नरेंद्र मोदी बनाम राहुल

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देश में इस वक़्त दो व्यक्ति प्रधानमंत्री पद के प्रमुख दावेदार हैं. राहुल गांधी और नरेन्द्र मोदी. लेकिन न तो राहुल और न ही मोदी ने तरक्की का ऐसा कोई मॉडल पेश किया हैजो समूचे देश के हित में हो. हालांकिदोनों ही कहते हैं कि देश मज़बूत और विकसित बनेपर दोनों को ही ये नहीं पता कि ऐसा होगा तो आख़िरकार होगा कैसेमोदी हों या राहुलदोनों ही बस जुमले उछालते हैंसवाल उठाते हैंपर समाधान नहीं बताते.  

narednra modi vs rahul gandhi

नीम हकीम ख़तरा ए जान, यह एक कहावत है. इसका मतलब है कि जिसे आधा ज्ञान हो उससे ख़तरा होता है. राहुल गांधी ने शायद इस कहावत पर ध्यान नहीं दिया. यही वजह है कि इतनी मेहनत करने के बावजूद वह अपनी साख़ बतौर एक प्रबल राष्ट्रीय नेता के रूप में स्थापित करने में विफल रहे हैं. इन्हीं सलाहकारों की वजह से बिहार और उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में उनकी किरकिरी हुई. राहुल गांधी के सलाहकार कांग्रेस पार्टी के लिए मुसीबत बन चुके हैं. अतिबुद्धिमान सलाहकारों की वजह से जो हाल पिछली लोकसभा चुनाव में लालकृष्ण आडवाणी का हुआ, वही हश्र राहुल गांधी का 2014 में होता दिखाई दे रहा है.

चुनाव के दौरान विपक्ष के लिए सत्ताधारी पार्टी के कामों की आलोचना करना आसान काम है, क्योंकि उनका काम सबके सामने होता है. इस बार यह विपक्ष के लिए ज्यादा आसान है, क्योंकि यूपीए ने पिछले दस सालों में ऐसे-ऐसे कारनामे किए हैं, जिसका दर्द पूरा देश झेल रहा है. चाहे घोटाला हो, महंगाई हो, बेरा़जगारी हो, बदनामी हो, सरकारी तंत्र में घुन लगना हो, कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार हर बुरे काम में अव्वल है. आज़ादी के बाद से इतनी अलोकप्रिय सरकार कोई नहीं हुई. भारत में दो ऐसे मुद्दे हैं, जो चुनाव को सबसे ज़्यादा असर करते हैं. वह महंगाई और भ्रष्टाचार है. वर्तमान सरकार के कार्यकाल में ये दोनों ही मुद्दे अपनी पराकाष्ठा को छू चुके हैं. यही कांग्रेस के लिए ख़तरे घंटी है. सवाल यह है कि क्या राहुल गांधी 2014 में कांग्रेस को जीत दिला सकते हैं. क्या उनके नेतृत्व में वो क्षमता है कि केंद्र में वो फिर से कांग्रेस की सरकार को स्थापित कर पाएंगे और प्रधानमंत्री बन सकेंगे.

राहुल गांधी को लेकर मीडिया में काफी हलचल है. देश ने यह मान लिया है कि 2014 का चुनाव मोदी वर्सेस राहुल होगा. एक ओर जहां मोदी बड़ी-बड़ी रैलियां कर रहे हैं. उनके पक्ष में एक अंडरकरेंट चल रहा है. हाल के दिनों में हुए सारे सर्वे एक स्वर में मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए पहली पसंद बता रहे हैं. मोदी फिलहाल लोकप्रियता के पहले पायदान पर हैं, लेकिन हमारे देश में चुनाव की प्रक्रिया ऐसी है, जिसमें इन सर्वे का कोई ज़्यादा असर नहीं होने वाला है. मोदी के बाद अगर कोई नाम प्रधानमंत्री पद के लिए सामने आता है तो वह है राहुल गांधी. कई लोगों को लगता है कि वह हमारे भाविष्य के प्रधानमंत्री हैं. यह कहना पड़ेगा कि राहुल गांधी प्रधानमंत्री के सशक्त उम्मीदवार इसलिए हैं, क्योंकि वो इंदिरा गांधी के पोते, राजीव-सोनिया गांधी के पुत्र हैं. वह भारतीय राजनीति में परिवारवाद को मिली लेजिटिमेसी की वजह से राजनीति में हैं. हालांकि, उन्होंने अब तक ऐसे प्रमाण नहीं दिए हैं, जिससे यह भरोसा हो सके कि वह आगे चल कर सफल प्रधानमंत्री बन सकेंगे.

