आम आदमी पार्टी को अन्ना का समर्थन नहीं है

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दिल्ली चुनाव आम आदमी पार्टी के लिए जीने-मरने का सवाल है. इसलिए यह पार्टी साम, दाम, दंड, भेद- इन चारों हथियारों का बड़ी होशियारी से इस्तेमाल कर रही है. कहने को तो इस पार्टी के नेता पारदर्शिता के पक्षधर हैं, लेकिन उनके बयान वैचारिक रूप से अशुद्ध व भ्रामक प्रतीत होते हैं. दिल्ली चुनाव में व्यवस्था परिवर्तन का क्या मतलब है? दिल्ली सरकार देश की अकेली राज्य सरकार है जिसके पास न तो पुलिस है, न ही जनता की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी. यह ऐसी दंतहीन-विषहीन सरकार है जो दिल्ली में मौजूद उच्च अधिकारियों का ट्रांसफर भी नहीं कर सकती. जब अधिकार ही नहीं है, तो फिर परिवर्तन कैसे होगा. आम आदमी पार्टी जिन वादों पर चुनाव जीतना चाहती है वह तर्कसंगत नहीं हैं. इन वादों को लागू करना बड़े-बड़े राज्यों के भी बस में नहीं है क्योंकि भारत का संघीय ढांचा इसकी इजाज़त नहीं देता. देश में कोई भी मौलिक राजनीतिक परिवर्तन लोकसभा के जरिए ही संभव है. दिल्ली चुनाव के जरिए व्यवस्था परिवर्तन की डीगें हांककर आम आदमी पार्टी दिल्ली के वोटरों को मूर्ख बना रही है. साथ ही अन्ना हजारे को न केवल धोखा दे रही है, बल्कि उनके उद्देश्यों को पलीता लगा रही है, क्योंकि अन्ना हजारे देश में व्यवस्था परिवर्तन की शुरुआत का बिंदु लोकसभा को मानते हैं. अरविंद केजरीवाल विधानसभा का चुनाव लड़ अन्ना हजारे के सपने को ध्वस्त करना चाह रहे हैं और यही वह काम है जिसे भाजपा और कांग्रेस भी करना चाह रही है.

kejriwal ko anna-ka-smarthan-nahiदिल्ली विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी की सबसे बड़ी परेशानी अन्ना हजारे बने हुए हैं. यह पार्टी अन्ना हजारे के आंदोलन से अलग होकर बनी है. इस पार्टी का आधार अन्ना हजारे की विश्‍वसनीयता, नैतिकता, लोकप्रियता, त्याग व सर्वमान्यता है. लेकिन अन्ना हजारे का साफ़-साफ़ आदेश यह है कि आम आदमी पार्टी उनके नाम, उनकी फोटो, उनकी टोपी व उनके किसी भी चीज़ का इस्तेमाल नहीं कर सकती है. अन्ना के बिना पार्टी की विश्‍वसनीयता पर सवाल उठता है और अन्ना का नाम लेने से अन्ना नाराज़ हो जाते हैं. लेकिन हक़ीक़त यह है कि आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार अन्ना का नाम धड़ल्ले से इस्तेमाल कर रहे हैं. आज भी सोशल मीडिया के कई ऐसे एकाउंट हैं, जिसमें आम आदमी पार्टी को अन्ना की पार्टी बताया जाता है. दिल्ली में कई जगहों पर ऐसे पर्चे बांटे जा रहे हैं, जिसमें यह बताया जा रहा है कि आम आदमी पार्टी अन्ना जी की पार्टी है. वैसे इस मुद्दे पर आम आदमी पार्टी के नेता साफ़-साफ़ जवाब भी नहीं देते. अन्ना क्यों अलग हुए या आम आदमी पार्टी के साथ अन्ना क्यों नहीं हैं, ऐसे सवालों के जवाब में अरविंद केजरीवाल यही कहते हैं कि अन्ना और आम आदमी पार्टी का मक़सद एक है, लेकिन रास्ते अलग हैं. यह बयान ग़लत क्यों है यह आगे बताएंगे, लेकिन अन्ना हजारे को अपने साथ बताने पर चुनाव आयोग ने आपत्ति जता दी, साथ ही एक नोटिस भेज कर आयोग ने आम आदमी पार्टी से इसका सबूत मांगा कि अन्ना हजारे उनके साथ हैं. आयोग का कहना यह है कि यह साबित करने के लिए पार्टी को अन्ना हजारे का मंज़ूरी पत्र जमा करना होगा. इस मुद्दे को लेकर प्रशांत भूषण ने दिल्ली के मुख्य निर्वाचन अधिकारी (सीईओ) से मुलाक़ात भी की, लेकिन अन्ना का म़ंजूरी पत्र नहीं दे सके.

