प्रधानमंत्री जी भविष्य को देखिए

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manmohan singhजय हो गया… कांग्रेस विजयी हो गई… नई सरकार बन गई. जनता ने अगले पांच साल के लिए देश की कमान मनमोहन सिंह के हाथों में दे दी है. देखना यह है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इस मज़बूत जनादेश का अपनी दूसरी पारी में किस तरह इस्तेमाल करते हैं. मनमोहन सिंह एक अर्थशास्त्री हैं. पूरी दुनिया उन्हें भारत में निजीकरण के जनक के रूप में जानती है. यही उनकी सबसे बड़ी विशेषता है और यही उनकी सबसे बड़ी कमजोरी भी.

मनमोहन सिंह कि सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वह सरकार और सरकारी संस्थाओं के प्रति लोगों का विश्वास किस तरह जीत पाएंगे. जिस तरह नेताओं और संस्थाओं पर से जनता का विश्वास उठा है, वह प्रजातंत्र के लिए एक ख़तरा है. इस विश्वास को वापस लाने की ज़िम्मेदारी इस सरकार की है. इस बार का जनादेश पिछली बार के जनादेश से अलग है, इसलिए जनता को उम्मीद है कि इस बार मनमोहन सिंह अलग ढंग से सरकार चलाएंगे. इस शक्तिशाली जनादेश का साफ मतलब है कि इस बार जनता सरकार से बेहतर कामों की उम्मीद कर रही है.

पिछले पांच सालों में मनमोहन सिंह की सरकार की योजनाओं का फायदा समाज के सबसे ग़रीब वर्ग को नहीं हुआ. किसानों की हालत ऐसी हो गई है कि वे आत्महत्या कर रहे हैं. विकास के नाम पर देश के किसानों की ज़मीन छीनी जा रही है. किसानों को लगता है कि सरकार किसी प्रॉपर्टी डीलर की तरह काम कर रही है. किसानों को पानी नहीं मिल रहा है. विदेशी कंपनियों की वजह से खाद और बीज की क़ीमत आसमान छू रही है. किसानों का विकास सिर्फ ऋण माफ करने से नहीं होगा. किसानों के लिए एक समग्र योजना की ज़रूरत है. जनजातियों की हालत किसानों से भी बदतर है. जंगल कट रहे हैं और जनजातियों की ज़िंदगी और आशियानों को नष्ट किया जा रहा है. आज़ादी के बाद से अब तक देश के विकास के लिए सबसे ज़्यादा क़ुर्बानियां जनजातियों ने दी हैं. विकास के लिए उद्योगीकरण और खनन ज़रूरी है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि इसके लिए जनजातियों की ज़िंदगी तबाह की जाए. अफसोस की बात यह है कि सरकार की पुनर्निवास योजना का एक भी सफल उदाहरण हमारे सामने नहीं है. यह विडंबना ही है कि विकास की मलाई खाने वाले वे नहीं हैं जिन्होंने इसके लिए क़ुर्बानियां दी हैं. जनजातियों और किसानों की ख़ुशहाली ही ममनमोहन सिंह की असल चुनौती है.

कांग्रेस ने चुनाव के दौरान नरेगा (राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम) और क़र्ज़ माफी से काफी फायदा उठाया. नरेगा गरीबों के लिए 100 दिनों के रोज़गार की स्कीम है. इसमें कम से कम 141 रुपये प्रतिदिन दिए जाते हैं. हक़ीक़त यह है कि इन दोनों योजनाओं के लागू करने में बहुत कमियां हैं. इन दोनों योजनाओं का फायदा उन लोगों तक नहीं पहुंच रहा जिनके लिए इन्हें बनाया गया है. चुनाव के दौरान कांग्रेस ने इसकी असफलता का ठीकरा राज्य सरकारों पर फोड़ा. अब कांग्रेस के पास पूरा मौका है कि इसे ठीक से लागू करे. मनमोहन सिंह को ख़ुद इन योजनाओं को ठीक से लागू करने की ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए.

