गुजरात चुनाव मुसलमान और कांग्रेस

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muslimअगले लोकसभा चुनाव की तैयारी शुरू हो गई है. कांग्रेस पार्टी ने अगले चुनाव की कमान राहुल गांधी को सौंप दी है. राहुल गांधी को 2014 के लोकसभा चुनाव की समन्वय समिति का प्रमुख बनाया गया है. राहुल गांधी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे, यह बात पहले से ही तय है. इसमें कोई नई बात नहीं है. इस समिति में वही पुराने चेहरे हैं, जो अब तक कांग्रेस की रणनीति बनाते आए हैं. इसलिए कुछ नया होगा, इसकी उम्मीद नहीं है. लेकिन सवाल यह है कि मुसलमानों के लिए इसमें नया क्या है? सवाल यह है कि जिस तरह उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी ने मुसलमानों को धोखा देकर वोट लेने की कोशिश की, क्या फिर से वही खेल खेला जाएगा?

सलमान खुर्शीद की तरक्क़ी हो गई है. अब वह विदेश मंत्री बन गए हैं. सूट-बूट पहन कर विदेश के दौरे पर रहते हैं. सलमान खुर्शीद ने माइनोरिटी अफेयर्स मिनिस्टर रहते हुए ऐसा क्या कर दिया कि कांग्रेस पार्टी ने उन्हें तरक्क़ी दे दी. पिछले कुछ महीनों को याद करें तो सलमान खुर्शीद से जुड़ी दो ही घटनाएं याद आती हैं. एक तो उत्तर प्रदेश में विकलांगों के नाम पर पैसे के ग़बन का मामला है. दूसरा यह कि उत्तर प्रदेश चुनाव के दौरान उन्होंने मुसलमानों के लिए 9 फीसदी आरक्षण की बात कही थी. उन्होंने भरोसा दिलाया था कि कांग्रेस सरकार जल्द ही मुसलमानों के आरक्षण के लिए क़ानून बनाएगी. उत्तर प्रदेश चुनाव क़ो खत्म हुए भी कई महीने बीत गए, अब तो गुजरात में चुनाव हो रहे हैं. लेकिन गुजरात में चुनाव के दौरान कोई भी कांग्रेसी नेता 9 फीसदी आरक्षण तो दूर 5 फीसदी रिजर्वेशन की भी बात नहीं कर रहा है. इसका क्या मतलब है? इसका मतलब सा़फ है कि मुसलमानों के आरक्षण को लेकर कांग्रेस गंभीर नहीं है. कांग्रेस उत्तर प्रदेश में चुनाव से ठीक पहले इस मामले को उठाकर मुसलमानों के वोट लेना चाहती थी. राहुल गांधी की रणनीति यही थी कि आरक्षण का लॉलीपाप देखकर मुसलमानों को मूर्ख बनाया जा सकता है. कांग्रेस पार्टी ने उत्तर प्रदेश में मुसलमानों को कैसे मूर्ख बनाने की कोशिश की, इस पर आगे बात करेंगे, लेकिन पहले गुजरात चुनाव में कांग्रेस की रणनीति को समझते हैं.

गुजरात का चुनाव स़िर्फ कांग्रेस और भाजपा की लड़ाई नहीं है. गुजरात चुनाव पर पूरी दुनिया की नज़र है. गुजरात चुनाव हिंदुस्तान के भविष्य को तय करेगा. इससे यह तय होगा कि हिंदुस्तान में सेकुलरिज्म ज़िंदा है या फिर हमारे देश के लोगों ने कम्युनलिज्म को राष्ट्रीय जीवन का एक हिस्सा मान लिया है. नरेंद्र मोदी एक ऐसी राजनीति का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो हिन्दुत्व के रास्ते जाती है. इसमें हर संप्रदाय के लोगों के बीच समानता की जगह नहीं है. लेकिन ऐसी ताक़तों से लड़ने वाला कौन है? यह ज़िम्मेदारी देश की जनता ने कांग्रेस को दी है. लेकिन कांग्रेस इस ज़िम्मेदारी को निभाने में नाकाम रही है. इस चुनाव में कांग्रेस ने गुजरात के दंगों को क्यों भुला दिया? इसे मुख्य मुद्दा क्यों नहीं बनाया? गुजरात के चुनाव में सोनिया गांधी ने एक बार रैली को संबोधित किया, जबकि नरेंद्र मोदी पूरे राज्य का दौरा कर रहे हैं. कांग्रेस पार्टी के अगले प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार राहुल गांधी ने मोदी से सीधे दो- दो हाथ क्यों नहीं किए? वैसे कांग्रेस टीवी पर प्रचार के लिए करोड़ों रुपये खर्च कर रही है, लेकिन इस प्रचार में भी गुजरात दंगा प्रमुख नहीं है. क्या कांग्रेस ने यह मान लिया है कि जिस तरह एसआईटी ने नरेंद्र मोदी को क्लीन चिट दी है, वह सही है. क्या कांग्रेस ने भी नरेंद्र मोदी को क्लीन चिट दे दी है? अगर नहीं तो फिर चुनाव में यह मुद्दा क्यों नहीं है? यह सा़फ हो चुका है कि चुनाव में गुजरात दंगा कांग्रेस के एजेंडे से बाहर है. कांग्रेस ने चुनाव प्रचार का मुख्य एजेंडा विकास को बनाया है. कांग्रेस सरकार के खुद के आंकड़े बताते हैं कि गुजरात में विकास हुआ है. इसलिए विकास को मुद्दा बनाना, एक तरह से नरेंद्र मोदी को चुनाव से पहले ही जीत दिलाने जैसी बात है. ऐसा लगता है कि विकास को मुद्दा बनाकर और कांग्रेस के बड़े-बड़े नेताओं ने प्रचार न करके नरेंद्र मोदी को वाकओवर देने का फैसला कर लिया है.

