खतरे में भारतीय दूरसंचार क्षेत्र : चीनी घुसपैठ हो चुकी है

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BSNLपूरी दुनिया टेलीकॉम क्षेत्र में भारत द्वारा की गई प्रगति की प्रशंसा कर रही है. भारत में दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा दूरसंचार नेटवर्क है. लेकिन विरोधाभास यह है कि दूरसंचार मंत्रालय भी आज तक के सबसे बड़े घोटाले में शामिल है, जिसे टूजी स्पेक्ट्रम घोटाले का नाम दिया गया. एक लंबे समय तक दूरसंचार मंत्रालय ने बहुत से घनिष्ठ मित्र बनाए, जिन्होंने मनमाने तरीक़े से इस क्षेत्र का दोहन किया. यह टेलीकॉम लॉबी इतनी ताक़तवर है कि सरकार उसके सामने लाचार नज़र आती है. सरकार के इन घनिष्ठ मित्रों ने देश के मोबाइल और इंटरनेट नेटवर्क को इतना कमज़ोर बना दिया है कि चीन एक ही झटके में पूरे नेटवर्क को खराब कर सकता है. इसके कारण बैंक, एयरलांइस और रेलवे पूरी तरह ठप्प पड़ जाएंगे. यह लड़ाई का आधुनिक तरीक़ा है, जिसमें आधारभूत ढांचे को निशाना बनाया जाता है. अगर ऐसा होता है तो इस मोर्चे पर भारत की क़लई खुल जाएगी.

इस खतरे को समझने के लिए हमें यह समझना होगा कि मोबाइल टॉवर और दूरसंचार प्रणाली किस तरह कार्य करते हैं. दूरसंचार प्रणाली में प्रभावी ट्रांसमिशन के लिए सिनक्रोनाइज्ड पल्स की आवश्यकता होती है. सभी आधुनिक डाटा ऑपरेशन प्रोटोकॉल प्रभावी रूप से आधुनिक सुविधाओं के साथ कार्य करते हैं. जब डाटा बिट्‌स क्रमिक रूप (सीरियली) से ट्रांसमिट होता है तो उसी क्षण रिसीवर के लिए यह ज़रूरी होता है कि वह उस क्षण को सही तरीक़े से डिटेक्ट करे, जब हर कैरेक्टर में बिट की शुरुआत और अंत हो. जब सिनक्रोनस ट्रांसमिशन का उपयोग होता है, तब रिसावर और ट्रांसमीटर के बीच कॉमन बिट टाइमिंग का उपयोग होता है. इसका मतलब यह कि किसी भी कम्युनिकेशन के लिए यह ज़रूरी है कि बारीकी से हर पल्स की शुरुआत और अंत की पहचान (डिटेक्ट) कर सके. आधुनिक एनालॉग सिस्टम में मॉडम इनकमिंग डाटा स्ट्रीम में से टाइमिंग पल्स को रिकवर कर लेती है और उसे क्लॉक पल्स की कन्टीन्युअस स्ट्रीम के रूप में रिसीवर का काम कर रही डीटीई (डाटा टर्मिनल इक्युपमेंट) डिवाइस को भेज देती है. रिसीव क्लॉक डाटा स्ट्रीम में से सही सैंपलिंग को सुनिश्चित करता है, लेकिन रिसीवर यह नहीं बताता है कि कौन से कैरेक्टर में कितना और कौन सा बिट शामिल है. ट्रांसमीटर कैरेक्टरों को एक समूह में भेजता है जिसे ब्लॉक या फ्रेम कहते हैं. स्पेशल सिनक्रोनाइजेशन कैरेक्टर हर ब्लॉक की शुरुआत में ट्रांसमिट होते हैं. रिसीवर इन कैरेक्टरों की राह देखता है और जब एक बार वह डिटेक्ट हो जाता है तो वह यह जान जाता है कि कहां सभी कैरेक्टर की शुरुआत और अंत हो रहा है. इसके लिए मोबाइल टॉवर जीपीएस (ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम) का इस्तेमाल करता है. जीपीएस सिस्टम का उपयोग नेटवर्क टाइम प्रोटोकॉल सर्वर्स (एनटीपी) और कंप्यूटर नेटवर्क टाइम सिनक्रोनाइजेशन के लिए सही समय और फ्रिक्वेंसी रिफरेंस उपलब्ध कराना होता है. संक्षिप्त में कहें तो जीपीएस सिस्टम सिनक्रोनाइजेशन नेटवर्क टाइम प्रोटोकॉल सर्वर्स (एनटीपी) और कंप्यूटर टाइम सर्वर्स के लिए आदर्श माना जाता है. इससे कई हज़ार नैनो सेकेंड की एकुरेसी भी आसानी से कम क़ीमत के जीपीएस रिसीविंग इक्युपमेंट से प्राप्त की जा सकती है. सरल शब्दों में कहें तो दूरसंचार में तीन चीज़ों की आवश्यकता होती है. टाइमिंग पल्स, टाइमिंग क्लॉक और पल्स को सिनक्रोनाइज करने के लिए सिनक्रो क्लॉक की आवश्यकता होती है. यह सब करने के लिए एक जीपीएस सिस्टम की आवश्यकता होती है.

