एक नहीं, देश को कई केजरीवाल चाहिए

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kejriwaalदो साल पहले तक जयप्रकाश आंदोलन और भ्रष्टाचार के खिला़फ वी पी सिंह के आंदोलन में हिस्सा लेने वाले लोग भी यह कहते थे कि जमाना बदल गया है, अब देश में कुछ नहीं हो सकता. आज के युवा आंदोलन नहीं कर सकते. देश में अब कोई भी आंदोलन संभव नहीं है. देश के बड़े-बड़े राजनीतिक दलों को यह लगा कि देश की जनता अफीम पीकर सो चुकी है और उनकी मनमानी पर अब कोई आवाज़ उठाने वाला नहीं है. यह धारणा गलत साबित हुई. राजनीतिक दल इस बात को भूल गए कि जनता के बर्दाश्त करने की भी एक सीमा है. संकटकाल में ही बदलाव के बीज प्रस्फुटित होते हैं. परिवर्तन की आंधी चलती है, तभी आंदोलन होते हैं, लीडर पैदा होता है.

साधारण पोशाक में किसी आम आदमी की तरह दुबला-पतला नज़र आने वाला शख्स, जो बगल से गुजर जाए तो शायद उस पर किसी की नज़र भी न पड़े, आज देश के करोड़ों लोगों की नज़रों में एक आशा बनकर उभरा है. तीखी बोली, तीखे तर्क और ज़िद्दी होने का एहसास दिलाने वाला शख्स अरविंद केजरीवाल आज घर-घर में एक चर्चा का विषय बन बैठा है. अरविंद केजरीवाल की कई अच्छाइयां हैं तो कुछ बुराइयां भी हैं. उनकी अच्छाइयों और बुराइयों का विश्लेषण किया जा सकता है, लेकिन इस बात पर दो राय नहीं है कि देश में आज भ्रष्टाचार के खिला़फ जो माहौल बना है, उसमें अरविंद केजरीवाल का बड़ा योगदान है. जब से अरविंद केजरीवाल ने इंडिया अगेंस्ट करप्शन को एक राजनीतिक दल बनाने का फैसला किया, तबसे कई सवाल खड़े हुए हैं. कुछ सवाल उनके साथी उठा रहे हैं, कुछ सवाल उनके विरोधी उठा रहे हैं और कुछ सवाल देश की जनता उठा रही है, जिनका जवाब मिलना ज़रूरी है.

अजीबोग़रीब बात है कि जब कभी यह सवाल उठता है कि प्रियंका वाड्रा क्या राजनीति में आने वाली हैं या राहुल गांधी सक्रिय राजनीति में आने वाले हैं तो ऐसे मुद्दों पर मीडिया घंटों बहस करता है, लेकिन इस बात पर कभी बहस नहीं होती कि राहुल गांधी की क्षमता क्या है, विचार क्या हैं, देश के अलग- अलग मुद्दों पर उनकी राय क्या है या है भी कि नहीं? लेकिन, जिसके पास विचार हैं, क्षमता है, दूरदर्शिता है और ईमानदारी है, उसके राजनीति में आने पर टीवी चैनलों के राजनीतिक पंडितों को समस्या हो जाती है. जब अरविंद केजरीवाल भ्रष्टाचारियों पर आरोप लगाते हैं या फिर परिवर्तन की बातें कहते हैं तो मीडिया उल्टे उन्हीं को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश करता है. सच्चाई यह है कि पिछले कुछ महीनों में अरविंद केजरीवाल ने जिस तरह की राजनीति और लीडरशिप का परिचय दिया है और जिस तरह उनके समर्थन में युवा वर्ग सड़कों पर उतरा, उससे अरविंद केजरीवाल ने भविष्य के प्रथम पंक्ति के नेताओं में अपना स्थान दर्ज करा लिया है.

