संघ और भाजपा मे जंग

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राजनाथ सिंह भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष तो बन गए, लेकिन यह राजमुकुट कांटों से भरा है. सवाल यह है कि क्या राजनाथ सिंह अपने फैसले नरेंद्र मोदी पर लागू करा पाएंगे, क्या आडवाणी एवं उनके नज़दीकी नेता राजनाथ सिंह को स्वतंत्र रूप से निर्णय लेने का मौक़ा देंगे? पार्टी में हर राज्य में विद्रोह हो रहा है, क्या राजनाथ सिंह उन राज्यों में चल रही उठापटक ख़त्म कर पाएंगे? यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि राजनाथ सिंह को जिस प्रक्रिया से अध्यक्ष घोषित किया गया है, उससे तो संघ ने अध्यक्ष पद की मर्यादा ही ख़त्म कर दी है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ गडकरी को अध्यक्ष बनाना चाहता था, लेकिन आडवाणी के विरोध की वजह से उसकी योजना सफल नहीं हो सकी, तो राजनाथ सिंह को बना दिया गया. राजनाथ सिंह न तो संघ के और न भाजपा के किसी गुट की पहली पसंद थे, फिर भी वह अध्यक्ष चुन लिए गए. राजनाथ सिंह सर्वसम्मति से चुने हुए अध्यक्ष नहीं, बल्कि एक कम्प्रोमाइज्ड प्रेसिडेंट हैं. ऐसा उम्मीदवार दमदार अध्यक्ष नहीं बन सकता. भारतीय जनता पार्टी में ऐसे कई नेता हैं, जिनका कद राजनाथ सिंह से काफी बड़ा है, जो अब किसी की बात नहीं सुनते. हक़ीक़त तो यही है कि भारतीय जनता पार्टी को अपनी गिरफ्त में रखने की राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की जिद की वजह से राजनाथ सिंह अध्यक्ष चुने गए हैं. यही राजनाथ सिंह के मुकुट का सबसे बड़ा कांटा है. ऐसे अध्यक्ष को कुर्सी तो मिल जाती है, लेकिन लेजिटिमेसी नहीं होती.

RSS-and-BJP

लगता है, भारतीय जनता पार्टी अभिशप्त पार्टी बन गई है, वरना ऐसी क्या बात है कि जब भी कांग्रेस की ग़लतियों की वजह से भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में माहौल बनता दिखाई देता है तो ठीक चुनाव से पहले कुछ न कुछ ऐसा ज़रूर हो जाता है कि सब कुछ चौपट हो जाता है. अटल जी की सरकार ने शानदार काम किया, लेकिन फिर भी भाजपा चुनाव हार गई. 2009 में फिर माहौल बना. ऐसा लगा कि पार्टी ज़रूर जीतेगी. भाजपा नेताओं ने आडवाणी जी को प्रधानमंत्री कहकर संबोधित भी करना शुरू कर दिया था, लेकिन ऐन मौ़के पर पार्टी की गुटबाज़ी सामने आ गई और बाक़ी कसर आडवाणी जी के अति बुद्धिमान सलाहकारों ने पूरी कर दी. भाजपा फिर हार गई. अब 2014 के चुनाव की तैयारी शुरू हो गई है. पांच महत्वपूर्ण राज्यों में चुनाव होने वाले हैं, लेकिन फिर से भारतीय जनता पार्टी में भस्मासुर की प्रवृत्ति प्रखर हो गई है. कुछ दिनों पहले तक भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं, समर्थकों एवं मतदाताओं में आत्मविश्‍वास नज़र आ रहा था, लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने ऐसा दांव खेला कि आज भाजपा के कार्यकर्ता, समर्थक एवं मतदाता फिर से निराश और निष्क्रिय हो गए हैं.

