राहुल गांधी की राजनीति और रणनीति बदल गई है

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कांग्रेस पार्टी बदली-बदली सी नज़र आ रही है. राहुल गांधी कांग्रेस पार्टी में नई ऊर्जा भरने में सफल साबित हो रहे हैं. राहुल गांधी की छवि अब एक अनिच्छुक नेता की नहीं रही, बल्कि वह एक सक्रिय नेता बनकर उभर रहे हैं. राहुल गांधी की रणनीति सा़फ है. इस रणनीति के दो पहलू हैं. पहला यह कि भारतीय जनता पार्टी को अमीरों और कॉरपोरेट्‌स को फायदा पहुंचाने वाली पार्टी के रूप में पेश करना है. दूसरा यह कि कांग्रेस पार्टी को ग़रीबों, किसानों, मज़दूरों के लिए संघर्ष और आंदोलन करने वाली पार्टी के रूप में खड़ा करना है. राहुल गांधी का नया अवतार और संसद के अंदर मोदी सरकार के हर क़दम का विरोध भारतीय जनता पार्टी के लिए परेशानी का सबब बन गया है.

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राहुल गांधी जबसे अवकाश से वापस लौटे हैं, तबसे वह बिल्कुल अलग अंदाज़ में दिख रहे हैं. राहुल गांधी का न स़िर्फ अंदाज़ नया है, बल्कि उनकी सोच भी नई है. रणनीति नई है. राजनीति नई है. सलाहकार नए हैं और नज़रिया नया है. यही वजह है कि पिछले दस सालों में वह जितना संसद में बोले, उससे कहीं ज़्यादा बजट सत्र में उन्होंने अपनी बात रखी. संसद में वह भारतीय जनता पार्टी पर प्रहार कर रहे हैं, साथ ही किसानों के मुद्दे को लेकर संसद से सड़क तक नज़र आ रहे हैं. किसानों की आत्महत्या के ़िखला़फ वह चिलचिलाती गर्मी में पदयात्रा भी कर रहे हैं. गांवों में जाकर वह लोगों के बीच खाट पर बैठकर चाय पीते हैं, ग्रामीणों से बातचीत करते हैं. संसद के अंदर चाहे भूमि अधिग्रहण का मामला हो या फिर नेट न्यूट्रैलिटी का, राहुल गांधी एक नए अवतार में नज़र आ रहे हैं. यह भी कहना पड़ेगा कि उनका प्रदर्शन जबरदस्त रहा है. कहने का मतलब यह कि राहुल गांधी जबसे अवकाश से वापस लौटे हैं, वह काफी प्रभावशाली नेता के रूप में उभरे हैं. राहुल के इस प्रदर्शन से जहां एक तऱफ भारतीय जनता पार्टी बैकफुट पर चली गई, वहीं कांग्रेस पार्टी के अंदर भी बेचैनी फैली हुई है. कांग्रेस का हर बड़ा और छोटा नेता पार्टी में अपने भविष्य को लेकर गहन चिंतन कर रहा है.