आप दिल्ली की  प्रजाराज्यम है?
आंध्र प्रदेश में 2009 में विधानसभा के चुनाव हुए. यहां दो पार्टियों के बीच सत्ता की लड़ाई होती आई है-कांग्रेस और तेलुगू देशम पार्टी यानी टीडीपी. इस राज्य में 2008 में एक प्रजाराज्यम पार्टी बनी. इसके नेता फिल्म स्टार चिरंजीवी थे. उनकी पहली ही रैली में 10 लाख लोग आ गए. एक साल तक यह पार्टी आंध्र प्रदेश में धुआंधार रैलियां करती रही. रैलियां बड़ी होती थीं. राजनीतिक दलों के हाथ-पांव फूलने लगे. ऐसा लगने लगा था कि सचमुच प्रजाराज्यम की सरकार बनने वाली है. पार्टी ने सभी सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए. तेलुगू देशम पार्टी और कांग्रेस पार्टी को भ्रष्ट बताकर चिरंजीवी ने सरकार बनाने का दावा किया. जब नतीजे आए तो इस पार्टी को 294 में से मात्र 18 सीटें मिलीं. कांग्रेस फिर से चुनाव जीत गई. कुछ समय बाद चिरंजीवी की पार्टी प्रजाराज्यम का कांग्रेस में विलय हो गया. चिरंजीवी आज केंद्र सरकार में मंत्री हैं. सवाल यह है कि क्या आम आदमी पार्टी कहीं दिल्ली की प्रजाराज्यम पार्टी तो नहीं है?

दरअसल, आम आदमी पार्टी प्रचार के दौरान एक लघु फ़िल्म दिखा रही है. इसमें जन लोकपाल को लेकर हुए आंदोलन की तस्वीरें भी शामिल हैं. इसमें अन्ना हजारे अरविंद केजरीवाल के साथ नज़र आ रहे हैं. चुनाव आचार संहिता लागू होने के बाद पार्टी को फ़िल्म दिखाने के लिए चुनाव आयोग की मीडिया सर्टिफिकेशन एंड मॉनिटरिंग कमेटी (एमसीएमसी) से मंज़ूरी लेनी होती है. इसलिए आम आदमी पार्टी ने भी अपनी फ़िल्म की मंज़ूरी के लिए ज़िला चुनाव कार्यालय में आवेदन किया था. जब चुनाव आयोग की कमेटी ने इस लघु फ़िल्म को देखा तो उसका माथा ठनका. जब अन्ना साथ नहीं है तो इस फ़िल्म में अन्ना की तस्वीर क्यों हैं? ख़र्च निगरानी कमेटी के अंकुर गर्ग के मुताबिक, उन्हें किसी का नाम इस्तेमाल करने पर आपत्ति नहीं है. मगर उसके बारे में ग़लत या भ्रामक सूचना देने पर आपत्ति है. चुनाव अधिकारियों ने फ़ौरन आम आदमी पार्टी को तलब किया और इस बिंदु पर आपत्ति जताते हुए जवाब मांगा. आयोग के एक वरिष्ठ अधिकारी के मुताबिक, नोटिस चुनाव आयोग के निर्देश के तहत मांगा गया था. जवाब देने के बाद अगर वह उचित पाया जाता है तो फ़िल्म दिखाने की मंज़ूरी मिल जाएगी. आम आदमी पार्टी के लिए अब समस्या यह है कि अन्ना का म़ंजूरी पत्र कहां से लाया जाए. वो तो साथ हैं नहीं.