भाजपा के लोगों ने मीडिया को गडकरी के ख़िलाफ़ सबूत दिए, पूर्ति ग्रुप के दस्तावेज़ मुहैया कराए. गडकरी की किरकिरी हुई. यह दबाव बनाया गया कि गडकरी को इस्तीफ़ा दे देना चाहिए, लेकिन संघ ने उन्हें फिर भी अध्यक्ष पद से नहीं हटाया और न गडकरी ने इस्ती़फे की पेशकश की. गडकरी की सबसे बड़ी ग़लती यह रही कि तीन साल तक अध्यक्ष रहते हुए उन्होंने पार्टी के   अंदर दोस्त से ज़्यादा दुश्मन बनाए. उनके ख़िलाफ़ माहौल बन चुका था, लेकिन संघ के ख़िलाफ़ जाने की किसी की हिम्मत नहीं पड़ी.

अगला अध्यक्ष कौन होगा, इसे लेकर भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बीच कई महीनों से घमासान चल रहा था. संघ के दबाव की वजह से भारतीय जनता पार्टी का संविधान भी बदला गया, ताकि गडकरी को फिर से अध्यक्ष बनाया जा सके. दिल्ली के मठाधीशों को गडकरी पसंद नहीं थे, क्योंकि संघ ने गडकरी को पूरी छूट दे रखी थी. भाजपा के वैसे नेता, जिनकी पृष्ठभूमि संघ की नहीं थी, वे भी गडकरी के ख़िलाफ़ थे, लेकिन संघ की जिद थी कि गडकरी को फिर से अध्यक्ष बनाया जाए. भारतीय जनता पार्टी में षड्यंत्र और साजिश का सिलसिला शुरू हो गया. भाजपा के लोगों ने मीडिया को गडकरी के ख़िलाफ़ सबूत दिए, पूर्ति ग्रुप के दस्तावेज़ मुहैया कराए. गडकरी की किरकिरी हुई. यह दबाव बनाया गया कि गडकरी को इस्तीफ़ा दे देना चाहिए, लेकिन संघ ने उन्हें फिर भी अध्यक्ष पद से नहीं हटाया और न गडकरी ने इस्ती़फे की पेशकश की. गडकरी की सबसे बड़ी ग़लती यह रही कि तीन साल तक अध्यक्ष रहते हुए उन्होंने पार्टी के अंदर दोस्त से ज़्यादा दुश्मन बनाए. उनके ख़िलाफ़ माहौल बन चुका था, लेकिन संघ के ख़िलाफ़ जाने की किसी की हिम्मत नहीं पड़ी. जिस दिन गडकरी को फिर से अध्यक्ष चुना जाना था, उससे ठीक एक दिन पहले अचानक गडकरी के दफ्तरों पर इनकम टैक्स के छापे पड़ने लगे. उन्हें पूछताछ के लिए तलब किया गया. आडवाणी सक्रिय हो गए, उन्होंने संघ को सुषमा स्वराज का नाम सुझाया, लेकिन बात नहीं बनी, संघ अड़ा रहा. इसके बाद महेश जेठमलानी ने यह ऐलान कर दिया वह गडकरी के ख़िलाफ़ अपना नामांकन भरेंगे. यशवंत सिन्हा ने भी ऐलान कर दिया कि अगर कोई नहीं लड़ेगा तो वह गडकरी के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ेंगे. अगर चुनाव होता तो गडकरी हार जाते, इसलिए संघ बैकफुट पर आ गया और आडवाणी के साथ मुंबई में बातचीत हुई, एक समझौता हुआ. उसी समझौते के तहत राजनाथ सिंह को अध्यक्ष चुना गया.