चौथी दुनिया ने तीन महीने पहले ही यह ़खबर दी थी कि सितंबर में राहुल गांधी को कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष बनाया जाएगा. राहुल गांधी के सारे क्रियाकलाप कांग्रेस की इसी महायोजना के हिस्से हैं. राहुल गांधी न स़िर्फ कांग्रेस के अध्यक्ष बनेंगे, बल्कि वह अपने पसंद की टीम भी बनाएंगे. अपनी नई टीम की ज़रिये ही वह पार्टी को फिर से मजबूत करने की रणनीति ज़मीन पर लागू करेंगे. राहुल की टीम में कौन-कौन होगा और किस-किसकी छुट्टी होगी, इसे लेकर नए और पुराने कांग्रेसी नेता आजकल बेचैन हैं. बेचैनी की वजह यह है कि राहुल गांधी का पूरा अंदाज़ बदल चुका है. राहुल गांधी अब कांग्रेस को ऐसी पार्टी के रूप में विकसित करना चाहते हैं, जिसमें पदाधिकारियों को ज़िम्मेदारी लेनी होगी. वह अब कुछ खास सलाहकारों से सलाह लेने के बजाय विस्तृत परामर्श के बाद फैसले लेने लगे हैं. यही वजह है कि कल तक जो लोग राहुल गांधी के निकटतम सलाहकार थे, उनका प्रभाव और महत्व कम हो गया है. राहुल गांधी को अब यह बात समझ में आ गई है कि उनके कई सारे फैसले जो उन्होंने अपने निकटतम सलाहकारों की सलाह पर लिए थे, उनसे उन्हें और पार्टी को ऩुकसान हुआ है. ऐसे लोगों में जयराम रमेश, मधुसूदन मिस्त्री, मोहन प्रकाश और सीपी जोशी आदि शामिल हैं.
राहुल गांधी को इस बात का एहसास हो चुका है कि अब कांग्रेस विपक्ष के रोल में है और सरकार पर आक्रमण करना ही सबसे कारगर रणनीति है. इसलिए वह हर मुद्दे पर आक्रामक नज़र आ रहे हैं. उनकी रणनीति सा़फ है. वह मोदी सरकार को ग़रीब, किसान एवं मज़दूर विरोधी सरकार के रूप में प्रचारित करना चाहते हैं. यही वजह है कि वह भूमि अधिग्रहण बिल के खिला़फ संसद से सड़क तक आंदोलन करने में जुटे हैं. भूमि अधिग्रहण बिल के विरोध के पीछे वह उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल के ग़रीब किसानों को लुभाने की कोशिश में लगे हैं. राहुल गांधी को लगता है कि लोकसभा चुनाव में हार की वजह मनमोहन सरकार की ग़रीब विरोधी छवि रही है. साथ ही उन्हें इस बात से नाराज़गी है कि यूपीए सरकार के मंत्रियों ने कई सारी जनहितकारी योजनाओं के कार्यान्वयन में ढिलाई बरती. उन्हें लगता है कि यदि किसानों एवं ग़रीबों को सीधे-सीधे नकदी (कैश) देने वाली योजनाओं को सही ढंग से लागू किया गया होता और किसानों एवं ग्रामीण मज़दूरों को राहत देने वाली विभिन्न योजनाओं पर ध्यान दिया गया होता, तो पार्टी की यह हालत न होती. राहुल गांधी को एक और बात की शिकायत है कि भ्रष्टाचार को लेकर पार्टी की जो छवि बनी, उससे पारंपरिक समर्थकों का विश्वास और समर्थन पार्टी ने खो दिया. अभी लोकसभा चुनाव में चार साल का वक्त है. इस बीच बिहार, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने हैं. राहुल ने पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं को सा़फ निर्देश दिए हैं कि पार्टी के पुनर्निर्माण का काम ज़मीनी स्तर से शुरू होना चाहिए. इसमें युवाओं को ज़्यादा से ज़्यादा मौक़ा मिलना चाहिए. इसके साथ ही पार्टी पदाधिकारियों और नेताओं को अपने-अपने क्षेत्रों में जाकर काम करने की सलाह दी गई है.

राहुल गांधी को इस बात का एहसास हो चुका है कि अब कांग्रेस विपक्ष के रोल में है और सरकार पर आक्रमण करना ही सबसे कारगर रणनीति है. इसलिए वह हर मुद्दे पर आक्रामक नज़र आ रहे हैं. उनकी रणनीति सा़फ है. वह मोदी सरकार को ग़रीब, किसान एवं मज़दूर विरोधी सरकार के रूप में प्रचारित करना चाहते हैं. यही वजह है कि वह भूमि अधिग्रहण बिल के खिला़फ संसद से सड़क तक आंदोलन करने में जुटे हैं.