गुजरात का चुनाव स़िर्फ कांग्रेस और भाजपा की लड़ाई नहीं है. गुजरात चुनाव पर पूरी दुनिया की नज़र है. गुजरात चुनाव हिंदुस्तान के भविष्य को तय करेगा. इससे यह तय होगा कि हिंदुस्तान में सेकुलरिज्म ज़िंदा है या फिर हमारे देश के लोगों ने कम्युनलिज्म को राष्ट्रीय जीवन का एक हिस्सा मान लिया है. नरेंद्र मोदी एक ऐसी राजनीति का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो हिन्दुत्व के रास्ते जाती है. इसमें हर संप्रदाय के लोगों के बीच समानता की जगह नहीं है. लेकिन ऐसी ताक़तों से लड़ने वाला कौन है? यह ज़िम्मेदारी देश की जनता ने कांग्रेस को दी है. लेकिन कांग्रेस इस ज़िम्मेदारी को निभाने में नाकाम रही है. इस चुनाव में कांग्रेस ने गुजरात के दंगों को क्यों भुला दिया? इसे मुख्य मुद्दा क्यों नहीं बनाया?

इस बीच एक खबर आई, जिसने सभी सेकुलर पार्टियों को शर्मसार कर दिया. गृह मंत्रालय की ओर से जारी आंकड़े में 17 राज्यों और 6 केंद्र शासित क्षेत्रों का ब्योरा है कि देश के किस राज्य में थानों में सबसे ज़्यादा मुस्लिम पुलिसकर्मी हैं. आंक़डा चौंकाने वाला है. गुजरात इस मामले में अव्वल है. गुजरात के पुलिस थानों में तैनात पुलिसकर्मियों में 10.6 प्रतिशत मुसलमान हैं, जो मुस्लिमों की जनसंख्या के अनुपात के मुक़ाबले ज़्यादा हैं. गुजरात में मुस्लिम आबादी 9.1 प्रतिशत है. गुजरात के 501 पुलिस थानों में तैनात 47,424 पुलिसकर्मियों में से 5021 मुस्लिम समुदाय से हैं. इस लिहाज़ से देखें तो गुजरात के हर थाने में औसतन 10 मुस्लिम पुलिसकर्मी हैं. सच्चर कमेटी ने स़िफारिश की थी कि अल्पसंख्यक समुदाय में विश्वास बहाल करने के लिए पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों में उनकी नियुक्ति को बढ़ावा दिया जाए, ताकि मुसलमानों के साथ नाइंसा़फी की घटनाएं कम हो सकें और दंगों के समय पुलिस सही भूमिका निभा सके. हैरानी की बात यह है कि कांग्रेस शासित राज्यों का रिकॉर्ड खराब है. इस मामले में सबसे खराब रिकॉर्ड राजस्थान का है. यहां के 773 थानों में केवल 930 पुलिसकर्मी ही मुस्लिम हैं. यहां कांग्रेस की सरकार है. मज़ेदार बात यह है कि जब यह जानकारी अलग-अलग राज्यों से मांगी गई, तो 11 राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश ने आंकड़ा नहीं दिया. इसमें स़िर्फ कर्नाटक और बिहार में भाजपा सरकार में है, बाक़ी सब जगह कांग्रेस पार्टी और दूसरी सेकुलर पार्टियां सरकार में हैं. इस आंकड़े को उपलब्ध नहीं कराने का मतलब यही है कि इन राज्यों के पुलिस थानों में मुसलमानों की संख्या इतनी कम है कि बताया तक नहीं जा सकता. अब सवाल यह है कि अगर नरेंद्र मोदी की सरकार यह काम कर सकती है, तो कांग्रेस पार्टी को अपने राज्यों में इसे लागू करने में क्या परेशानी है?