इसका जबाव देने आम आदमी पार्टी के नेता व देश के प्रख्यात वकील प्रशांत भूषण ने चुनाव अधिकारियों से मुलाक़ात की. अन्ना का मंज़ूरी पत्र न दे पाने की हालत में उन्होंने चुनाव आयोग के इस फैसले पर ही हमला कर दिया. प्रशांत भूषण ने कहा कि चुनाव आचार संहिता के कुछ निर्देश मौलिक अधिकारों का हनन करते हैं. उन्होंने कहा कि अन्ना के ऐतराज़ जताए बिना आयोग को क्या आपत्ति हो सकती है? यह भी अजीब त़र्क है. अब तक इसी चुनाव आचार संहिता के तहत चुनाव होते आए हैं. तब किसी के मौलिक अधिकार का हनन नहीं हुआ, लेकिन आप को एक ज़रा सी नोटिस गई कि आप के नेता मौलिक अधिकारों का हनन की दुहाई देने लगे. शायद प्रशांत भूषण यह भूल गए कि अन्ना अपने नाम या तस्वीर का इस्तेमाल करने पर अपनी आपत्ति कई बार सार्वजनिक कर चुके हैं. दूसरी बात यह कि प्रशांत भूषण व आम आदमी पार्टी के नेताओं को अन्ना हजारे के आंदोलन व उनकी गतिविधियों के बारे में अब कोई जानकारी नहीं रहती है. अरविंद केजरीवाल चुनावी राजनीति में इतने व्यस्त हैं कि उन्हें शायद इस बात को जानने की भी फुर्सत नहीं है कि अन्ना अपनी देशव्यापी जनतंत्र यात्रा और अपनी सभाओं में आजकल क्या कह रहे हैं. इसलिए वो समझ नहीं पाए कि चुनाव आयोग ने आख़िर ये नोटिस क्यों दिया है.

अन्ना आंदोलन के साथी आप से दूर हुए

आम आदमी पार्टी में अन्ना आंदोलन के कुछ गिने चुने लोग ही रह गए हैं. अन्ना आंदोलन में काफी सक्रिय रहे अन्ना के लोकपाल को जनलोकपाल का नाम देने वाले महेश गिरि कुछ दिन पहले भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए. पूर्वी दिल्ली में आयोजित एक कार्यक्रम में नितिन गडकरी ने उन्हें भाजपा की सदस्यता दिलाई. रामलीला मैदान के आंदोलन की सफलता के पीछे महेश गिरि थे. साथ ही सोशल मीडिया के जरिए अन्ना के आंदोलन को युवाओं में प्रचारित करने वाले शिवेंद्र चौहान भी इस का कार्यक्रम में स्टेज पर मौजूद थे. आज भी अन्ना आंदोलन के फेसबुक और ट्वीटर अकाउंट उनके पास हैं. इन दोनों के अलावा इंडिया अगेंस्ट करप्शन के एक और फाउंडिग मेम्बर पूर्वी दिल्ली के गौरव बक्शी ने भी भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के साथ स्टेज शेयर किया. आम आदमी पार्टी को इस पर विचार करना होगा कि आख़िर पुराने दोस्त उन्हें छोड़कर क्यों जा रहे हैं?

