जन सत्‍याग्रह- 2012 अब सरकार के पास विकल्‍प नहीं है

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आगरा के सीओडी ग्राउंड में पचास हज़ार किसान एकत्र थे. देश भर का मीडिया मौजूद था. लाउडस्पीकर से यह घोषणा की जा रही थी कि यह व़क्त खुशियां मनाने का है. आंखों में सपने और चेहरे पर मुस्कान लिए देश भर से आए किसान खुशियां मना रहे थे. यह कह रहे थे कि अगले छह महीनों में उन्हें ज़मीन और घर का अधिकार देने के लिए सरकार क़ानून बनाएगी. जय जगत… जय जगत के नारों से माहौल गूंज रहा था. किसान विजय गीत गा रहे थे. सब नाच रहे थे. 3 अक्टूबर से शुरू हुआ जन सत्याग्रह मार्च आगरा में 11 तारीख को खत्म हो गया. सरकार ने यह वायदा किया है कि वह अगले छह महीने में भूमिहीन किसानों के लिए ज़मीन और रहने के लिए छत का इंतजाम करेगी, इस मामले पर कोई ठोस क़ानून लाएगी. किसानों को उनका अधिकार मिलेगा, यही आशा लेकर वे अपने-अपने गांव लौट गए हैं.

jansatyagrah 2012जन सत्याग्रह मार्च ग्वालियर से 3 अक्टूबर को शुरू हुआ. योजना के मुताबिक़, क़रीब एक लाख किसान ग्वालियर से चलकर दिल्ली पहुंचने वाले थे. इस मार्च में शामिल होने वालों में सभी जाति-संप्रदाय के अदिवासी, भूमिहीन एवं ग़रीब किसान थे. ग्वालियर से आगरा की दूरी 350 किलोमीटर है. हर दिन लगभग दस से पंद्रह किलोमीटर की दूरी तय करता हुआ यह मार्च दिल्ली की तऱफ बढ़ रहा था. इस मार्च का मुख्य मुद्दा था जल, जंगल, ज़मीन और आदिवासी. एकता परिषद के बैनर तले आए इन लोगों की स़िर्फ एक ही मांग है, जो सीधे-सीधे इनके जीने के अधिकार से जुड़ी हुई है. ये सारे लोग भूमिहीन हैं. बहुत से लोगों को खनन, टाइगर रिज़र्व और अन्य विकास परियोजनाओं के नाम पर उनकी ज़मीन से बेदख़ल कर दिया गया है. एकता परिषद के अध्यक्ष पी वी राजगोपाल के मुताबिक़, नेशनल लैंड रिफॉर्म काउंसिल गठित हुए कई साल बीत गए, लेकिन अब तक भूमि सुधार नीति के संबंध में कोई भी ठोस क़दम नहीं उठाया गया है. वह आगे कहते हैं कि इस मसले पर सरकार इतनी असंवेदनशील है कि इस काउंसिल की बैठक तक नहीं होती. राष्ट्रीय भूमि सुधार समिति ने अपनी एक रिपोर्ट में सरकार को वन अधिकार क़ानून (फारेस्ट राइट एक्ट) को कारगर ढंग से लागू करने की भी सलाह दी थी. समिति ने अपनी स़िफारिश में कहा कि आदिम जनजाति समुदायों के भूमि क़ब्ज़े को मान्यता दे दी जाए. फारेस्ट राइट एक्ट भी आदिवासियों को जंगल एवं वन भूमि पर अधिकार देता है इसके बावजूद आज भी लाखों आदिवासियों को जंगल पर उनके पारंपरिक अधिकार से वंचित किया जा रहा है. राजगोपाल कहते हैं कि जबसे यह एक्ट लागू हुआ है, तबसे ज़मीन के लिए लगभग 30 लाख आवेदन ग़रीब आदिवासियों की तऱफ से आए. इन 30 लाख आवेदनों में से 19 लाख आवेदनों को वन विभाग ने निरस्त कर दिया. वन विभाग के लोग खुलेआम दादागिरी कर रहे हैं, ग़रीबों से उनकी भूमि छीनी जा रही है.