पहले समझते हैं कि किन परिस्थितियों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने नितिन गडकरी को पार्टी का अध्यक्ष बनाया. नितिन गडकरी भारतीय जनता पार्टी के ऐसे नेता थे, जिन्हें महाराष्ट्र के बाहर कोई नहीं जानता था. वह पार्टी के कोई आइडियोलॅाग या विचारक भी नहीं थे. वह एक बिजनेसमैन हैं. भारतीय जनता पार्टी के लोग बताते हैं कि उनकी स़िर्फ एक ही ख़ासियत थी कि वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुख्यालय को चलाने के लिए आर्थिक मदद मुहैया कराते रहे हैं. भाजपा 2009 का चुनाव हार चुकी थी. जीती हुई बाजी हारकर पार्टी के नेता घर बैठ चुके थे और कार्यकर्ताओं में निराशा थी. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को लगा कि यह सबसे सही मौक़ा है, जब भारतीय जनता पार्टी को पूरी तरह गिरफ्त में लिया जा सकता है. मोहन भागवत का बयान आया कि भारतीय जनता पार्टी बीमार हो चुकी है, उसे सर्जरी की ज़रूरत है. नितिन गडकरी को डॉक्टर बनाकर भाजपा की सर्जरी करने भेजा गया, लेकिन वह भारतीय जनता पार्टी में कोई सकारात्मक बदलाव नहीं ला सके. भारतीय जनता पार्टी की त्रासदी यह है कि वह दिल्ली में बैठे बिना जनाधार वाले चार-पांच नेताओं के चंगुल में फंसी हुई है, जिन्हें पार्टी के लोग डी-4 के नाम से बुलाते हैं. दिल्ली के ये चार नेता हैं, अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, अनंत कुमार एवं वैंकेया नायडू. गडकरी पर पार्टी में नई जान फूंकने, उसे अपनी विचारधारा की ओर वापस लौटाने और कार्यकर्ताओं में जोश भरने की ज़िम्मेदारी थी, लेकिन वह हर क्षेत्र में विफल रहे. वह तीन साल तक अध्यक्ष रहकर भी राष्ट्रीय स्तर के नेता नहीं बन सके. इसकी वजह साफ़ है कि उनमें भारतीय जनता पार्टी का नेतृत्व करने की क्षमता नहीं थी और न वह ख़ुद को उस लायक़ बना सके. संघ ने भारतीय जनता पार्टी की बीमारी की पहचान तो सही की थी, लेकिन उसने ग़लत डॉक्टर चुना था. भारतीय जनता पार्टी की बीमारी आज भी बरक़रार है. गडकरी को हटाए जाने के बाद तो दिल्ली के डी-4 की साख और भी बढ़ गई है.

राजनाथ सिंह का स्वभाव सरल है. वह किसी को नाराज़ करके राजनीति करने वाले नेताओं में से नहीं हैं. वह लड़ाकू किस्म के नेता नहीं हैं. आडवाणी और संघ विरोधी भाजपा नेता शायद इसलिए राजनाथ सिंह के नाम पर राजी हो गए. भाजपा का दुर्भाग्य यह है कि पार्टी दिल्ली में बैठे चंद नेताओं के क़ब्ज़े में है, जो चुनाव नहीं लड़ते, बल्कि चुनाव का मैनेजमेंट करते हैं. चुनाव की घोषणा होते ही ये सर्वशक्तिमान बन जाते हैं. ये पार्टी संगठन को दरकिनार कर सारे फैसले स्वयं लेते हैं. पिछली बार जब आडवाणी के नेतृत्व में चुनाव लड़ा जा रहा था, तब सारे फैसले अरुण जेटली, आडवाणी और उनके सहायक लेते थे. राजनाथ सिंह अध्यक्ष थे, लेकिन उन्हें पता भी नहीं चलता था और फैसले ले लिए जाते थे. राजनाथ सिंह का चुनाव रणनीति बनाने में कोई हस्तक्षेप नहीं था. अरुण जेटली सबसे महत्वपूर्ण रणनीतिकार हैं, लेकिन जिस बैठक में राजनाथ सिंह होते, वह उस बैठक में नहीं जाते. टिकट किसे मिलेगा, प्रचार-प्रसार कैसे होगा, रणनीति क्या होगी, इन सबसे पार्टी अध्यक्ष को अलग कर दिया गया. चुनाव के लिए वार रूम बना, लेकिन वहां अध्यक्ष राजनाथ सिह का दखल नहीं था. कहने का मतलब यह कि चुनाव की घोषणा होते ही, प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार की घोषणा के बाद पार्टी संगठन का महत्व ख़त्म हो जाता है और चुनाव प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार की व्यक्तिगत लड़ाई बन जाता है. किस नेता को आगे करना है, किससे गठबंधन होना है, किसे साइड लाइन करना है, ये सारे फैसले प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार और उनके नज़दीकी ही लेते हैं. भाजपा की इसी कार्यशैली से सक्रिय कार्यकर्ता नाराज़ रहते हैं.