जनता ने मनमोहन सिंह को इसलिए फिर से सरकार चलाने का मौका दिया, क्योंकि वह ईमानदार हैं. अब व़क्त आ गया है कि वह जनता के इस विश्वास को और भी मज़बूती प्रदान करें. इस बार चुनाव में राहुल गांधी अपने पिता राजीव गांधी के उस बयान को दोहराते पाए गए कि जिस काम के लिए सरकार एक रुपये भेजती है उसमें से स़िर्फ 15 पैसे ही ज़रूरतमंद लोगों तक पहुंचते हैं. 2014 के चुनाव में जनता इस दलील को नहीं सुनेगी. मनमोहन सिंह को हर वे कदम उठाने पड़ेंगे जिनसे सरकार का पूरा पैसा ज़रूरतमंदों तक पहुंच सके. इसके लिए मनमोहन सिंह को पूरे सरकारी तंत्र को साफ करना होगा. भ्रष्टाचार के ख़िला़फ मुहिम छेड़ने की ज़रूरत होगी. नौकरशाही में बदलाव लाने की ज़रूरत होगी और उन्हें उत्तरदायी बनाना होगा. नौकरशाहों के हर स्तर पर कलेक्टर से लेकर केंद्रीय सरकार के उपसचिव तक ज़िम्मेदारी सुनिश्चित करनी होगी. ज़िम्मेदारी का निर्धारण ही ऐसी चीज़ है जो सरकार को घोटालों को रोकने में और योजनाओं को लागू करने में मदद करती है. अगर मनमोहन सिंह एक जवाबदेह सरकार नहीं बना पाए तो डर है कि वह दूसरे दौर में असफल प्रधानमंत्री साबित न हो जाएं. सरकारी योजनाओं को लागू करने में असफल नौकरशाहों को दंडित करना होगा.
देश भर के मुसलमानों ने इस बार कांग्रेस का साथ दिया. मुस्लिम मतदाताओं की वजह से कांग्रेस उन राज्यों में भी जीत सकी, जहां पार्टी सिमट चुकी थी. देश में मुसलमानों की हालत बद से बदतर होती जा रही है. मुस्लिम समाज अशिक्षा, बेरोज़गारी से लेकर स्वास्थ्य तक की समस्याओं से जूझ रहा है. मुसलमान ख़ुद को राष्ट्र की मुख्यधारा से अगल-थलग महसूस कर रहे हैं. मुसलमानों की यह व्यथा है कि देश में अब ऐसा कोई नहीं बचा है जो उन्हें विकास की प्रक्रिया में और राजनीति की निर्णय प्रक्रिया में शामिल होने के लिए आमंत्रित करे. मुसलमानों के विकास के लिए कई कमेटियां बनीं, लेकिन उनकी सिफारिशों को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया. इस जनादेश के बाद अब मनमोहन सिंह की यह अहम चुनौती है कि वह किस तरह देश के मुसलमानों की बेहतरी के लिए काम करते हैं.

मनमोहन सिंह सरकार को शहरों में काफी समर्थन मिला है. देश के दो सबसे बड़े शहरों दिल्ली और मुंबई में कांग्रेस को अभूतपूर्व सफलता मिली है. लेकिन देश के शहर रहने लायक नहीं रह गए हैं. जहां की जनता बस इतना चाहती है कि शहरों में सुरक्षा हो, साफ सुधरी सड़कें, स्कूल, अस्पताल हों और साथ ही पीने का साफ पानी और बिजली की कमी न हो. शहरों में फैल रही झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों और अन्य ग़रीबों की ज़िंदगी अभिशाप बन चुकी है. शहर में रह रहे इन ग़रीबों के लिए सरकार को एक समग्र योजना बनाने की ज़रूरत है. ऐसा करने के लिए नौकरशाही को दुरुस्त करने की ज़रूरत पड़ेगी.