वर्ष 2007 में जब 25 हज़ार लोग ग्वालियर से पैदल चलकर दिल्ली आए, तब तत्कालीन ग्रामीण विकास मंत्री ने उन्हें आश्वासन दिया. 2009 में जब एक बार फिर वे दिल्ली आए, तब भी उन्हें आश्वासन ही मिला. हर बार स़िर्फ आश्वासन. मार्च 2011 में एकता परिषद ने दिल्ली में चेतावनी रैली की थी, जिसमें 15 हज़ार लोग शामिल हुए. यह रैली किसी मांग को लेकर नहीं, बल्कि स़िर्फ चेतावनी देने के लिए हुई थी. चेतावनी इस बात की कि 2012 तक अगर नई भूमि सुधार नीति और राष्ट्रीय भूमि सुधार समिति द्वारा सुझाए गए उपायों को लागू नहीं किया गया तो हम एक लाख लोगों के साथ आएंगे और फिर यहीं बैठकर तब तक शांतिपूर्ण धरना देते रहेंगे, जब तक हमारी मांगें नहीं मान ली जाएंगी. 2012 जाने को है, लेकिन सरकार ने कोई भी कार्रवाई नहीं की. जन सत्याग्रह मार्च के शुरू होने से पहले ग्वालियर में ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने एकता परिषद से बात की और जन सत्याग्रह मार्च रोकने की अपील की, लेकिन कोई समझौता नहीं हो सका. पी वी राजगोपाल का मानना है कि सरकारी प्रस्ताव का मकसद आंदोलन को कमजोर करना था. एक दिन बाद यानी 3 अक्टूबर को ग्वालियर से जन सत्याग्रह मार्च दिल्ली की तऱफ बढ़ चला. इस बीच एकता परिषद और सरकार के बीच बातचीत होती रही. 8 अक्टूबर को सरकार और एकता परिषद के बीच समझौता हो गया. एकता परिषद और ग्रामीण विकास मंत्रालय के बीच 10 सूत्रीय समझौते पर राय बन गई. जन सत्याग्रह मार्च आगरा पहुंच चुका था. यहां ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने किसानों को संबोधित किया और उन्हें भरोसा दिलाया कि समझौते में शामिल सभी मांगों पर सरकार तुरंत क़दम उठाएगी.

इस समझौते के मुताबिक़, ग्रामीण विकास मंत्रालय राज्यों के साथ शीघ्र ही बातचीत करेगा और 4-6 महीनों में राष्ट्रीय भूमि सुधार नीति का एक मसौदा प्रस्तुत करेगा, जिसके तुरंत बाद उसे अंतिम रूप दिया जाएगा. एकता परिषद का सुझाव राष्ट्रीय भूमि सुधार नीति के मसौदे का महत्वपूर्ण आधार होगा. इसमें स्वैच्छिक संगठनों को भी सक्रिय रूप से शामिल किया जाएगा. ग्रामीण विकास मंत्री ने यह भी भरोसा दिलाया कि पिछड़े जिलों में भूमिहीन ग़रीबों को कृषि भूमि और संपूर्ण देश में भूमिहीन एवं आश्रयहीन ग्रामीण ग़रीब परिवार को वासभूमि अधिकारों के प्रावधान के तहत 10 डिसमिल वासभूमि की गारंटी दी जाएगी. इसके अलावा ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा इंदिरा आवास योजना के अंतर्गत प्रत्येक भूमिहीन एवं आश्रयहीन ग़रीब परिवार के लिए वासभूमि के रूप में 10 डिसमिल भूमि की व्यवस्था करने हेतु इकाई लागत दोगुनी करने का प्रस्ताव है. इस समझौते में यह भी घोषणा की गई है कि ग्रामीण विकास मंत्रालय दलितों, आदिवासियों और समाज के अन्य सभी कमजोर एवं सीमांत वर्गों के भूमि अधिकारों को संरक्षण देने के उद्देश्य से विधान मंडलों द्वारा अधिनियमित क़ानूनों के प्रभावी कार्यान्वयन हेतु राज्यों को प्रोत्साहित करने के लिए अगले दो महीनों में विस्तृत परामर्श पत्र जारी करने पर सहमत है. इसके अलावा ग्रामीण विकास मंत्रालय राजस्व और न्यायिक न्यायालयों में लंबित मामलों को तेजी से निपटाने के लिए फास्ट ट्रैक भूमि न्यायाधिकरणों/न्यायालयों की स्थापना करने के लिए राज्यों के साथ संवाद शुरू करने पर सहमत है. ग्रामीण विकास मंत्रालय अगले चार महीनों में स्टेकहोल्डर परामर्श पूरा करने के लिए जनजाति कार्य मंत्रालय तथा पंचायती राज मंत्रालय के साथ कार्य करेगा, ताकि ग्राम सभाओं को और प्रभावी बनाया जा सके.