गडकरी ने इस कार्यशैली को बदलने की कोशिश की. उत्तर प्रदेश के चुनाव में सारे फैसले उन्होंने स्वयं लिए, लेकिन वह सफल नहीं हो पाए. उनसे कुछ ग़लतियां भी हुईं. कुछ ़फैसले उन्होंने ऐसे ले लिए, जिससे हार का ठीकरा गडकरी के माथे फूटा. क्या राजनाथ सिंह 2014 के चुनाव में पार्टी संगठन की उपयोगिता बचा पाएंगे या फिर जो 2009 में हुआ, वही दोहराया जाएगा? यह सवाल इसलिए उठता है, क्योंकि अगर नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया गया तो भाजपा अध्यक्ष की क्या उपयोगिता रह जाएगी? भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष की और भी मुश्किलें हैं. पार्टी के वरिष्ठ नेताओं में संवादहीनता की स्थिति है. वे एक-दूसरे से बात भी नहीं करते. ऐसे में पार्टी को एक मज़बूत अध्यक्ष की ज़रूरत थी, लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने जिस तरह से आख़िरी मौ़के पर राजनाथ सिंह को आगे किया और अध्यक्ष बनाया, उससे राजनाथ सिंह के लिए मुश्किलें बढ़ गई हैं. राजनाथ सिंह के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि उन्हें पार्टी के विरोधाभास और अंतर्कलह को ख़त्म करना होगा.

वैसे भारतीय जनता पार्टी के विरोधाभास और अंतर्कलह को समझना थोड़ा मुश्किल है. यह पता ही नहीं चलता कि कौन किससे लड़ रहा है, क्योंकि स्थिति यह है कि सब एक-दूसरे से लड़ रहे हैं. एक लड़ाई भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के बीच चल रही है, यह वर्चस्व की लड़ाई है. भारतीय जनता पार्टी में प्रधानमंत्री बनने की रेस लगी है. उन्हें लगता है कि भ्रष्टाचार और महंगाई की वजह से पार्टी 2014 का चुनाव बिना किसी मेहनत के जीत जाएगी. इसलिए प्रधानमंत्री बनने का सपना पालने वालों की लाइन लंबी होती जा रही है. अंदर ही अंदर षड्यंत्र और गुटबंदी जोरों पर है, लेकिन उसका पटाक्षेप होना अभी बाक़ी है. फ़िलहाल लड़ाई दूसरे स्तर पर हो रही है. भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बीच घमासान चल रहा है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ चाहता है कि भारतीय जनता पार्टी उसके इशारे पर चले, उसकी विचारधारा और फैसलों को प्राथमिकता दे, लेकिन भारतीय जनता पार्टी के कई नेता संघ का विरोध करते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि संघ की विचारधारा और काम करने का तरीक़ा न स़िर्फ संकीर्ण है, बल्कि आज के राजनीतिक एवं सामाजिक वातावरण के लिए अनुचित है. कई नेता तो यह भी चाहते हैं कि पार्टी में संघ का कोई हस्तक्षेप न हो, पार्टी को संघ से बिल्कुल अलग कर लिया जाए. आपसी फूट, अविश्‍वास, षड्यंत्र, अनुशासनहीनता, ऊर्जाहीनता, बिखराव एवं कार्यकर्ताओं में घनघोर निराशा के बीच चुनाव दर चुनाव हार का सामना वर्तमान में भारतीय जनता पार्टी की नियति बन गई है. ऐसे वक्त में भारतीय जनता पार्टी को चलाने के लिए एक पुराना अध्यक्ष मिला है. राजनाथ सिंह को नया नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि गडकरी से पहले राजनाथ सिंह ही अध्यक्ष थे. राजनाथ सिंह ऐसे अध्यक्ष रहे, जिनके पास ज़्यादा पावर नहीं था, क्योंकि दिल्ली के चार नेता, जो डी-4 के नाम से मशहूर हैं, वे पार्टी पर कुंडली मारकर बैठे रहे. भारतीय जनता पार्टी के सामने दो महत्वपूर्ण चुनौतियां हैं. पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ में सरकार बचाने की परीक्षा और राजस्थान, दिल्ली एवं झारखंड में बहुमत लाने की चुनौती है. साथ ही साथ 2014 के लोकसभा चुनाव की तैयारी शुरू हो गई है. कांग्रेस ने राहुल गांधी को मैदान में उतार दिया है.