एक प्रलयकारी खतरा भारत पर मंडरा रहा है. भारत की अदूरदर्शी विदेश नीति और सस्ती तकनीक खरीदने की चाहत ने देश के महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे और सूचना तंत्र को नष्ट करने के साथ-साथ निर्णय करने वाली संस्थाओं को पंगु बना दिया है, जबकि चीन की क्षमता को ब़ढाने का काम किया है. हाल में प्रकाशित एक लेख में पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के एक प्रतिनिधि ने उच्च स्तर पर देश की साइबर आक्रमण क्षमता के विकास की वकालत की है. यह चीनी खतरा वास्तविक है. यदि चीनी सैनिकों की घुसपैठ और ब्रह्मपुत्र नदी पर चुपके से बांध बनाए जाने की खबरें चिंताजनक नहीं हैं, तो यह खबर आपके पैरों के नीचे की ज़मीन खिसका देगी.

जीपीएस सिस्टम उपग्रह के साथ सही समय और स्थान के लिए समन्वय से कार्य करता है. यह बात ध्यान देने योग्य है कि एक बार जब पल्स सिनक्रोनाइज्ड हो जाती है तो यह 48 घंटे तक बिना जीपीएस के कार्य कर सकता है. यह सब प्रत्येक बेस ट्रांसमिशन स्टेशन (बीटीएस) पर स्थापित किया जाता है. देश में स्थापित अधिकांश बीटीएस में चीनी कंपनियों हुआवेई और जेडटीई के हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल हुआ है. सबसे बड़ा खतरा यह है कि सभी चीनी बीटीएस को जीपीएस सिग्नल के लिए चीनी उपग्रहों पर स्थानांतरित कर दिया गया है. यह खतरनाक है, क्योंकि मोबाइल बीटीएस के जीपीएस मॉडयूल में बदलाव करने से पूरा का पूरा कम्युनिकेशन सिस्टम ढह सकता है. किसी आपात स्थिति में जीपीएस पल्स को ब्लॉक किया जा सकता है. यहां तक कि इसके रास्ते में बदलाव करके इसकी टाइमिंग बदली जा सकती है. हमें यह समझना होगा कि यह क्यों पूरा सर्वनाश कर देगा. देश का साठ प्रतिशत सीडीएमए और जीएसएम मोबाइल कम्युनिकेशन चीनी वेंडर्स चलाते हैं. इसलिए 60 प्रतिशत मोबाइल नेटवर्क पर सीधा खतरा है. यदि एक बार यह धराशायी हो गया तो यह बाक़ी 40 प्रतिशत पर इसका बोझ पड़ेगा. इस वजह से सारा मोबाइल कम्युनिकेशन नेटवर्क ठप्प पड़ जाएगा. इसका सबसे खराब हिस्सा यह है कि सरकार के पास इससे उबरने के लिए कोई वैकल्पिक रास्ता नहीं है. इसका मतलब यदि हमारे जीपीएस नेटवर्क में थोड़ी सी भी खराबी आती है तो सारा कम्युनिकेशन नेटवर्क अपने आप ही बैठ जाएगा. इस सिस्टम को रिमोट से नियंत्रित किया जा सकता है जो इसे और घातक बनाता है. मंत्रालय के कई अधिकारियों का मानना है कि केवल सस्ती तकनीक के लिए हमने राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरे में डाल दिया है. चीनी उपकरणों पर ज़रूरत से ज़्यादा निर्भरता एक बड़ी आपदा को न्यौता दे रही है. रणनीति विशेषज्ञ इस बात को लेकर चिंतित हैं कि दूरसंचार क्षेत्र में हो रहा यह चीनी अतिक्रमण चीनी सेना की सोची-समझी रणनीति है. चीन के साथ हुए समझौते में सबसे ज़्यादा आश्चर्यजनक बात यह है कि इसमें तकनीकी स्थानांतरण का कोई प्रावधान नहीं है. भारतीय इंजीनियरों को उनके उत्पादन और कार्यप्रणाली की जानकारी नहीं है. उनके पास स्थापना के पहले राउटर और स्विच जैसे दूरसंचार उपकरणों की सुरक्षा संबंधी जांच करने के बहुत कम या न के बराबर संसाधन उपलब्ध हैं. इंटेलीजेंस ब्यूरो के कई बार आपत्ति ज़ाहिर करने के बावजूद चीनी संस्थाएं बीएसएनएल को दूरसंचार उपकरणों की आपूर्ति कर रही हैं. यह गुप्त तरीक़े से ज़रूरी वार्ताओं को चोरी छिपे सुनने और इसे नज़रअंदाज करने के कारण दूरसंचार सुरक्षा के लिए एक बड़ा खतरा है. यह बात आईबी ने दूरसंचार विभाग से कही थी.

रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) द्वारा कई बार चेतावनी दिए जाने के बावजूद भारत सरकार आग से खेल रही है. रॉ ने दूरसंचार मंत्रालय को लिखे अपने एक नोट में चेतावनी दी थी कि चीनी दूरसंचार उपकरण बनाने वाली हुआवेई कंपनी के चीनी सेना और चीन के सुरक्षा मंत्रालय से अंदरूनी संबंध हैं. सरकार इस तरह की चेतावनी को कैसे नज़रअंदाज़ कर सकती है? खबर यह भी है कि हुआवेई टेक्नोलॉजी और जेडटीई ने रिलायंस कम्युनिकेशन की चीन के सरकारी बैंक से 2820 करोड़ रुपये का क़र्ज़ दिलवाने में मदद की थी, क्योंकि रिलायंस कम्युनिकेशन उनसे उतनी ही क़ीमत के दूरसंचार उपकरण खरीद रही थी. क्या इस तरह की घटना के बाद उन्हें मुक्त रूप से देश में कार्य करने दिया जा सकता है? यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि 2010 में उत्तरी और पूर्वी दूरसंचार जोनों में हुआवेई और जेडटीई को दिए गए सभी जीएसएम के कांट्रेक्ट सुरक्षा कारणों से रद्द कर दिए गए थे. सामान्य तरीक़े से कोई भी यह प़ढ सकता है कि उस दौर में क्या हुआ था. अचानक सरकार का रु़ख क्यों बदल गया. क्या इसका मतलब यह है कि अनिल अंबानी ने चीनी सरकार, चीनी बैंकिग संस्थानों के साथ-साथ उन चीनी कंपनियों के साथ समझौता कर लिया है जिनके  चीनी सेना के साथ संबंध हैं. क्या यह वही उपकरण हैं जो रिलायंस कम्युनिकेशन ने हुआवेई से खरीदे हैं. ये खतरनाक हैं, क्योंकि उस कंपनी के चीनी सेना और सुरक्षा एजेंसिंयों से संबंध हैं. यदि यह क़िस्सा है तो इसका मतलब सरकार ने पूरे दूरसंचार क्षेत्र को उजा़ड दिया है. भारती, आइडिया, टाटा सहित अन्य भारतीय दूरसंचार कंपनियां अपने लिए मुख्य उपकरण चीन से मंगाती हैं. अब जो परिस्थितियां निर्मित हो गई हैं, उसमें सुधार के लिए तत्काल क़दम उठाने की आवश्यकता है. दूरसंचार क्षेत्र के चीनी कंपनियों के साथ हुए सभी समझौतों पर क़रीबी नज़र रखनी होगी और जो कंपनियां देश की सुरक्षा में सेंध लगाती पाई जाएं, उन्हें तत्काल ब्लैक लिस्ट कर देना चाहिए. यह सभी जानते हैं कि हुआवेई के चीनी सेना से क़रीबी संबंध हैं. ब्रिटेन, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया ने हाल में जानी मानी चीनी कंपनियों पर रोक लगाई है. ऑस्ट्रेलिया में सुरक्षा एजेंलियों की सलाह पर हुआवेई के दूरसंचार क्षेत्र में कार्य करने पर रोक लगा दी गई है. ब्रिटेन में सुरक्षा एजेंसियों ने भी कहा है कि वे हुआवेई द्वारा साइबर जासूसी किए जाने से चिंतित हैं. इसी तरह एक अमेरिकी इंटेलिजेंस रिपोर्ट में हुआवेई की चीनी सुरक्षा एजेंसी से संबंधों की बात स्पष्ट रूप में कही गई है. ब्रिटेन की सरकार ने अत्यधिक खर्चीला होने के बावजूद हुआवेई देश से संबंधित सुरक्षा जानकारियां न चुरा सके, इसके लिए एक ऑडिटिंग स्ट्रक्चर की स्थापना कर दी है और हुआवेई के ब्रॉडबैंड प्रोजेक्ट में आने पर रोक लगा दी है. मई 2010 में टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित एक रिपोर्ट में कहा गया था कि भारतीय गुप्तचर ऐजेंसियों को चीन की हुआवेई कंपनी पर शक है, क्योंकि उनके बंगलुरु स्थित आर एंड डी बिल्डिंग में आने जाने की भारतीय कर्मचारियों को अनुमति नहीं है. अ़खबार के अनुसार, गुप्तचर एजेंसियों ने भी इस बात पर ग़ौर किया कि चीनी कंपनी हुआवेई के कर्मचारियों ने कई बार बंगलुरु में अपना कार्यकाल कई महीनों के लिए बढ़ा लिया था. 2009 में फरवरी में बीएसएनएल ने 2500 करोड़ रुपये की लागत के 90 लाख लाइन के ऑर्डर चीनी कंपनी को पीएसयू कंपनी एलाटमेंट कोटे के तहत सरकारी कंपनी आईटीआई लिमिटेड के ज़रिए दिए. इस ऑर्डर के तहत चीनी कंपनी पूरी तरह बने हुए उपकरणों को आईटीआई के नाम पर देश में आयात कर रही थी. यह एक के बाद एक शर्तों पर काम कर रही थी, जिसका मतलब बीएसएनएल आईटीआई को भुगतान करेगी और आईटीआई चीनी कंपनी को भुगतान करेगी. दक्षिणी जोन के लिए यह ऑर्डर जिसमें कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल और आंध्रप्रदेश जैसे राज्य आते हैं, जिनमें देश के प्रमुख आईटी क्षेत्र, परमाणु क्षेत्र, हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल), इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गेनाइजेशन (इसरो) जैसे संवेदनशील ठिकाने हैं. दक्षिणी जोन के मध्य में इन कंपनियों को कार्य करने की अनुमति देकर देश की सुरक्षा के साथ समझौता किया गया है. इससे सुरक्षा एजेंसियों की चिंता बढ़ गई है.