कांग्रेस पार्टी इतिहास की सबसे शर्मनाक हार के मुहाने पर खड़ी है. महंगाई और भ्रष्टाचार के साथ-साथ एक असफल सरकार और मनमोहन सिंह के बेअसर नेतृत्व का काला धब्बा भी राहुल गांधी को ही धोना है. अन्ना हजारे और बाबा रामदेव ने आंदोलन के ज़रिये देश को जगाने का काम किया है. राहुल गांधी को इनसे भी निपटना होगा. इसके अलावा नरेंद्र मोदी भी एक अतिरिक्त चुनौती हैं. जनता स़िर्फ त्रस्त ही नहीं है, कांग्रेस से नाराज़ भी है.

कुछ दिन पहले इकोनॉमिस्ट नाम की एक मशहूर पत्रिका ने लिखा कि राहुल गांधी अभी लीड करने को तैयार नहीं हैं. इस पत्रिका ने राहुल गांधी की राजनीतिक समझदारी पर ही सवाल खड़े कर उनकी क़ाबिलियत को ही कठघरे में खड़ा कर दिया. सवाल यह नहीं है कि राहुल गांधी के दिमाग़ में क्या है और वह क्या हैं. वैसे भी हिंदुस्तान के लोगों को यह जानने और समझने के लिए इकोनॉमिस्ट की ज़रूरत नहीं है. कांग्रेस ने सबसे पहले राहुल गांधी को एक युवा नेता के रूप में पेश किया. पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान एक ऐसा माहौल भी बना था, लेकिन उस मुहिम का फ़ायदा न तो बिहार में मिला और न ही उत्तर प्रदेश के विधानसभा में. जो लोग राहुल से जुड़े, वो कुछ समय के लिए, लेकिन चुनाव आते-आते वे या तो कांग्रेस के विरोध में खड़े हो गए या फिर दूसरे दलों में चले गए. राहुल गांधी जब राजनीति की सबसे महत्वपूर्ण लड़ाई लड़ने जा रहे हैं, तब देश का युवा राहुल गांधी के साथ नहीं है. इसकी वजह यह है कि उनके भाषणों से युवाओं में भविष्य के लिए आशा नहीं जगती.

वैसे भी 43 साल का कोई बच्चा नहीं होता और हम उसे युवा भी नहीं कह सकते. गौतम बुद्ध, जीसस क्राइस्ट या फिर विवेकानंद हों, इन लोगों ने 30 साल की उम्र में ही अपना लोहा मनवाया, लेकिन 43 साल के राहुल को युवा नेता बताने वाले को इसका जवाब देना पड़ेगा कि उन्होंने ऐसा कौन सा कारनामा किया है, जिससे हिंदुस्तान में रहने वाले लोगों का सिर गर्व से ऊपर उठ जाए. पार्लियामेंट के अंदर या बाहर उनका एक भाषण या करनामा ऐसा बताएं, जिसे बार-बार सुनने की इच्छा हो. ऐसा भाषण, जिसे सुनकर युवाओं में ऊर्जा भर जाए और जोश से ओत-प्रोत हो जाएं. अगर यह नहीं बता सकते तो यह तो ज़रूर बताना चाहिए कि 43 साल के जीवन में उन्होंने क्या कोई वैचारिक, सैद्धांतिक या अपनी दूरदर्शिता का कोई परिचय दिया है क्या? क्या राहुल गांधी अपनी कोई ऐसी उपलब्धि बता सकते हैं, जिसका समाज या राजनीति पर असर हुआ हो. राहुल गांधी ने यह सब न तो दिखाया है, न उसकी कोई झलक दिख रही है.