राहुल गांधी कांग्रेस पार्टी की ज़िम्मेदारी लेने को तैयार हैं. पार्टी को फिर से खड़ा करने की रणनीति भी उन्होंने बना ली है. उन्हें चुनौतियों का अंदाज़ा भी हो चुका है. कांग्रेस पार्टी के अंदर मौजूद कमियों को भी उन्होंने समझने की कोशिश की है और उसका विश्लेषण किया है. कांग्रेस पार्टी के अंदर अभी ऊहापोह की स्थिति है, कोई आगे बढ़कर बोलना नहीं चाहता. पार्टी नेताओं में राहुल गांधी की नज़रों में योग्य दिखने की होड़ लगी है. कांग्रेस के एक युवा नेता ने बताया कि राहुल गांधी ने चुनाव नतीजे आने के बाद क़रीब 500 ज़मीनी कांग्रेसी नेताओं और पदाधिकारियों से बातचीत की. सबसे हार के कारणों को चिन्हित करने को कहा. राहुल गांधी यह काम दो महीने तक करते रहे और उसके बाद उन्होंने रणनीति तय की. इसके चार चरण हैं. पहला, पार्टी को ग्रास रूट लेवल पर मजबूत करना. दूसरा, स्थानीय मुद्दों को उठाकर कांग्रेस के पारंपरिक मतदाताओं-समर्थकों के साथ संपर्क स्थापित करना. तीसरा, जिन राज्यों में कांग्रेस की सरकार नहीं है, वहां सरकार का विरोध करते हुए जनता के बीच अपनी उपस्थिति बनाए रखना. चौथा यह कि पिछले दिनों हुईं ग़लतियों का सुधारना, जैसे कि प्रत्यक्ष रूप से प्रो-मुस्लिम नज़र आना.

राहुल गांधी ने यह रणनीति फरवरी में ही तैयार कर ली थी, लेकिन इसे कब से लांच किया जाए, यह तय नहीं हो पाया था. देरी इसलिए हुई, क्योंकि पार्टी के अंदर राहुल के ़िखला़फ ही कई नेता बयानबाजी करने लगे. कांग्रेस पार्टी के पुराने और अनुभवी नेता भी विरोध पर उतारू थे. कांग्रेस के अंदर यह भय भी पैदा हो गया था कि कहीं कुछ नेता विद्रोह न कर बैठें. इसलिए किसी भी बदलाव के फैसले को रोका गया. सोनिया गांधी ने पुराने नेताओं से बातचीत करके माहौल को नियंत्रित किया. खबर यह भी आई कि राहुल इस देरी की वजह से नाराज़ भी हुए और बजट सत्र के दौरान अवकाश पर चले गए. इसके बाद संसद के अंदर सोनिया गांधी ने मोर्चा संभाला. किसानों के मुद्दे, खासकर भूमि अधिग्रहण बिल पर सोनिया गांधी की आक्रामक मुद्रा ने कांग्रेस के लिए संजीवनी का काम किया. निराश और असहाय बैठे कांग्रेसी कार्यकर्ता जोश में आ गए. साथ ही राहुल गांधी के रि-लांचिंग का आधार भी बन गया. सोनिया गांधी ने बड़ी परिपक्वता के साथ राहुल के लिए राह आसान कर दी. यह तय हो गया कि राहुल गांधी अब अपने हिसाब से पार्टी को चलाएंगे और उनकी पदोन्नति में अब कोई भी पुराने एवं वरिष्ठ कांग्रेसी नेता रोड़ा नहीं बनेंगे.

यही वजह है कि राहुल गांधी ने अवकाश से वापस आते ही मोर्चा संभाल लिया. संसद के अंदर उनका शानदार प्रदर्शन रहा ही. साथ ही उन्होंने किसानों के लिए पदयात्रा और संपर्क साध कर अपनी नई भूमिका की शुरुआत कर दी. राहुल की रणनीति सा़फ है. उन्हें यह भी समझ में आ चुका है कि कांगे्रस को सांगठनिक और वैचारिक रूप से खड़ा करना होगा. उन्होंने पार्टी को ग़रीबों, किसानों, मज़दूरों और दलितों की हितैषी दिखने वाली समाजवादी लाइन पर वापस लाने का फैसला किया है. यह वैचारिक लाइन भारतीय जनता पार्टी को कॉरपोरेट्‌स द्वारा संचालित और अमीरों के लिए काम करने वाली पार्टी घोषित करने में मददगार साबित होगी और साथ ही इसके ज़रिये वह जनता परिवार और क्षेत्रीय दलों को वैचारिक चुनौती देने में भी सफल हो पाएंगे. राहुल गांधी अगले एक-दो साल में कांग्रेस को संगठन और विचारधारा के तौर पर बिल्कुल एक नई पार्टी के रूप में खड़ा करना चाहते हैं. वह चाहते हैं कि पार्टी युवाओं के समर्थन से युवाओं द्वारा युवाओं के भविष्य के लिए समर्पित हो.