भारतीय जनता पार्टी को इसका जवाब जल्द से जल्द देना होगा. नरेंद्र मोदी पार्टी के सबसे बड़े जनाधार वाले नेता बनकर उभरे हैं, राजनाथ सिंह को उनसे समन्वय स्थापित करना होगा. आडवाणी जी पार्टी के सबसे वरिष्ठ नेता हैं, लेकिन राजनाथ सिंह उनके पसंदीदा अध्यक्ष नहीं हैं. भारतीय जनता पार्टी देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी है. प्रजातंत्र में इसका महत्व और ज़िम्मेदारी सरकार चलाने वाली पार्टी से ज़्यादा है. ऐसी पार्टी का मुखिया बनना कोई आसान काम नहीं है. यह काम तब और भी मुश्किल हो जाता है, जब पार्टी के नेताओं के बीच गृहयुद्ध जैसा माहौल हो. ऐसे पद पर विराजमान होने के लिए दूरदर्शिता की आवश्यकता होती है. ऐसा दर्शन, जिससे आम जनता का विश्‍वास मज़बूत होता हो, लेकिन भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की फौज में अघोषित गृहयुद्ध चल रहा है. हर नेता दूसरे नेता को पीछे छोड़कर अगले चुनाव में प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनना चाहता है. दिल्ली में रहकर मीडिया में बयान देने वाले नेताओं के बीच भी शीतयुद्ध चल रहा है. पार्टी में हाशिए पर गए जनाधार वाले नेता लड़ रहे हैं. जो लोग पार्टी से बाहर चले गए हैं, वे गुटबंदी में शामिल हो रहे हैं. कुछ नेता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ मिलकर अपने हिसाब से इस दौड़ में शामिल होना चाहते हैं. भारतीय जनता पार्टी में चल रहे गृहयुद्ध का सबसे बड़ा नुक़सान देश की जनता का हो रहा है. भारतीय जनता पार्टी के सामने सुनहरा मौक़ा है. देश की जनता सरकार की नीतियों से त्रस्त है. महंगाई, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार और घोटालों के पर्दाफाश के चलते सरकार बैकफुट पर आ गई है, लेकिन भारतीय जनता पार्टी इस मौ़के का फ़ायदा नहीं उठा पा रही है. देश की जनता त्रस्त है. सरकार एक के बाद एक जनता को परेशानी में डालने वाली नीतियों पर अमल कर रही है. इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि सरकार का कोई विकल्प नज़र नहीं आ रहा है. भाजपा के नए अध्यक्ष से लोगों की उम्मीदें बढ़ेंगी, यह कहना ग़लत होगा. गुटबाज़ी पहले से कहीं ज़्यादा तीखी हो चुकी है. यही वजह है कि भाजपा ने जनता के सवालों को पीछे छोड़ दिया है. उसके पास न कोई नई रणनीति है, न कोई वैचारिक एवं आर्थिक रोडमैप है. पार्टी में गुटबाजी का आलम यह है कि एक विफल अध्यक्ष को फिर से अध्यक्ष बना दिया गया. दु:ख के साथ कहना पड़ता है कि भाजपा अपनी प्रासंगिकता और उपयोगिता ख़त्म करने पर आमादा है.

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