हाल के दिनों में दो खबरें आईं, जिन पर लोगों का ध्यान गया. दोनों ही खबरें चौंकाने वाली थीं. पहली खबर हैदराबाद से आई, जिसमें सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने यह ऐलान किया कि उनकी पार्टी मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन ने कांग्रेस से अपना समर्थन वापस ले लिया है. आंध्र प्रदेश में कांग्रेस सरकार को मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन समर्थन दे रही थी. लेकिन असदुद्दीन ओवैसी ने जो कारण बताए, वे चौंकाने वाले ज़रूर हैं. उन्होंने कहा कि आंध्र प्रदेश की कांग्रेस सरकार सांप्रदायिक और जनविरोधी है. साथ ही उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि कांग्रेस संघ परिवार यानी आरएसएस की पिट्ठू बन गई है. कांग्रेस के मुख्यमंत्री किरण रेड्डी के बारे में ओवैसी ने कहा कि मुख्यमंत्री इतना गिर चुके हैं कि वह संघ परिवार के तलवे चाट रहे हैं और हैदराबाद और इसके आसपास के इला़के में भाजपा को मज़बूत करने के लिए काम कर रहे हैं. उन्होंने मीडिया को बताया कि किरण रेड्डी के रूप में कांग्रेस को दूसरा नरसिंहाराव मिल गया है, जो हमें बाबरी मस्जिद की घटना की याद दिलाता है. कांग्रेस पार्टी विचारधारा और नीतियों को लेकर उलझन में है. अगर उसके गठबंधन के लोग सांप्रदायिकता और संघ परिवार के साथ साठगांठ के आरोप लगाने लग जाएं, तो यह उलझन और भी बढ़ जाती है. लेकिन असदुद्दीन ओवैसी का आरोप आधा सच और आधा झूठ है. सवाल यह है कि क्या असदुद्दीन ओवैसी सही कह रहे हैं या फिर उन्होंने एक भावनात्मक मुद्दे को उठाकर अपनी राजनीति चमकाई है? देश में ऐसी कौन-सी सेकुलर पार्टी है, जिसने मुसलमानों के आरक्षण, शिक्षा, रोज़गार, स्वास्थ्य और अधिकारों के लिए कुर्सी को छोड़ा हो? अब तक तो किसी ने ऐसी हिम्मत नहीं दिखाई है. यही सवाल असदुद्दीन ओवैसी से भी पूछा जाना चाहिए. उन्होंने यूपीए से उस व़क्त रिश्ता क्यों नहीं तोड़ा, जब रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट को मनमोहन सिंह की सरकार ने छुपा रखा था. जब चौथी दुनिया ने इसे देश के सामने पेश किया और राज्यसभा में हंगामा शुरू हुआ, तब असदुद्दीन ओवैसी ने लोकसभा में इस मामले को क्यों नहीं उठाया? जब कांग्रेस पार्टी द्वारा आरक्षण के नाम पर उत्तर प्रदेश के मुसलमानों को ठगा जा रहा था, तब उन्होंने समर्थन वापस क्यों नहीं लिया? क्या स़िर्फ भावनात्मक सवालों को उठाकर ही देश में अल्पसंख्यकों की राजनीति होगी? क्या मुसलमानों के असल मुद्दों पर बात होगी, तो क्या स़िर्फ धोखा दिया जाएगा?