राहुल गांधी ने यह रणनीति फरवरी में ही तैयार कर ली थी, लेकिन इसे कब से लांच किया जाए, यह तय नहीं हो पाया था. देरी इसलिए हुई, क्योंकि पार्टी के अंदर राहुल के खिला़फ ही कई नेता बयानबाजी करने लगे. कांग्रेस पार्टी के पुराने और अनुभवी नेता भी विरोध पर उतारू थे. कांग्रेस के अंदर यह भय भी पैदा हो गया था कि कहीं कुछ नेता विद्रोह न कर बैठें.

राहुल गांधी कांग्रेस को एक संघर्षशील पार्टी के रूप में तैयार करना चाहते हैं. इसी रणनीति के तहत वह देश के हर राज्य में जा-जाकर केंद्र सरकार के खिला़फ आवाज़ बुलंद करने वाले हैं. केंद्र सरकार की नीतियों का विरोध वह स़िर्फ संसद और प्रेस कांफ्रेंस के ज़रिये नहीं करना चाहते हैं. वह देश के अलग-अलग इलाकों, खासकर भाजपा शासित राज्यों का खूब दौरा करने वाले हैं. इसके दो उद्देश्य हैं. एक तो संगठन को नई ऊर्जा मिलेगी, दूसरे वह किसानों, मज़दूरों और ग़रीबों का मुद्दा उठाकर भाजपा सरकार को सूटबूट की सरकार साबित करेंगे. जिन राज्यों में कांग्रेस पार्टी की सरकार नहीं है, उन पर राहुल गांधी का विशेष ध्यान है. ऐसे राज्यों के कांग्रेस नेताओं एवं कार्यकर्ताओं की बातों को वह ज़्यादा तरजीह दे रहे हैं. उन्हें सा़फ-सा़फ निर्देश दिया गया है कि वे राज्य सरकार के खिला़फ हरसंभव मुद्दे पर आंदोलन और विरोध प्रदर्शन करें. आने वाले दिनों में कांग्रेस के ऐसे स्थानीय आंदोलनों में स्वयं राहुल गांधी की भी हिस्सेदारी रहने वाली है. हर राज्य के कांग्रेस नेताओं को बूथ स्तर पर पार्टी संगठन तैयार करने को कहा गया है. साथ ही राहुल गांधी ने बूथ स्तर तक के लिए पार्टी संगठन में फेरबदल करने की इच्छा जताई है. वह चाहते हैं कि पार्टी के हर स्तर पर विचारधारा में आस्था रखने वालों को ज़िम्मेदारी दी जाए. ऐसे लोगों को स्थानीय स्तर पर फैसले लेने में हिस्सेदार बनाया जाए. कांग्रेस पार्टी जल्द ही ऐसे लोगों की पहचान और उन्हें पार्टी में वापस शामिल करने के लिए एक मुहिम की शुरुआत करेगी. इसमें युवाओं को प्राथमिकता दी जाएगी और इस कार्य के पूरा होते ही उन्हें प्रशिक्षित भी किया जाएगा.