जयराम रमेश ने भी बताया कि स्वैच्छिक संगठनों से प्राप्त सुझावों के आधार पर वन अधिकार अधिनियम के प्रभावी कार्यान्वयन के लिए राज्यों को सक्रिय रूप से प्रोत्साहन एवं समर्थन दिया जाएगा. ग्रामीण विकास मंत्रालय, वन तथा राजस्व सीमा विवाद हल करने हेतु वन एवं राजस्व विभागों को संयुक्त दल गठित करने के लिए राज्यों को परामर्श पत्र जारी करने पर सहमत है. ग्राम पंचायतों और ग्राम सभाओं को सर्वेक्षण तथा बंदोबस्त की प्रक्रिया में पूरी तरह से शामिल किया जाएगा. साथ ही ग्राम सभाओं और ग्राम पंचायतों की प्रत्यक्ष संबद्धता से सामुदायिक संसाधनों (सीपीआर) का सर्वेक्षण करने के लिए राज्यों को प्रोत्साहन एवं समर्थन दिया जाएगा. समझौते में यह भी कहा गया कि ग्रामीण विकास मंत्रालय उपरोक्त एजेंडे को लागू करने के लिए केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री की अध्यक्षता में भूमि सुधार संबंधी कार्यदल का तुरंत गठन करेगा. भूमि सुधार संबंधी कार्यदल में केंद्र सरकार, राज्य सरकारों, भूमि सुधार के मुद्दों पर काम कर रहे स्वैच्छिक संगठनों तथा सभी संबंधित स्टेकहोल्डरों के प्रतिनिधियों को शामिल किया जाएगा.

जन सत्याग्रह 2012 में देश के 26 राज्यों के किसान शामिल हुए. सबसे कठिन सवाल तो यह है कि एक लाख लोगों को कैसे लाया गया? यह कहा जा सकता है कि किसी भी राजनीतिक दल या सामाजिक संगठन में एक लाख लोगों को पदयात्रा में शामिल कराने की शक्ति नहीं है. अगर एकता परिषद ने यह काम किया है तो यह समझना ज़रूरी है कि आ़िखर उसकी रणनीति क्या है. जन सत्याग्रह यात्रा को नियंत्रित और संचालित करने के लिए एक मैनेजमेंट कमेटी बनाई गई. साथ ही देश भर में एकता परिषद ने अपना सांगठनिक ढांचा तैयार किया. इस संगठन के शीर्ष पर एकता परिषद के नेता पी वी राजगोपाल हैं. रण सिंह परमार की देखरेख में इस मार्च को संचालित किया गया. इन दोनों ने 20 कैंप लीडरों का नेतृत्व किया. लेकिन एकता परिषद की सबसे बड़ी ताकत गांव के स्तर पर बनाया गया कार्यकर्ताओं का जाल है, जिसकी वजह से यह किसानों को लामबंद करने में सफल हुई. एकता परिषद ने 10,000 गांवों में दस्ता नायक बनाया. हर गांव से क़रीब 10 लोगों को इस मार्च में शामिल होने के लिए तैयार किया गया. दस्ता नायक का काम लोगों से बातचीत करना, पदयात्रा के बारे में बताना और उनकी समस्याओं को जत्था नायक तक पहुंचाना था. देश भर में दस्ता नायकों की संख्या 2000 थी. एक जत्था नायक को पांच गांव और पचास पदयात्रियों की ज़िम्मेदारी दी गई. जत्था नायक का मुख्य काम दस्ता नायकों के साथ मिलकर गांवों में मीटिंग करना और उनकी शिकायतों को इकट्ठा करना था. जत्था नायक को ये सारी जानकारी और संगठन की गतिविधियां दल नायक तक पहुंचाने की ज़िम्मेदारी दी गई.