दरअसल, अन्ना पूरे देश में घूम कर राजनीतिक दलों की संवैधानिकता पर सवाल उठा रहे हैं. उनका मानना यह है कि भारत के संविधान में जब राजनीतिक दल शब्द ही नहीं है तो इस देश की राजनीतिक सत्ता पर राजनीतिक दलों का कब्ज़ा कैसे हो गया? अन्ना कहते हैं कि राजनीतिक दलों ने देश की राजनीति को पैसे से सत्ता और सत्ता से पैसा बनाने का ज़रिया बना लिया है. उन्होंने आम आदमी पार्टी के लिए कोई रियायत नहीं दी है. साथ ही, जब सुप्रीम कोर्ट ने राइट टू रिजेक्ट पर ़फैसला सुनाया और चुनाव आयोग से नापसंदी का बटन ईवीएम में डालने को कहा तो अन्ना ने यह फैसला किया कि वो राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनावों के दौरान लोगों को जागरूक करने व नापसंदी पर वोट डालने की अपील करेंगे. इसके लिए उन्होंने चुनाव आयोग को एक पत्र भी लिखा. इस पत्र में उन्होंने लिखा कि उनका यह अभियान सभी राजनीतिक दलों के ख़िला़फ होगा. चुनाव आयोग ने चिट्ठी मिलने पर अन्ना को 25 अक्टूबर को मिलने का वक्त भी दिया. इस बीच आम आदमी पार्टी की  लघु फ़िल्म में अन्ना की तस्वीर दिखी तो आयोग ने आपत्ति जता दी.

 

समझना यह है कि अन्ना का आंदोलन अब स़िर्फ जनलोकपाल के लिए नहीं है. अन्ना अब स़िर्फ भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ आंदोलन नहीं कर रहे हैं. अन्ना व्यवस्था में परिवर्तन चाहते हैं. उनका मानना है कि देश में व्यवस्था परिवर्तन तभी संभव है जब व्यवस्था परिवर्तन की इच्छा रखने वाले लोग लोकसभा में पहुंचेंगे. यह परिवर्तन राजनीतिक दलों के द्वारा नहीं, बल्कि जनउम्मीदवार के जरिए ही संभव है. अन्ना विधानसभाओं व राज्य सरकारों को व्यवस्था परिवर्तन का टूल नहीं मानते हैं और यह सही भी है, क्योंकि देश की जो संघीय व्यवस्था है उसमें यह संभव ही नहीं है. हमारे संविधान ने केंद्र सरकार और खासकर लोकसभा को इतनी शक्तियां दी हैं कि उनकी सहमति के बिना कोई परिवर्तन संभव नहीं है. यही वजह है कि देश में वामपंथियोें की सरकार अलग अलग राज्यों में आई, लेकिन कोई मौलिक परिवर्तन नहीं हो सका. आम आदमी पार्टी विधानसभा के जरिए व्यवस्था परिवर्तन का दावा करके दिल्ली के लोगों को गुमराह कर रही है.

अन्ना का आंदोलन जनतंत्र मोर्चे के पच्चीस सूत्र व उसके नीतिगत मसौदे पर आधारित है. अन्ना अब किसी भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का नेतृत्व नहीं कर रहे हैं. अन्ना देश में एक राजनैतिक व वैचारिक क्रांति का नेतृत्व कर रहे हैं और उन्हें हर जगह से ज़्यादा समर्थन मिल रहा है. जबकि आम आदमी पार्टी का लक्ष्य फ़िलहाल दिल्ली की सत्ता पर क़ब्ज़ा करना है. हालांकि, सोशल मीडिया पर आम आदमी पार्टी ने अरविंद केजरीवाल को देश के प्रधानमंत्री के रूप में पेश करने की शुरुआत कर दी है. वैसे अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल में तुलना करना बेमानी है, लेकिन दोनों के लक्ष्य में फ़़र्क साफ़ नज़र आता है. अन्ना का आंदोलन एक देशव्यापी और वैचारिक बदलाव का आंदोलन है. अन्ना नवउदारवाद के सबसे सशक्त विरोधी के रूप में उभरे हैं. वह भारत में लोकहितकारी राज्य की पुनर्स्थापना के लिए आंदोलन कर रहे हैं. अन्ना का आंदोलन संघर्ष, त्याग व बलिदान की राह पर चल रहा है, जिसमें सत्तालोलुप महत्वाकांक्षा व अहंकार का कोई स्थान नहीं है.