हाल में दागी सांसदों व विधायकों के सवाल पर राहुल गांधी ने जिस तरह से प्रधानमंत्री व पूरी कैबिनेट को कठघरे में खड़ा कर दिया, एक संयमी राजनेता से वैसी अपेक्षा नहीं की जा सकती. राहुल गांधी ने अगर यह काम किसी की सलाह पर की, तो वह सलाह ग़लत थी और अगर ख़ुद ही किया तो इसे उनका अहंकार ही कहा जा सकता है. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के ख़िलाफ़ अध्यादेश लागू करना एक संवैधानिक विवाद खड़ा कर सकता है. संविधान के मुताबिक, अध्यादेश को लागू तभी किया जा सकता है, जब संसद सत्र में न हो और दूसरा जब ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो जाए, जिस पर तुरंत कार्रवाई करना आवश्यक हो. अब ऐसी कौन सी परिस्थिति थी कि अध्यादेश लागू करना आवश्यक हो गया और वो भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले के ख़िलाफ़. राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने इन सवालों को लेकर देश के तीन कानूनविदों से बातचीत की. विपक्ष ने भी इस अध्यादेश पर सवाल उठाए, जिससे यह लगा कि राष्ट्रपति इस अध्यादेश पर मुहर नहीं लगाएंगे, लेकिन राहुल गांधी ने जिस तरह से इसे नॉनसेंस कह कर कैबिनेट के फैसले को ग़लत बताकर क्रेडिट लेने की कोशिश की, वह एक गैर राजनीतिक व अपरिपक्व फैसला था.

राहुल गांधी कि अपरिपक्वता व लचर नेतृत्व का जीता-जागता उदाहरण यूपी व बिहार के विधानसभा चुनाव परिणाम हैं. कांग्रेस न स़िर्फ चुनाव हारी, बल्कि पार्टी की साख़ चली गई. बिहार और उत्तर प्रदेश कोई छोटे प्रदेश नहीं हैं. ये दोनों राज्य देश की राजनीति की दिशा-दशा तय करते हैं. यूपी और बिहार चुनाव की कमान सीधे-सीधे राहुल गांधी के हाथ में थी, लेकिन चुनाव आते-आते वे लोग कांग्रेस के विरोधी बन गए, जिन्हें राहुल गांधी ने ज़मीनी नेता व कार्यकर्ता के रूप में तैयार किया था. चुनाव के वक्त सार्वजनिक रूप से यही लोग राहुल गांधी के ख़िलाफ़ आग उगल रहे थे. जिन लोगों को राहुल ने तैयार किया, उसमें से कई लोगों ने कांगे्रस के ख़िलाफ़ चुनाव भी ल़डा और कैंपेन भी किया. इसमें सबसे बड़ी ग़लती राहुल गांधी की ही थी. उन्होंने बीएसपी से निकाले गए, समाजवादी पार्टी से निकाले गए इधर-उधर के नेता को पार्टी में शामिल किया. उन्हें पार्टी की सारी शक्तियां दे दी. चाहे वह टिकट बांटने की हो, कैंपेन से जु़डी हो, पैसे से जु़डी हो, चाहे वह संगठन से जु़डी हो, राहुल ने ये सारे काम बाहर से आए लोगों के हाथ दे दी. ये लोग अपने हिसाब से टिकट बांटने लग गए. कांग्रेस के कार्यकर्ता यह पूछने लग गए कि ये रशीद मसूद कौन हैं, पीएल पुनिया कौन हैं, बेनी बाबू कहां से आ गए और राहुल ने उन्हें सर्वेसर्वा क्यों बना दिया. पुराने कांग्रेसी पानी पी-पीकर कांगे्रस पार्टी को कोसने लगे. उत्तर प्रदेश में सारे नेता-कार्यकर्ता दिग्विजय सिंह और परवेज हाशमी के साथ चार साल तक काम करते रहे, लेकिन जब चुनाव का वक्त आया, तब राहुल ने इन दोनों को नज़रअंदाज़ कर दिया. लोकसभा चुनाव फिर से नज़दीक हैं. उत्तर प्रदेश और बिहार अत्यंत ही महत्वपूर्ण राज्य हैं, लेकिन इन राज्यों के लिए कोई योजना नहीं है और न ही कोई तैयारी नज़र आ रही है. जो लोग उत्तर प्रदेश की राजनीति के मास्टर हैं, उन्हें फिर से नज़रअंदाज़ किया जा रहा है. ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि राहुल अपने कुछ सलाहकारों की राय पर काम करते हैं और उन्हें लगता है कि उनके हमउम्र सलाहकारों की समझ कांग्रेस के परिपक्व नेताओं से ज़्यादा है.