मुसलमानों के साथ राजनीतिक दल किस तरह से धोखा करते हैं, इसका सबसे सटीक उदाहरण उत्तर प्रदेश के मुसलमान हैं, जिन्हें कांग्रेस ने आरक्षण का लॉलीपाप देकर मूर्ख बनाने की कोशिश की. जब चौथी दुनिया ने रंगनाथ मिश्र कमीशन रिपोर्ट को छापा, तब मुलायम सिंह यादव ने लोकसभा में जमकर हंगामा किया, जिसकी वजह से केंद्र सरकार को रंगनाथ मिश्र कमीशन रिपोर्ट संसद में पेश करनी पड़ी. ग़ौर करने वाली बात यह है कि सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्र कमीशन रिपोर्ट को कांग्रेस पार्टी की सरकार ने संसद में तो पेश कर दिया, लेकिन एक्शन टेकन रिपोर्ट के बिना. दो साल बीत गए. फिर उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से ठीक पहले सलमान खुर्शीद ने शिगू़फा छो़डा कि सरकार ने मुसलमानों को आरक्षण देने का फैसला किया है. सारे चैनल और अ़खबार इसे मुस्लिम आरक्षण बताने लग गए, जबकि हक़ीक़त यह है थी कि यह वादा भी ओबीसी कोटे के अंदर दिया गया था. वैसे भी मुसलमानों की कई जातियां सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ी हैं, इसलिए केंद्र सरकार की नौकरियों और विश्वविद्यालयों में उन्हें भी आरक्षण का फायदा मिल रहा था. ऐसे में सरकार के फैसले से मुसलमानों को क्या फायदा मिलता? हमारे संविधान में स़िर्फ धर्म के नाम पर आरक्षण देने की व्यवस्था नहीं है, इसलिए मुसलमानों को आरक्षण देने के लिए संविधान में संशोधन करने की ज़रूरत पड़ेगी. कांग्रेस पार्टी ने आरक्षण का ऐलान तो कर दिया, लेकिन संविधान में संशोधन का नाम कभी नहीं लिया, इसलिए कांग्रेस की नीयत पर सवाल खड़ा होता है. नीयत पर इसलिए सवाल खड़ा होता है, क्योंकि पहले तो कांग्रेस ने मीडिया के ज़रिये अल्पसंख्यक आरक्षण को मुस्लिम आरक्षण बताया. मतलब यह कि जिस आरक्षण की बात सलमान खुर्शीद कर रहे थे, वह ओबीसी कोटे के अंदर एक कोटा था, जिसमें सिख, जैन, ईसाई, पारसी और मुसलमान सभी शामिल थे. दूसरी ग़ौर करने वाली बात यह थी कि उत्तर प्रदेश चुनाव में कांग्रेस ने जो घोषणा पत्र तैयार किया, उसकी अंग्रेजी और उर्दू भाषा की प्रति में कलाकारी की गई. अंग्रेजी में जहां माइनोरिटी शब्द लिखा था, वहीं उर्दू में इसे मुस्लिम बनाकर गुमराह करने की कोशिश की गई. मतलब सा़फ है कि कांग्रेस की रणनीति मुसलमानों को आरक्षण देकर वोट लेने की नहीं थी, बल्कि मुसलमानों को मूर्ख बनाकर वोट लेने की हिमाक़त थी. लेकिन जब उनकी पोल-पट्टी खुली और मुसलमानों के सामने बेनक़ाब हो गए तो उनकी सारी रणनीति चकनाचूर हो गई. यही वजह है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस और राहुल गांधी की शर्मनाक हार हुई.

अगर कांग्रेस पार्टी को अगला लोकसभा चुनाव जीतना है और राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाना है तो देश के कुछ मुद्दे ऐसे हैं, जिन पर उसकी सा़फ राय होनी चाहिए. सांप्रदायिकता एक ऐसा मुद्दा है, जिस पर कोई कंफ्यूजन नहीं चल सकता. गुजरात में सांप्रदायिकता पर नरमी दिखाना और उत्तर प्रदेश में सख्ती से पेश आना अवसरवादी राजनीति है. जिन राज्यों में मुसलमानों की संख्या निर्णायक भूमिका में है, वहां आरक्षण का झूठ और जहां मुसलमान कम और कमज़ोर हैं, वहां उनके अधिकारों की बात न करना बेईमानी है. कांग्रेस पार्टी को यह समझना होगा कि यह 1990 नहीं है. राहुल गांधी के टोपी पहनने से या फिर इफ्तार पार्टी को मीडिया में दिखाने से मुसलमानों को कुछ हासिल नहीं होगा. मुसलमान जाग चुका है. नई पीढ़ी अब सवाल पूछने लगी है. वह मौलवियों की बात नहीं सुनती, जिससे उनके वोट मैनेज किए जा सकते हैं. इसलिए कांग्रेस के साथ-साथ सभी राजनीतिक दलों को अल्पसंख्यकों के लिए अपनी सोच, अपनी योजना, अपनी नीति और अपनी ज़िम्मेदारी को देश के सामने सा़फ तौर पर रखना होगा और उसका पालन करना होगा, वरना उनके पैर के नीचे से कब ज़मीन खिसक जाएगी, यह पता भी नहीं चलेगा.

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