दिल्ली चुनाव के बाद लोकसभा चुनावों में भी आम आदमी पार्टी हिस्सा लेगी, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता है. आम आदमी पार्टी दिल्ली में चुनाव तो लड़ रही है, लेकिन इसने देश भर में संगठन भी तैयार किया है. विदेश से पैसा आ रहा है. एनआरआई चंदा दे रहे हैं. इसलिए संसाधनों की भी कमी नहीं है. लेकिन चुनाव दिल्ली का हो या देश का, अगर कोई राजनीतिक पार्टी चुनाव में हिस्सा ले रही है तो यह भी पूछना लाजिमी है कि पार्टी की विचारधारा क्या है? भारत विषमताओं का देश है. भारत जटिलताओं का देश है. इसलिए राजनीतिक दलों के लिए विचारधारा आवश्यक है. इसके बगैर भारत में राजनीति हो नहीं सकती. विचारधारा से ही पता चलता है कि कोई नेता या उसकी पार्टी देश के महत्वपूर्ण मुद्दों पर कहां खड़ा है. अगर कोई राजनीतिक दल देश के ज्वलंत मुद्दों पर जबाव न दे. विवादित सवालों पर कोई राय नहीं हो. जनता के जीवन से जुड़ी समस्यों पर उसकी अपनी कोई राय न हो. भविष्य का कोई प्लान न हो. आर्थिक व सामाजिक मुद्दों पर पीठ दिखाए. राष्ट्रीय मुद्दों पर जवाब न दे तो ऐसा मान लेना चाहिए कि कुछ न कुछ गड़बड़ है.

 

हाल में ही अरविंद केजरीवाल एक टीवी इंटरव्यू से अचानक भाग खड़े हुए. सवाल स़िर्फ ये था कि पाकिस्तान समर्थित आंतकियों पर आपकी क्या राय है. केजरीवाल का जवाब था यह सवाल देश के होम मिनिस्टर से पूछिए. एंकर ने फिर से पूछा कि दिल्ली आतंकियों के निशाने पर रही है तो उनका जवाब आया कि इसका जवाब बाद में देंगे. वो कुर्सी से उठकर चलने लग गए. लेकिन उठते-उठते एंकर ने यह भी पूछा कि गृह मंत्री की वह चिट्ठी, जिसमें मुसलमानों को बिना कसूर गिरफ़्तार करने पर रोक लगाने को कहा गया, उस पर उनकी क्या राय है? तो केजरीवाल का जवाब था कि इन सवालों का जवाब वो दिसंबर के बाद देंगे. यह एक समस्या है. दिल्ली में भी कई मुस्लिम नौजवानों को पुलिस पकड़ कर ले गई. सीलमपुर इलाके में ऐसे मामलों से लोग परेशान हैं. अगर दिल्ली का होने वाला भावी मुख्यमंत्री इन सवालों का जवाब न दे, तो इसका क्या मतलब है. ऐसे जवाब का मतलब तो यही निकलता है, चंद वोटों के लिए आप अपना स्टैंड बदलते रहेंगे.