आज ऐसा कौन सा नेता है, जिसके लिए कार्यकर्ता लाठी खाने के लिए तैयार है? ऐसी कौन सी पार्टी है, जिसके कार्यकर्ता बिना पैसे लिए संगठन के लिए काम करते हैं? ऐसी कौन सी पार्टी है, जो अपनी रैलियों में बिना पैसे दिए भीड़ इकट्ठा कर पाती है? ऐसा कौन सा नेता है, जिसे देखने-सुनने के लिए आम जनता उमड़ पड़ती है? देश के पार्टी सिस्टम को घुन लग गया है. भाड़े की भीड़, भाड़े का जुलूस, भाड़े की रैली और भाड़े के कार्यकर्ता, यही आज की राजनीतिक पार्टियों की सच्चाई है. बिना पैसा लिए पार्टी संगठन के पदाधिकारी भी टस से मस नहीं होते. राजनीतिक दलों ने अपने सारे दायित्वों को ताख पर रख दिया है. वे स़िर्फ चुनाव लड़ने, सरकार बनाने और पैसा कमाने के लिए संगठन चलाते हैं. राजनीतिक दलों ने जैसे बीज बोए हैं, वे वैसी ही फसल काट रहे हैं. बिना पैसे दिए वे चुनाव प्रचार के लिए कार्यकर्ता और पोलिंग बूथ पर एक एजेंट तक नहीं खड़ा कर सकते. ऐसे में जब टेलीविजन पर किसी ग़रीब के यहां बिजली का तार जोड़ते हुए अरविंद केजरीवाल दिखाई देते हैं तो लगता है कि राजनीति का मिजाज बदल रहा है. जब भ्रष्ट मंत्रियों के खिला़फ प्रदर्शन करते हुए देश के अलग-अलग शहरों में नौजवान लड़के एवं लड़कियां पुलिस की लाठियां खाते नज़र आते हैं तो विश्वास जगता है कि देश में अभी भी उसूलों के लिए लड़ने वाले लोग बचे हैं. जब देश का एक वरिष्ठ मंत्री अपने होश खो बैठता है और मारने की धमकी देने लगता है तो इसका मतलब है कि राजनीतिक दलों को अरविंद केजरीवाल से डर लगने लगा है. जब अरविंद केजरीवाल कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के दामाद पर आरोप लगाने की हिम्मत दिखाते हैं तो लोगों की आशा मज़बूत होती है कि देश बदल सकता है. लोग नज़रें उठाए इंतज़ार में इसलिए हैं, क्योंकि देश और देश का प्रजातंत्र संकट में है.

आज ऐसा कौन सा नेता है, जिसके लिए कार्यकर्ता लाठी खाने के लिए तैयार है? ऐसी कौन सी पार्टी है, जिसके कार्यकर्ता बिना पैसे लिए संगठन के लिए काम करते हैं? ऐसी कौन सी पार्टी है, जो अपनी रैलियों में बिना पैसे दिए भीड़ इकट्ठा कर पाती है? ऐसा कौन सा नेता है, जिसे देखने-सुनने  के लिए आम जनता उमड़ पड़ती है? देश के पार्टी सिस्टम को घुन लग गया है. भाड़े की भीड़, भाड़े का जुलूस, भाड़े की रैली और भाड़े के कार्यकर्ता, यही आज की राजनीतिक पार्टियों की सच्चाई है.

पिछले आठ सालों में देश हर क्षेत्र में पीछे ही हुआ है. भ्रष्टाचार और महंगाई, दोनों ही इस दौरान चरम पर पहुंच गए. केंद्र सरकार हो या फिर राज्यों की सरकारें, किसी ने न तो भ्रष्टाचार खत्म करने के लिए कोई पहल की और न महंगाई रोकने के लिए. योजनाएं पहले की तरह विफल होती रहीं और जनता त्रस्त होती गई. इस दौरान ऐसा माहौल बना, जिससे लगता है कि देश में सरकार ही नहीं है. सरकार अगर है तो वह स़िर्फ निजी कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए बनी है. निजी कंपनियों, नेताओं एवं अधिकारियों ने घोटाले और भ्रष्टाचार की सारी हदें पार कर दीं. विपक्ष में बैठे राजनीतिक दल चुप्पी साधकर अपनी पारी का इंतज़ार करने लगे. इसलिए इस दौरान राज्यों में सरकारें तो बदलीं, लेकिन शासन करने का तरीक़ा नहीं बदला. अर्थशास्त्र के विद्वान प्रधानमंत्री भरोसा दिलाते रहे कि महंगाई अब कम होगी, तब कम होगी. वित्त मंत्री यही झूठे वायदे करते-करते राष्ट्रपति बन गए, लेकिन देश की जनता को महंगाई से निजात नहीं मिल पाई. ग़रीब तो ग़रीब, इस बार अमीरों को भी महंगाई परेशान कर गई. इस दौरान एक के बाद एक, बड़े से बड़े घोटालों का पर्दाफाश होता गया. जनता को समझ में आ गया कि मनमोहन सिंह की आर्थिक सुधार की नीति का नतीजा यह है कि देश में मंत्रियों, नेताओं, अधिकारियों एवं उद्योगपतियों के कई गिरोह तैयार हो चुके हैं, जो हर वक्त देश को लूटने में लगे हैं. विकास के नाम पर उपजाऊ ज़मीन छीनी जाने लगी, आदिवासी बेघर होने लगे, मज़दूरों की स्थिति ख़राब होने लगी, किसान आत्महत्या करने लगे और नक्सलियों का प्रभाव बढ़ने लगा. हालात ये हैं कि देश को लूटने वालों को छोड़कर हर व्यक्ति परेशान है.

