रधानमंत्री बनने में मदद मिलेगी. प्रधानमंत्री बनने के लिए केजरीवाल इतना आतुर हो गए कि वो उल्टे पुल्टे बयान देने लग गए. उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि देश में अस्थिर सरकार की जरूरत है. जनता ने केजरीवाल की चालबाजी को पहचान लिया. इसिलए जब नतीजा आया तो हर तरफ जमानत जब्त की झडी लग गई. आम आदमी पार्टी ने जमानत जब्त कराने का विश्व रिकार्ड कायम किया. अबतक ये विश्व रिकार्ड भारत की ही “दूरदर्शी पार्टी” के नाम था.. इस पार्टी ने 1991 के लोकसभा चुनाव में 321 उम्मीदावारों को खड़ा किया था और सभी की जमानत जब्त हो गई. तब से ये रिकार्ड इस पार्टी के नाम था. लेकिन 2014 के चुनाव में केजरीवाल की पार्टी ने अपने 421 उम्मीदवारो के जमानत जब्त करा इस रिकार्ड को ध्वस्त कर दिया. समझने वाली बात यह है कि भारत में चुनाव की दृष्टि से जिस किसी उम्मीदवार की जमानत जब्त हो जाती है तो उसे सिर्फ हारा हुआ यानि लूजर्स ही नहीं मानते बल्कि ऐसे उम्मीदवार को “नान-सिरियस” समझा जाता है.. लोकसभा चुनाव में हर उम्मीदवार को नामांकन के साथ Rs.10000 जमा करना पड़ता है. अगर उस उम्मीदवार को 1/6 यानि कि 16.66 फीसदी वोट से कम मिलता है तो यह पैसा वापस नहीं होता है. यह कानून इसलिए बनाया गया ताकि “नान-सिरियस” उम्मीदवार चुनाव न लड़े और चुनाव की गंभीरता बरकरार रहे. इस दृष्टि से अगर देखें तो किसी भी उम्मीदवार के लिए यह शर्मनाक है.
हालांकि, केजरीवाल की प्लानिंग यह थी कि मोदी के खिलाफ लड़कर मीडिया में छाए रहेंगे. मीडिया में छाने में तो सफलता मिली. लेकिन जनता को यह रास बिल्कुल नहीं आई. सौ सीटें लाने का दावा करने वाली पार्टी सिर्फ पंजाब में चार सीट जीत पाई. पंजाब की कहानी भी अलग है. वहां पार्टी की वजह से जीत नहीं हुई. केजरीवाल एक ही बार रोड शो करने गए. कहीं भी रैली करने की हिम्मत नहीं हुई. पंजाब में लोग कांग्रेस और बीजेपी दोनों से नाराज हैं. कांग्रेस के खिलाफ भ्रष्टाचार को लेकर नाराजगी थी. और अकाली दल सरकार की वजह से बीजेपी भी निशाने पर आ गई. दूसरी बात यह कि वहां आम आदमी पार्टी ने अच्छे उम्मीदवार दिए. तीसरा फायदा अन्ना हजारे की जनतंत्र यात्रा की वजह से हुआ. अन्ना ने पिछले साल पंजाब का दौरा किया था इस दौरान वो पंजाब हर जिले में गए. यात्रा की वजह से पंजाब में संगठन खड़ा करने में पार्टी को मदद मिली. सबसे अहम बात यह कि पंजाब में आम आदमी पार्टी के बड़े बड़े नेताओं ने ज्यादा हस्तक्षेप नहीं किया. जिस तरह से यूपी एमपी दिल्ली हरियाणा और बिहार में आम आदमी पार्टी नेताओं ने हस्तक्षेप की उससे गुटबाजी जमकर हुई जिसका नुकसान नतीजे में दिखा. इसलिए कहा जा सकता है कि पंजाब की जीत में पार्टी और पार्टी के नेताओं का कोई ज्यादा योगदान नहीं है.