9 अप्रैल को बीएसएनएल द्वारा चीनी कंपनियों को ठेके दिए जाने के विरोध में एक वरिष्ठ आई बी के अधिकारी ने कहा कि वर्तमान सुरक्षा परिस्थितियों के आधार पर समुद्री सीमा से जुड़ा दक्षिण जोन भी संवेदनशील हो गया है. दोनों देशों के बीच सीमा विवाद के कारण बने वातावरण की वजह से दक्षिणी जोन ज़्यादा संवेदनशील हो गया है. इस बैठक के दौरान आईबी अधिकारी ने कहा कि बीएसएनएल को चीनी कंपनी को यह ठेका नहीं देना चाहिए. इन कंपनियों के चीन की सरकार और चीनी गुप्तचर एजेंसियों से संबंध हैं. इसलिए इस क्षेत्र में उनकी उपस्थिति से देश की सुरक्षा को कई तरीक़े से खतरा है. रक्षा मंत्रालय और रॉ के प्रतिनिधियों की बैठक में रक्षा मंत्रालय के प्रतिनिधि ने कहा कि चीनी कंपनियों के चीनी सेना और सुरक्षा एजेंसियों से संबंध हैं. इसी तरह दूसरी चीनी कंपनियों का ट्रैक रिकॉर्ड भी अच्छा नहीं है. इसलिए किसी भी परिस्थिति में इन दोनों कंपनियों को देश के किसी भी भाग में आने और कार्य करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए. 27 अप्रैल को आईबी, रक्षा मंत्रालय और रॉ के पक्ष को दरकिनार करते हुए बीएसएनएल ने दूरसंचार विभाग को एक पत्र लिखा, जिसमें चीनी कंपनी ने दक्षिण पश्चिम और पूर्व में और एक यूरोपीय कंपनी के उत्तर और पूर्वी जोन में तकनीकी परीक्षण पास किए जाने की बात की गई थी. 14 मई को दूरसंचार मंत्रालय ने बीएसएनएल के प्रस्ताव को म़ंजूर करते हुए उसे दोनों कंपनियों के फाइनेंशियल बिड्‌स को खोले जाने की अनुमति दे दी. 14 मई की शाम को ऑफिस के समय के बीत जाने के बाद बीएसएनएल ने यूरोपियन कंपनी की पूर्वी और उत्तरी जोन की बिड और चीनी कंपनी की दक्षिणी जोन की बिड को खोला. बीएसएनएल ने दुनिया की जानी मानी दूरसंचार कंपनियों की बिड को कुछ काग़ज़ात जमा न कराए जाने के कारण रिजेक्ट कर दिया. इस तरह बड़ी कंपनियां दौड़ से बाहर हो गईं. 15 मई, 2009 को चुनाव की वोटों की गिनती के ठीक एक दिन पहले दूरसंचार मंत्रालय ने 9.3 करोड़ मोबाइल फोन कनेक्शन के लिए 35000 करोड़ रुपये का ठेका इन कंपनियों को दे दिया. दूरसंचार विशेषज्ञों के मुताबिक़, यह सभी टर्नकी कॉन्ट्रेक्ट थे. इसका मतलब चीनी कंपनियों को रेडियो प्लानिंग के लिए पूरे दक्षिणी जोन का डिजिटलाइज्ड नक्शा उपलब्ध कराया गया. इसका मतलब उन कंपनियों के अधिकारी डिजिटलाइज्ड नक्शों के साथ बिना किसी रोकटोक के कहीं भी जा सकते थे और साइट सर्वे के दौरान फोटो खींच सकते थे.