दरअसल, राहुल गांधी को मीडिया मैनेजमेंट के ज़रिये लीडर बनाया जा रहा है. इसे समझना ज़रूरी है. राहुल गांधी को पहले यूथ का नेता घोषित करने का प्रयास किया गया. यह ख़बर फैलाई गई कि राहुल गांधी कांगेस पार्टी को डेमोक्रेटाइज करेंगे. एक प्लानिंग हुई. तैयारी हुई कि उन्हें देश का सबसे बड़ा यूथ लीडर बनाना है. इसके लिए कांग्रेस पार्टी की पूरी कार्यप्रणाली ही बदल दी गई. उनके लिए अलग ऑफिस सेक्रेट्रिएट और अलग स्टाफ सहित सारी व्यवस्था अलग की गई. कांग्रेस पार्टी का इससे कोई लेना-देना नहीं है कि राहुल गांधी क्या बोलेंगे, कहां जाएंगे और वहां कौन-कौन सी मीडिया होगी और मीडिया को क्या बोलना है, क्या दिखाना है और क्या नहीं दिखाना है. ये सब तय करने वाले लोग हैं, जिन्हें राहुल गांधी की इमेज को प्रोजक्ट करना है. उन्होंने समझा दिया कि जो भाषण होना चाहिए, वह दीवार फिल्म के अमिताभ बच्चन की तरह होना चाहिए. यू शुड लुक लाइक ऐंग्री यंग मैन. इसलिए वो कागज फा़डना, उनके तेवर दिखाने का अंदाज, यह सब उन्हें बताया गया. एजेंसी हायर की गई थी कि कैसे इमेज बनानी है. सबसे मज़ेदार बात तो यह थी कि भाषण लंबे-चौड़े दिए जा रहे हैं. ऐंग्री यंग मैन की इमेज बनाई जा रही थी, लेकिन हक़ीकत यह थी कि राहुल की यूपी यात्रा के दौरान महज़ 1000-3000 लोग ही होते थे. मीडिया न्यूज चैनल्स को जो फीड दिया जा रहा है, उसमें स़िर्फ क्लोजअप दिखाने को कहा गया था. स्टेज दिखाओ, पब्लिक मत

दिखाओ, ऐसा आदेश था, लेकिन विडंबना देखिए, कांग्रेस पार्टी ने चार साल जो मेहनत की, पूरा संगठन तैयार किया, उसके ऊपर ही आपने एसिड डालने का काम किया. राहुल गांधी, दिग्विजय सिंह जब आजमगढ गए, तो काला झंडा कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने दिखाया. झांसी में राहुल के ऊपर जूता फेंका गया. जूता फेंकने वाला कांगे्रस का कार्यकर्ता था. यही ग़लती बिहार में की थी. अब फिर से यही ग़लती दुहराई जा रही है. अब राहुल गांधी के ऐसे कौन महान सहालकार हैं, जो नवरात्र के दौरान उत्तर प्रदेश में उनकी रैली रखते हैं. 9 अक्टूबर को उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ और रामपुर में राहुल गांधी की रैलियां हुईं. अलीगढ़ का नुमाइश मैदान काफ़ी बड़ा है, जो राहुल गांधी के भाषण के दौरान ज़्यादातर ख़ाली रहा. कुर्सियां भी ख़ाली थीं. करीब 3000 हज़ार लोग वहां पहुंचे थे. रामपुर की रैली का हाल और भी बुरा था. मतलब यह है कि राहुल एक ही गलती बार-बार करते हैं. अपनी ग़लतियों को पहचानना, स्वीकार करना और उसे न दोहराना भी नेतृत्व का एक गुण होता है.

देश की राजनीति करवट ले रही है. राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी के सामने चुनौतियों का पहाड़ खड़ा है. कांग्रेस पार्टी इतिहास की सबसे शर्मनाक हार के मुहाने पर खड़ी है. महंगाई और भ्रष्टाचार के साथ-साथ एक असफल सरकार और मनमोहन सिंह के बेअसर नेतृत्व का काला धब्बा भी राहुल गांधी को ही धोना है. अन्ना हजारे और बाबा रामदेव ने आंदोलन के ज़रिये देश को जगाने का काम किया है. राहुल गांधी को इनसे भी निपटना होगा. इसके अलावा नरेंद्र मोदी भी एक अतिरिक्त चुनौती हैं. जनता स़िर्फ त्रस्त ही नहीं है, कांग्रेस से नाराज़ भी है. वह अपनी समस्याओं का समाधान ढूंढ रही है. ऐसे वक्त में देश की जनता को ऐसे नेतृत्व की तलाश है, जो उन्हें समाधान दे सके. अगर राहुल गांधी यह कहेंगे कि मैं अभी युवा हूं, मैं भारत को देखना चाहता हूं, मैं सीख रहा हूं, मैं रियल इंडिया को जानना चाहता हूं तो यह मान लेना चाहिए कि 2014 में देश की जनता राहुल गांधी को सिरे से ख़ारिज कर देगी.