यही वजह है कि जब जन लोकपाल का आंदोलन शुरू हुआ तो देश के हर कोने में लाखों लोग सड़कों पर उतरे. यह आंदोलन ऐतिहासिक था, लेकिन सरकार ने इसके महत्व को नहीं समझा. संसद में बैठे प्रजातंत्र के महाराजाओं ने इसे नौटंकी की संज्ञा दी. कुछ महान नेताओं ने यहां तक कहा कि देश का क़ानून सड़क पर बैठकर नहीं बनाया जाता. जन लोकपाल आंदोलन के नेता बेशक अन्ना हजारे थे, लेकिन इस आंदोलन के सूत्रधार अरविंद केजरीवाल थे. जन लोकपाल का रूप, संगठन, शक्तियां और उस पर क्या-क्या अंकुश होना चाहिए, यह सब तैयार करने में अरविंद केजरीवाल का अहम रोल रहा. प्रशांत भूषण जैसे विद्वान अधिवक्ता ने इसके क़ानूनी पक्ष को मज़बूती दी. लोगों को एकजुट करने और इंडिया अगेंस्ट करप्शन को संगठित करने का काम भी अरविंद ने ही किया. टीवी चैनलों में बहस हो, रैलियों में भाषण हो, आंदोलन के दौरान हर पल देश को संबोधित और सरकार की दलीलों को अपने तर्क से नेस्तनाबूद करके अरविंद केजरीवाल ने देश की जनता के दिलों में अपनी जगह बनाई है. टीम अन्ना के सदस्यों के अलावा देश भर में इंडिया अगेंस्ट करप्शन की पूरी फौज तैयार करके और उससे निरंतर बातचीत करके अरविंद केजरीवाल ने अपनी सांगठनिक योग्यता को साबित किया है. वह अपने भाषणों से एक ऐसे दूरदर्शी व्यक्ति नज़र आते हैं, जो भविष्य की राजनीति की एक सुंदर रेखा खींच रहा है. पार्टी में उम्मीदवारों का चुनाव कैसे हो, इस सवाल पर जब उनका जवाब होता है कि जनता चुनाव करेगी, तो किसी भी राजनीतिक पंडित को यह जवाब अटपटा सा लग सकता है. हो सकता है कि यह चुनाव मुश्किल हो, मुमकिन न हो, लेकिन जनता का चुना हुआ उम्मीदवार हो, यह सोच ही अपने आप में कायल करने वाली है. समझने वाली बात केवल इतनी है कि कम से कम कोई भ्रष्ट, अपराधी, चोर, डकैत, बलात्कारी, मूर्ख या बाप-दादा के कोटे से तो उम्मीदवार नहीं बनेगा. यही बदलाव है, क्योंकि फिलहाल जो राजनीतिक पार्टियां हैं, वे तो उम्मीदवार की जाति, उसका धनबल, उसका बाहुबल और उसका खानदान देखकर ही टिकट देती हैं.

अर्थशास्त्र के विद्वान प्रधानमंत्री भरोसा दिलाते रहे कि महंगाई अब कम होगी, तब कम होगी. वित्त मंत्री यही झूठे वायदे करते-करते राष्ट्रपति बन गए, लेकिन देश की जनता को महंगाई से निजात नहीं मिल पाई. ग़रीब तो ग़रीब, इस बार अमीरों को भी महंगाई परेशान कर गई. इस दौरान एक के बाद एक, बड़े से बड़े घोटालों का पर्दाफाश होता गया. जनता को समझ में आ गया कि मनमोहन सिंह की आर्थिक सुधार की नीति का नतीजा यह है कि देश में मंत्रियों, नेताओं, अधिकारियों एवं उद्योगपतियों के कई गिरोह तैयार हो चुके हैं, जो हर वक्त देश को लूटने में लगे हैं.