ज़ाहिर है, ये सारे तथ्य अंततः चीनी सुरक्षा एजेंसियों के हाथ लग सकते हैं. आप चीन द्वारा साइबर हमला किए जाने की कल्पना कीजिए. यदि ऐसा होता है तो यह हमला भारत के कंप्यूटर, इंटरनेट और सूचना तंत्र को पंगु बना देगा. हाल में ऑस्टेलिया की मीडिया ने आरोप लगाया कि एक चीनी उपकरण निर्माता (जिसे भारत में भी कई ऑर्डर मिले हैं.) के खिला़फ जासूसी करने के आरोपों की जांच की गई है. ब्रिटेन के अ़खबार संडे टाइम्स में छपी एक खबर के अनुसार, पेंटागन इस चीनी कंपनी को चीन से हो सकने वाले साइबर हमले का प्रमुख हिस्सा मानता है. इसके चीनी सेना के साथ बहुत घनिष्ठ संबंध हैं. कई लोग जो इस बात को गहराई से समझ नहीं पाते हैं कि इस रणनीति से युद्ध के समय की जाने वाली सैनिक कार्यवाही से निजात मिल सकती है. इसके अलावा एक नया आर्थिक युद्ध हमारे दरवाज़े पर दस्तक दे रहा है कि भारत की लंबे समय से उत्पादों के मामले में दूसरों पर निर्भरता देसी उत्पादों को खत्म कर रही है. इस वजह से भारत चीनी सामान के ढेर में बदलता जा रहा है. इस तरह धीरे-धीरे भारत सैन्य स्तर पर भी भेद्य हो जाएगा. चीन की पिछले दशक की गो ग्लोबल नीति की वजह से ही वह देश के मुहाने पर (अरुणाचल प्रदेश और लद्दा़ख) लगातार दस्तक दे रहा है. यह उसकी सैन्य शक्ति का विस्तार है.

अंतरराष्ट्रीय और वैश्विक ताक़तों द्वारा लगातार नज़र रखे जाने की वजह से चीन को यह मालूम पड़ गया है कि उसके लिए इस नए तरीक़े में अपार संभावनाएं हैं बजाय अरुणाचल और लद्दा़ख पर नज़र गड़ाने के. उसने डंपिग के सुरक्षित ठिकानों की बदौलत न केवल बेमिसाल आर्थिक प्रगति की है, बल्कि उसके साथ ही उन जगहों पर महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे में निवेश पर भी नज़रें गड़ाए रखीं और एशिया और दक्षिण अफ्रीका में अपना प्रभुत्व बनाने की कोशिश की. भारत के संदर्भ में यदि कहें तो दूरसंचार क्षेत्र में कार्य कर रहीं कई निजी कंपनियां चीनी उपकरणों का उपयोग कर रही हैं. इससे न केवल चीनी आक्रामकता दिखाई देती है, बल्कि अब तो इस काम में सरकारी मशीनरी, कुछ राजनेता और दूरसंचार विभाग के नौकरशाह भी चीन के इस मक़सद को पूरा करते दिख रहे हैं, मानो यही लोग भारत के नए राजा हों.

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