कांग्रेस की मुश्किलें और भी हैं

हिंदुस्तान में चुनाव में जब भी कांग्रेस विरोध की आंधी चली है, उसके पीछे दो ही वजह रही है. महंगाई और भ्रष्टाचार. पिछले 10 सालों में यूपीए सरकार भ्रष्टाचार और महंगाई के सारे रिकॉर्ड तोड़ चुकी है. भारत के चुनावी राजनीति में नरेंद्र मोदी जैसे विरोधी का सामना करना आसान है, लेकिन राहुल गांधी और कांग्रेस की सबसे बड़ी समस्या सुप्रीम कोर्ट है. सुप्रीम कोर्ट में कोयला घोटला, 2जी घोटाला, यूआईडी सहित कई मामलों की सुनवाई हो रही है. हर घोटाले में सरकार की तरफ से चूक हुई है. एक तरफ कांग्रेस पार्टी फूड सिक्योरिटी बिल, डायरेक्ट कैश ट्रांसफर आदि कई योजनाओं का हवाला देकर चुनाव जीतना चाहती है. कांग्रेस पार्टी को यह लगता है कि लोगों के बैंक में जब पैसा जाएगा और फ्री अनाज मिलेगा तो वे यूपीए सरकार की सारी ख़ामियों और भ्रष्टाचार को भूल जाएंगे. लोग महंगाई को भूल जाएंगे, लेकिन समस्या यह है कि यूपीए सरकार ने इन योजनाओं को यूआईडी यानी आधार कार्ड के ज़रिये लागू किया जाना था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने आधार कार्ड की वैधता पर सवाल खड़ा दिया. देश की जनता चालाक हो चुकी है. कई सालों से धोखे खाती आ रही है. जब तक बैंक अकाउंट में पैसा ट्रांसफर नहीं होगा, जब तक मुफ्त अनाज नहीं मिलेंगे, तब तक लोगों को कांग्रेस के वादों पर भरोसा नहीं होगा. सुप्रीम कोर्ट ने आधार कार्ड पर सवाल खड़ा करके कांग्रेस पार्टी के कैंपेन के आधार को ही ख़त्म कर दिया है. कांग्रेस की दूसरी परेशानी यह है कि घोटाले के जितने भी मामले कोर्ट में चल रहे हैं, उसकी ख़बरें लगातार आ रही हैं. हाल में ही कोयला घोटाले में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को फटकार लगाई थी. घोटाले से जुड़ी फाइलों के ग़ायब होने पर एफआईआर दायर करने तक के आदेश दिए गए थे. इससे कांग्रेस पार्टी की किरकिरी हुई. समस्या यह है कि कोर्ट में चल रही सुनवाई की वजह से घोटाले की ख़बरें आए दिन आती रहेंगी. कांग्रेस पार्टी के नेताओं के घोटाले लोगों के याददाश्त को तरोताज़ा करते रहेंगे. 2जी घोटाले में जेपीसी की रिपोर्ट पर राजनीति शुरू हो गई है. विपक्ष के साथ-साथ अब करुणानिधि की डीएमके भी विरोध में आ चुकी है. इसका मतलब यह है कि 2जी घोटाले पर आने वाले समय में राजनीति होती रहेगी. फैसला क्या होगा, ये तो कोर्ट में निर्धारित होगा, लेकिन इस घोटाले की याद लोगों के ज़ेहन में लगातार बनी रहेगी. साथ ही देश में जो आर्थिक हालात हैं और जिस तरह से सरकार महंगाई पर लगाम लगाने में पूरी तरह विफल रही है, उससे यही लगता है कि अगले चुनाव तक लोगों को महंगाई की मार झेलनी पड़ेगी. मतलब यह कि कांग्रेस पार्टी के लिए चारों तरफ़ से मुसीबत है. कोयला घोटाला को सबसे पहले चौथी दुनिया ने ही उजागर किया था. ख़तरा यह है कि कोयला घोटाले में शक की सूई सीधे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर टिकी है. यह घोटाला उस वक्त हुआ है, जब मनमोहन सिंह कोयला मंत्री थे. इसलिए अगर सुप्रीम कोर्ट से कोई बुरी ख़बर आ गई तो कांग्रेस पार्टी का चुनावी कैंपेन धरा का धरा रह जाएगा.

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