मनमोहन सिंह की एक और चुनौती यह है कि वह कांग्रेस पार्टी के घोषणापत्र को अक्षरश: लागू करें. यह काम आसान नहीं होगा, क्योंकि सरकार बनते ही अर्थशास्त्री और उद्योगपतियों से दबाव होगा कि देश में फिर से निजीकरण और विनिवेश का दौर चले. पिछली बार जिस तरह नार्थ ब्लॉक और साउथ ब्लॉक में बिचौलियों और सत्ता के दलालों का वर्चस्व रहा, उसे भी मनमोहन सिंह को ख़त्म करना होगा. उन्हें अपनी पार्टी के दलालों से भी बचाना होगा. इसलिए कि लोगों को लगता है कि दलाल उनकी पार्टी में आसानी से घुस जाते हैं और राज्यसभा के जरिए सांसद बनकर सरकार को प्रभावित करते हैं.
यह जनादेश आम आदमी के लिए ख़ुशख़बरी है. मनमोहन सिंह को यह शानदार मौका मिला है कि वह मंदी के इस दौर में देश की आर्थिक स्थिति को सुधारें. मनमोहन सिंह इस काम को करने में सक्षम हैं और अगर वह इसमें सफल होते हैं तो उनका कद विश्व स्तर के नेता का हो जाएगा. समझने वाली बात यह है कि जनता ने कांग्रेस को इसलिए वोट नहीं दिया कि मनमोहन सिंह देश में फिर से निजीकरण और विनिवेश की नीतियों को अपनाएं. जनता को उम्मीद यह है कि इस बार वह सामाजिक विकास और सामाजिक न्याय पर ध्यान देंगे. रोज़गार के नए दरवाजे खोलेंगे और आम आदमी को महंगाई से राहत दिलाएंगे.

देश की आंतरिक सुरक्षा भी मनमोहन सिंह के लिए एक चुनौती है. भारत पिछले कुछ सालों से आतंकवादियों के निशाने पर रहा है. देश का कोई भी शहर सुरक्षित नहीं है. मुंबई में हुए आतंकवादी हमले ने सरकार की तैयारियों की पोल खोल दी. स्थानीय पुलिस और केंद्रीय सुरक्षा बलों में तालमेल का अभाव साफ दिखा. पुलिस वाले लाठी लेकर एके-47 का सामना करते नज़र आए. यह ठीक है कि जान पर खेल देश के बहादुर सिपाही आतंकवादियों का मुक़ाबला कर रहे हैं, लेकिन सवाल यह है कि ऐसा कब तक चलता रहेगा? सरकार को इससे निपटने के लिए बड़े क़दम उठाने होंगे. सैन्य बलों और पुलिस फोर्स को आधुनिक हथियार और संचार के अत्याधुनिक तकनीक मुहैया कराने की ज़रूरत है. यह भी सच है कि खुफिया तंत्र बेकार हो चुके हैं, इसलिए देश में खुफिया तंत्र पर नए ठंग से सोचने की ज़रूरत है. आतंकवादियों से निपटने के लिए थलसेना, जलसेना और वायुसेना का इस्तेमाल किस तरह हो, इस पर भी विचार करना होगा.
आतंकवाद से भी बड़ी चुनौती मनमोहन सिंह के सामने क़ानून-व्यवस्था लागू करने वाली एजेंसियों को चुस्त और दुरुस्त करने की है. कोई शहर ऐसा नहीं है जहां महिलाओं की गले की चेन न छिनी जा रही हो, पर्स ना छीने जा रहे हों. पैसा जमा कराने जाते हुए या पैसा निकालकर आते हुए लोग बैंकों के सामने दिनदहाड़े लुट रहे हैं. हर दूसरे दिन इस तरह की ख़बरें आती हैं कि किसी लड़की को गाड़ी में खींच कर बलात्कार कर बाहर फेंक दिया गया. क़ानून-व्यवस्था की बिगड़ती स्थिति अत्यंत चिंताजनक है. इससे निपटने के लिए ़पुलिस सुधार आयोग की रिपोर्ट को अविलंब लागू करना बेहद ज़रूरी है.
देश के अलग-अलग राज्यों में हज़ारों गांव और सौ से ज़्यादा जिले नक्सलियों से प्रभावित हैं. वहां समानांतर सरकार चल रही है. चुनाव के दौरान पचास से अधिक नक्सली हमले हुए. चुनाव को रोकने की कोशिश की गई. मनमोहन सिंह ने नक्सलवाद को एक राष्ट्रीय सुरक्षा का मामला बताया है, लेकिन पिछले पांच सालों में कोई भी ठोस क़दम नहीं उठाए गए. अब इस जनादेश के बाद देखना है कि सरकार इस ख़तरे से किस तरह निपटती है.