केजरीवाल बनारस में लड़ने पहुचे तो मीडिया में एक माहौल बनाने की कोशिश गई कि जिस तरह राजनारायण ने इंदिरा गांधी को हराया था उसी तरह केजरीवाल भी मोदी को हरा सकते हैं. देश भऱ के एनजीओ एक्टिविस्ट्स और सामाजिक कार्यकर्ता ने कैंपेन किया. यहां तक कि कई वामपंथी और नक्सली संगठनों ने भी केजरीवाल की मदद की. साथ ही, कई मुस्लिम संगठनों ने केजरीवाल को खुला समर्थन दिया और बनारस जाकर कैंपेन किया. लेकिन जब नतीजे आए तो केजरीवाल तीन लाख सत्तर हजार से ज्यादा वोटों से हार गए. पंजाब और दिल्ली के बाहर ये अकेला लोकसभा क्षेत्र है जहां हार शर्मनाक नहीं है. लेकिन वहीं अमेठी को देखे तो यह यकीन नहीं होता कि कुमार विश्वास को सिर्फ साढे पच्चीस हजार वोट मिलेंगे. यकीन इसलिए नहीं होता क्योंकि मीडिया ने ऐसा ख्यालीपुलाव बना रखा जिस तरह से कुमार विश्वास पर घंटों कार्यक्रम दिखाए जा रहे थे उससे ये लगता था कि वो राहुल गांधी को हरा देंगे. लेकिन हकीकत नतीजे के रूप में सामने हैं. कुमार विश्वास न सिर्फ हारे बल्कि वो चौथे स्थान पर आए और उनकी जमानत भी जब्त हो गई. यही हाल गाजियाबाद में हुआ. जहां जनरल वी के सिंह के खिलाफ पार्टी ने शाजिया इल्मी को उतार दिया. यह कहना पड़ेगा कि वो यहां से लड़ना नहीं चाहती थी. वो दिल्ली से लड़ना चाहती थी और पार्टी ने उनके कैपेन में ज्यादा मदद भी नहीं की. केजरीवाल वहां प्रचार करने नहीं गए. गाजियाबाद में ही आम आदमी पार्टी की शुरुआत हुई और यहीं इसका कार्यालय रहा. शाजिया इल्मी भी सिर्फ चुनाव नहीं हारी बल्कि वो तो पांचवे स्थान पर आई औऱ जमानत भी जब्त हुई. लेकिन सबसे हैरानी तब हुई जब राहुल गांधी के राजनीतिक गुरु रहे और पार्टी के चाणक्य कहे जाने वाले योगेंद्र यादव की गुड़गांव की सीट पर जमानत जब्त हो गई. कहने का मतलब यह कि मीडिया में सांठगांठ और टीवी डिबेट में शामिल होने से कोई नेता नहीं बन जाता है. आम आदमी पार्टी ने यह गलत साबित किया है कि जो दिखता है वो बिकता है. केजरीवाल साहब को यह समझना पड़ेगा कि चुनाव मीडिया के जरिए नहीं बल्कि संगठन और जनता के बीच काम करने से जीते जाते हैं.
नीतीश कुमार ने हार के बाद इस्तीफा दे दिया. लेकिन आम आदमी पार्टी और केजरीवाल की राजनीति में सदाचार की कमी है. इतनी शर्मनाक हार के बावजूद भी पार्टी अपनी गलती मानने को तैयार नहीं है.. केजरीवाल से बेहतर तो राहुल गांधी है जिसने कम से कम ये तो कहा कि वो हार के लिए खुद जिम्मेदार है.. लेकिन केजरीवाल जनता को ही जिम्मेदार बता रहे हैं और इनके समर्थक-पत्रकार व राजनीतिक विश्लेष्क मध्य-वर्ग को ही मूर्ख बता रहे हैं. आम आदमी पार्टी की हार की वजह खराब रणनीति, अनुभवहीन राजनीति और असमर्थ नेतृत्व. आम आदमी पार्टी के बड़बोलेपन की वजह से पार्टी की यह हालत हुई है. एक उदाहरण देता हूं. बनारस में मतदान से ठीक 48 घंटे पहले आजतक चैनल पर एक सर्वे रिपोर्ट आई. इस सर्वे में बताया गया कि केजरीवाल चुनाव हार रहे हैं. केजरीवाल आगबबूला हो गए. आजतक के मालिक अरुण पुरी पर मोदी के हाथों बिक जाने का आरोप लगा दिया. केजरीवाल ने पूछा कि पुरी साहब ने अपनी आत्मा कितने में बेची? भारत में कोई भी नेता मीडिया पर इस तरह के आरोप नहीं लगाता है. भारत में बड़बोलेपन और बदतमीजी की कोई जगह नहीं है. हर किसी को दलाल की संज्ञा दे देना लोगों के गले नहीं उतरता. देश की जनता ने यह संदेश दिया है कि राजनीति एक गंभीर विषय है इसमें ड्रामेबाजी और “नान-सिरियस” राजनीति करने वालों का स्थान नहीं है.