एक और मुद्दा जिस पर आम आदमी पार्टी की राय अब तक स्पष्ट नहीं है, जबकि यह बिल्कुल साफ़ होना चाहिए. यह मुद्दा कश्मीर का है. आम आदमी पार्टी के नेता प्रशांत भूषण ने एक विवादास्पद बयान दिया कि कश्मीर में रेफेरेंडम होना चाहिए और अगर कश्मीर के लोग भारत से अलग होना चाहते हैं तो उन्हें अलग होने का अधिकार दे देना चाहिए. वैसे ऐसा कहना देशद्रोह से कम नहीं है, लेकिन असल बात यह है कि ऐसे बयान वही दे सकता है जिसे यह पता नहीं है कि भारत के लिए कश्मीर का मतलब क्या है. भारत के लिए कश्मीर स़िर्फ एक टेरिटरी नहीं है, बल्कि सेकुलरिज्म की गारंटी है. धर्म के नाम पर अगर कश्मीर को अगल करने का समर्थन करते हैं तो प्रशांत भूषण जी को यह भी बताना पड़ेगा कि बाकी देश के मुसलमानों का क्या होगा. इस बयान पर आम आदमी पार्टी की सफाई अभी तक बाक़ी है. प्रशांत भूषण ने इस बयान के लिए माफ़ी मांगी. अब आम आदमी पार्टी को यह बताना ही पड़ेगा कि कश्मीर व पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग मानती है या नहीं. हिंदुस्तान के सेकुलरिज्म पर भरोसा है या नहीं.

जब मायनॉरिटी की ही बात चली है तो आम आदमी पार्टी को यह भी बताना होगा कि कंस्टीट्यूशन क्लब में अरविंद केजरीवाल ने चंद मुसलमानों को पार्टी में शामिल करके नुमाइश तो की, लेकिन मुसलमानों के असल मुद्दे पर ख़ामोश रहे. सच्चर कमेटी ने मुसमलानों की हालत दलितों से भी ख़राब आंकी है. जिस तरह से सरकारें ख़ासकर सेकुलर पार्टियों ने मुसमलानों के साथ मज़ाक किया है उसकी वजह से मुसलमान आज देश का सबसे पिछड़ा वर्ग बन चुका है. रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट ने कई ज़रूरी क़दम सुझाए हैं, जिसमें सरकारी नौकरी में रिजर्वेशन भी शामिल है. क्या आम आदमी पार्टी मुसलमानों के विकास के लिए रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट में दिए गए सुझावों को लागू करने की पक्षधर है या नहीं? यह आम आदमी पार्टी को चुनाव से पहले बताना होगा. अगर इस मुद्दे पर कोई पार्टी कोई स्टैंड नहीं लेती है तो इसका मतलब है कि वह देश की जनता को धोखा दे रही है.

एक और महत्वपूर्ण सवाल है जिसका कोई ज़िक्र नहीं कर रहा है. यह सवाल है खुदरा बाज़ार में विदेशी पूंजी निवेश का. दिल्ली इससे सबसे ज़्यादा प्रभावित होने वाली है. अगर खुदरा बाज़ार में विदेशी पूंजी निवेश की इजाज़त मिली तो दिल्ली में सारे थोक एवं खुदरा बाज़ार पर आश्रित लोगों की रा़ेजी-रोटी पर असर पड़ेगा. अरविंद केजरीवाल को चुनाव से पहले यह बताना चाहिए कि वो खुदरा बाज़ार में विदेशी पूंजी निवेश के पक्ष हैं या नहीं. स़िर्फ भ्रष्टाचार ख़त्म करने की बात कहने से भविष्य के सवालों का हल नहीं मिल सकता है. वैसे भी जनलोकपाल से देश में भ्रष्टाचार ख़त्म नहीं होने वाला है, क्योंकि यह क़ानून भ्रष्टाचार हो जाने के बाद अमल में आएगा. इससे भ्रष्टाचारियों को सज़ा दिलाने में आसानी होगी. समझने वाली बात यह है कि देश के सामने भ्रष्टाचार के अलावा भी कई मुद्दे हैं जो ज़रूरी हैं. उन मुद्दों पर आम आदमी पार्टी की राय क्या है? आम आदमी पार्टी पिछड़ों व दलितों को नौकरी व प्रमोशन में रिजर्वेशन का समर्थन करती है या नहीं? आम आदमी पार्टी देश में माओवादियों के आंतक का विरोध करती है या नहीं? आम आदमी पार्टी विदेशी धन पाने वाले एनजीओ जनलोकपाल के दायरे में लाने के पक्ष में है या नहीं? आम आदमी पार्टी की राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद पर राय क्या है? दिल्ली व पूरे देश में बांग्लादेशी घुसपैठ की समस्या पर आम आदमी पार्टी की राय क्या है? हिंदू आंतकवाद यानी सैफ्रन टेरर पर आम आदमी पार्टी की राय क्या है? इसके अलावा भी कई सवाल हैं जैसे कि आम आदमी पार्टी के विकास का मॉडल क्या है? इसकी आर्थिक नीति क्या है? विदेश नीति क्या है? सांइस व टेक्नोलॉजी के विकास व प्रसार की नीति क्या है? निजीकरण पर पार्टी का रुख क्या है?