कई लोगों को लग सकता है कि राहुल गांधी पिछले कई सालों से संगठन मजबूत करने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन वह कभी सफल नहीं हो पाए. इसलिए इसमें कुछ भी नया नहीं है. यह सवाल भी जायज है. लेकिन, इस बार राहुल गांधी जो फैसले ले रहे हैं, उनमें राजनीतिक परिपक्वता नज़र आ रही है. साथ ही सरकार का बंधन भी नहीं है. पहले भी वह किसानों, मज़दूरों, ग़रीबों और वनवासियों की आवाज़ उठाते रहे हैं. चाहे मामला भट्टा- पारसौल के किसानों का हो या फिर नियमगिरि के वनवासियों का, राहुल ने इन मुद्दों को उठाया ज़रूर, लेकिन तत्कालीन यूपीए सरकार राहुल गांधी के विचारों को योजनाओं में कार्यान्वित नहीं कर सकी. जनता को लगा कि कांग्रेस पार्टी में विरोधाभास है. राहुल कहते कुछ हैं और उनकी सरकार करती कुछ और है. कांग्रेस पार्टी के सामने अब यह दुविधा नहीं है. राहुल गांधी राजनीतिक फैसले ले रहे हैं. उनकी ज़्यादातर गतिविधियां उन राज्यों में केंद्रित होंगी, जहां कांग्रेस की सरकार नहीं है. लेकिन, फिलहाल राहुल गांधी बिहार, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल पर ज़्यादा ध्यान देने वाले हैं. बिहार में सितंबर-अक्टूबर में चुनाव होने वाले हैं, लेकिन इन तीनों राज्यों के विधानसभा चुनाव की तैयारी अभी से शुरू हो जाएगी.
हालांकि, राहुल देश के कई राज्यों में संगठन के पुनर्गठन का काम करेंगे, राज्य स्तर पर कई नेताओं की छुट्टी भी हो सकती है. सबसे ज़्यादा कलह की आशंका उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के नए प्रदेश अध्यक्ष की नियुक्ति को लेकर जताई जा रही है. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का नया प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त किया जाएगा, इसके लिए वह कुछ कड़े फैसले भी ले सकते हैं. कांग्रेस संगठन के पुनर्गठन की प्रक्रिया के तहत राहुल युवाओं को ज़्यादा से ज़्यादा मा़ैका देना चाहते हैं. उनकी नई रणनीति मूल रूप से युवा केंद्रित रणनीति है. ऐसे लोगों को मा़ैका दिया जाएगा, जो एनएसयूआई और युवक कांग्रेस के साथ कई सालों से जुड़े हैं. इसी रणनीति के तहत कांग्रेस पार्टी आएदिन देशव्यापी बंद और आंदोलन का आह्वान करेगी. राहुल चाहते हैं कि सड़कों पर कांग्रेस का जो भी आंदोलन हो, उसमें युवाओं की भागीदारी सुनिश्चित हो. युवाओं का समर्थन हासिल करने के लिए राहुल गांधी के सोशल मीडिया पर एकाउंट खोले गए हैं. भाजपा और आम आदमी पार्टी की तरह कांग्रेस भी सोशल मीडिया के ज़रिये युवाओं से सीधे जुड़ने की तैयारी कर रही है.

राहुल की रणनीति की सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि किसी भी पुराने बड़े नेता को दरकिनार नहीं किया जाएगा. हां, इतना ज़रूर है कि उनकी ज़िम्मेदारी तय की जाएगी. राहुल गांधी के सामने चुनौतियों का पहाड़ है. चुनौतियां पार्टी के अंदर भी हैं और पार्टी के बाहर भी. अध्यक्ष बनने के बाद राहुल गांधी पार्टी में जान फूंकने में सफल होते हैं या नहीं, यह तो वक्त ही बताएगा, लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि राहुल गांधी जबसे अवकाश से वापस लौटे हैं, तबसे उनकी हर गतिविधि एक योजना के तहत है. इस योजना का पहला मकसद कांग्रेस को एक सक्षम विपक्ष के रूप में तैयार करना है, जिससे लोगों को यह विश्वास हो सके कि कांग्रेस मोदी का मुकाबला कर सकती है. फिलहाल, राहुल गांधी अपनी रणनीति में सफल होते नज़र आ रहे हैं.

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