मनमोहन सिंह कि चुनौती पड़ोसी देशों के साथ अच्छे रिश्ते बनाने की भी होगी. पूरा दक्षिण एशिया जल रहा है. पाकिस्तान अस्थिरता के सबसे ख़तरनाक दौर में है. वहां की सरकार तालिबान से अपनी ही ज़मीन पर लड़ रही है और साथ में ऐसी भी ख़बरें आ रही हैं कि वह विदेशी पैसे का इस्तेमाल परमाणु बम बनाने में कर रहा है. पाकिस्तान और भारत के बीच वार्ता पर विराम लगा हुआ है. पाकिस्तान में तालिबान का सफाया होने के बाद कश्मीर के दुर्गम इलाक़ों में घुसपैठ का ख़तरा बढ़ गया है. श्रीलंका में तमिलों को लेकर अभी अनिश्चितता है. नेपाल भी राजनीतिक संकट से गुज़र रहा है. बांग्लादेश में बांग्लादेश राइफल द्वारा हाल में हुए सैनिक विद्रोह की वजह से वहां की स्थिति भी चिंताजनक है. मनमोहन सिंह सरकार के सामने चुनौती यह भी है कि पड़ोसियों के साथ हमारे रिश्ते कैसे बेहतर बनें और किस तरह इन देशों की समस्याओं में भारत उनकी मदद कर सकता है.

इन सबसे पहले मनमोहन सिंह की सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वह कैबिनेट के अंदर प्रधानमंत्री की प्रमुखता को फिर से वापस लाएं. पिछली बार सरकार बनने के बाद कांग्रेस और सहयोगी दलों के मंत्री ख़ुद को सुपर प्रधानमंत्री की तरह समझने लगे थे और प्रधानमंत्री कार्यालय की अनदेखी होने लगी थी. लेकिन इस बार मनमोहन सिंह को चाहिए कि वह हर छह महीने में मंत्रालयों के कामों का जायज़ा लें और काम में ढील बरतने वाले मंत्रियों को बाहर का रास्ता दिखाएं और मंत्रालयों को एटीएम बनने से रोकें. मनमोहन सिंह को शुरू से ही संदेश देना पड़ेगा कि पिछली सरकार की तरह इस बार मंत्रालयों की अनुशासनहीनता और अनैतिकता को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. देश की जनता यही चाहती है कि सरकार के कामों में अड़ंगा लगाने वाले मंत्री और नेताओं को सत्ता में रहने का कोई हक़ नहीं है.

अंत में, मनमोहन सिंह को जनता ने फिर से मौका इसलिए नहीं दिया है कि वह फिर से पुराने दिनों वाली कांग्रेस की संस्कृति को लागू करें. जनता को इसकी झलक तब मिली जब जीत की भनक लगतेे ही कुछ लोग राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनने के लिए चापलूसी के स्तर पर उतर आए. सोनिया गांधी ने इस तरह की मांगों को तुरंत ख़ारिज़ करके अच्छा काम किया. अगर सोनिया गांधी कांग्रेस में मौजूद चापलूस किस्म के नेताओं को दरकिनार कर दें और पार्टी में नए लोगों को मौका दें तो कांग्रेस उन सभी लोगों की आशाओं को साकार करेगी जिन्होंने इस बार कांग्रेस को वोट दिया है.

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