देश भर में कुल दो सौ दल नायक बनाए गए. इस तरह एक दल नायक को 10 जत्था नायकों या 50 गांवों की ज़िम्मेदारी दी गई. इस संगठन में दल नायक के ऊपर शिविर नायक हैं, जिनकी संख्या 20 है. मतलब यह कि एक शिविर नायक को 5000 पदयात्रियों की ज़िम्मेदारी दी गई. पदयात्रा में लोगों को शामिल करने का काम अक्टूबर 2011 में शुरू किया गया. पी वी राजगोपाल ने उड़ीसा से इसकी शुरुआत की और गांव-गांव जाकर लोगों को लामबंद किया. मार्च के दौरान पदयात्रियों को 75 अलग-अलग ग्रुपों में बांट दिया गया. हर पदयात्री को एक पहचान पत्र दिया गया, जिस पर उनके ग्रुप का नंबर भी लिखा था. हर ग्रुप की व्यवस्था अलग थी. हर ग्रुप का खाना अलग बनता था. इस मार्च की खासियत यह थी कि पदयात्रियों ने खुद ही सारा इंतजाम किया था. पदयात्री सुबह मुट्ठी भर पोहा खाकर अपना दिन शुरू करते थे. अगले पड़ाव पर पहुंचने का बाद वे क़रीब तीन-चार बजे शाम को खाना खाते थे और फिर अंधेरा होते ही सड़क पर सो जाते थे. हर पदयात्री अपने ग्रुप के साथ रहता था, साथ खाना खाता था और साथ ही सोता था. हर पड़ाव पर वह वहीं रुकता, जहां उसके ग्रुप का नंबर लिखा होता था.

पदयात्रा खत्म हो गई, लेकिन किसानों के सपने जीवित हैं. पदयात्री अपने-अपने गांवों में अपने संघर्ष और सफलता की कहानियां सुना रहे होंगे. वे लोगों को बता रहे होंगे कि छह महीने बाद उन्हें ज़मीन मिलेगी. केंद्र सरकार भले ही एकता परिषद के साथ समझौता करने और पदयात्रा को दिल्ली से दूर ही खत्म कराने में सफल हो गई, लेकिन अभी कई ऐसे सवाल हैं, जिनका जवाब यूपीए सरकार को देना है. क्या सरकार अपने वायदों को पूरा करेगी, क्या भूमिहीन ग़रीब किसानों को ज़मीन मिलेगी, क्या ग़रीब किसानों को घर देगी सरकार? अगर सरकार अपनी आदत के मुताबिक़ पलट जाए तो यह ग़रीब किसानों के साथ किया गया सबसे शर्मनाक मजाक होगा. पदयात्रा में शामिल हुए ग़रीब किसान अहिंसक थे, लेकिन यह बात भी भूलने की नहीं है कि ये जिन इलाकों से आते हैं, वहां नक्सलियों का दबदबा है. सरकार का अपने वायदों से पलटना इन किसानों को अपने गांवों में मजाक का पात्र बना देगा. मनमोहन सिंह के लिए यह एक ऐतिहासिक परीक्षा की घड़ी है. यूपीए सरकार के पास दो ही विकल्प हैं. वह भूमिहीनों को ज़मीन दे, अपने वायदों को पूरा करे और सहमति पत्र के हर बिंदु को कार्यान्वित करे या फिर देश में लगातार बढ़ रहे नक्सलवाद के दुष्परिणामों और ग्रामीण इलाकों में हिंसा को झेलने के लिए तैयार हो जाए.

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