इस तरह के अनगिनत सवाल हैं. हर सवाल का जवाब जनलोकपाल, पारदर्शिता व विक्रेंदीकरण नहीं हो सकता है. उन मुद्दों पर पार्टी की राय अब तक सामने नहीं आई है, इसलिए भ्रम की स्थिति बनी हुई है. अगर आम आदमी पार्टी के मुख्यमंत्री उम्मीदवार यह कहें कि इन सवालों को जवाब दिसंबर के बाद देंगे, तब दिल्ली की जनता भी कह सकती है कि जब जवाब आ जाएगा, तब हमारे वोट लेकर जाना. इस तरह के सवाल उठाना कोई पूर्वाग्रह नहीं, बल्कि वैचारिक पार्दर्शिता की मांग है. आम आदमी पार्टी पारदर्शिता की पक्षधर होने का दावा करती है. अगर देश के महत्वपूर्ण मुद्दों पर पार्टी के विचार लोगों को मालूम नहीं हो, या यूं कहें कि बताया ही न जाए तो यह कैसे भरोसा पैदा होगा कि आम आदमी पार्टी की सरकार बनने के बाद लोगों की समस्याएं दूर हो जाएंगी.

चुनाव एक नशा है. इसके सामने अफीम भी फ़ीकी है. यह ऐसा नशा है जिसमें हर उम्मीदवार को लगता है कि वह भारी बहुमत से जीत रहा है. राह में मिलने वाले, तालियां बजाकर स्वागत करने वाले, हाथ हिलाने वाले और कभी-कभी स़िर्फ सामने से मुस्कुराने वाले समर्थक नज़र आने लगते हैं. हर उम्मीदवार को लगता है कि सारे लोग उसी को वोट दे रहे हैं. उम्मीदवार अक्सर दिवास्वपन का शिकार हो जाते हैं. जिन नेताओं का मानसिक संतुलन नहीं बिगड़ता और जो ज़मीनी हक़ीक़त को थामे रखते हैं, वही विजयी होते हैं. अगर ऐसा नशा सोनिया गांधी पर चढ़ जाए तो वह अहमदाबाद में मोदी से दो-दो हाथ करने पहुंच जाएंगी और अगर ऐसे ही नशे में नरेंद्र मोदी चूर हो जाएं तो वह सोनिया गांधी को हराने रायबरेली से उम्मीदवार बन जाएंगे. आम आदमी पार्टी के मुख्यमंत्री के उम्मीदवार अरविंद केजरीवाल ने मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के ख़िलाफ़ लड़ने का ऐलान किया है. अरविंद केजरीवाल कहते हैं कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार बनने वाली है. 32 फ़ीसदी वोट मिल रहे हैं. केजरीवाल ने ख़ुद मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ने की घोषणा के साथ यह भी ऐलान कर दिया कि चुनाव जीतते ही वो रामलीला मैदान में विधानसभा का स्पेशल सेशन बुलाएंगे और जनलोकपाल बिल पास करेंगे. चुनाव में अभी एक महीने से ज़्यादा का व़क्तहै. कांग्रेस पार्टी और भारतीय जनता पार्टी का अभियान अभी रंग नहीं पकड़ा है. अब यह समझ में नहीं आ रहा है कि केजरीवाल के साहस की दाद देनी चाहिए या फिर इसे एक चुनावी नशा मान कर भुला देना चाहिए.

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