अरविंद केजरीवाल हरियाणा के रहने वाले हैं. उन्होंने आईआईटी खड़गपुर से मेकेनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई की. राजनीतिक और सामाजिक कार्यकर्ता बनने से पहले वह इंडियन रेवेन्यू सर्विस में कार्यरत थे. उन्होंने नौकरी छोड़कर परिवर्तन नामक एनजीओ का गठन किया, जिसका उद्देश्य सरकार के कामकाज में न्याय, जवाबदेही और पारदर्शिता लाना था. इसके तहत अरविंद केजरीवाल ने सूचना अधिकार क़ानून के माध्यम से दिल्ली सरकार के कई विभागों में भ्रष्टाचार का पर्दाफाश किया. सूचना के अधिकार का आंदोलन ज़मीन स्तर पर ले जाने के लिए उन्हें 2006 में मैगसेसे अवॉर्ड दिया गया. इसके बाद अन्ना हजारे के साथ मिलकर उन्होंने जन लोकपाल की लड़ाई शुरू की. दो साल तक जन लोकपाल की मांग को लेकर आंदोलन होते रहे. सरकार के साथ समझौता हुआ, टीम अन्ना और सरकार के मंत्रियों के बीच कई बैठकें हुईं, ताकि एक सशक्त लोकपाल बन सके. लेकिन सरकार ने टीम अन्ना के सुझाव ठंडे बस्ते में डाल दिए. टीम अन्ना ने लगभग सभी पार्टियों से बातचीत की, लेकिन किसी भी पार्टी ने जन लोकपाल का खुला समर्थन नहीं किया. वजह भी सा़फ है कि भ्रष्ट तंत्र का पालन-पोषण करने वाले और उससे फायदा उठाने वाले लोग भ्रष्टाचार को खत्म कैसे कर सकते हैं. इसके बाद अरविंद केजरीवाल को लगा कि अगर जन लोकपाल बनाना है तो उसके लिए संसद में संख्या बल की ज़रूरत पड़ेगी और जब तक ये राजनीतिक दल संसद में बहुमत में रहेंगे, तब तक भ्रष्टाचार के खिला़फ कोई कठोर क़ानून नहीं बन सकता है. इसलिए उन्होंने राजनीतिक दल बनाने का फैसला लिया. अन्ना हजारे राजनीतिक दल बनाने के पक्ष में नहीं हैं. इसलिए दोनों अलग हो गए. इस अलग होने का मतलब यह नहीं है कि दोनों दुश्मन बन गए हैं. अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल का मिशन एक है, लक्ष्य एक है, स़िर्फ रास्ते अलग-अलग हैं. अन्ना हजारे का मानना यह है कि आंदोलन के ज़रिए सरकार पर दबाव बनाया जा सकता है, जबकि अरविंद केजरीवाल को लगता है कि अब गिड़गिड़ाने से काम नहीं चलेगा, इन सारी पार्टियों को सत्ता से उखाड़ फेंकने के बाद ही पूरी व्यवस्था में बदलाव लाया जा सकता है. दरअसल, दोनों ही तरीक़े सही हैं.

एक राजनीतिक नेता में कुछ गुणों की आवश्यकता होती है, जिनमें लोकप्रियता, प्रामाणिकता, दूरदर्शिता, आत्मविश्वास, सेवाभाव, लचीलापन, ईमानदारी, जन समस्याओं के प्रति संवेदनशीलता और उनका समाधान निकालने की सूझबूझ आदि मुख्य हैं. हालांकि इन गुणों को एक साथ अगर हम मौजूदा राजनीतिक नेताओं में ढूंढना शुरू करें तो देश में सरकार चलाने वाली पार्टियों और विपक्षी पार्टियों में इक्का-दुक्का ऐसे नेता शायद मिलें, वरना देश में स्तरीय राजनीतिक नेताओं का बहुत बड़ा संकट है. हर राजनीतिक दल में बेईमान बहुत मिल जाएंगे, ईमानदार नहीं मिलेगा. लोकप्रिय भी मिल जाएंगे, लेकिन उनमें दूरदर्शिता नहीं मिलेगी. ऐसे नेता भी मिल जाएंगे, जिनमें आत्मविश्वास होगा, लेकिन वे जनता के प्रति संवेदनशील नहीं मिलेंगे. कहने का मतलब यह कि सर्वगुणसंपन्न नेता अब अजायबघर में ही मिलेंगे. अरविंद केजरीवाल ईमानदार हैं, पढ़े-लिखे हैं, उनमें दूरदर्शिता है, वह लोकप्रिय भी हैं. अन्ना से अलग होने के बाद जिस तरह वह ग़रीबों और मज़दूरों के लिए संघर्ष करते नज़र आते हैं, उससे यही लगता है कि वह जनता की समस्याओं के प्रति संवेदनशील हैं. उनकी किताब-स्वराज से यह भी समझ में आता है कि वह प्रजातांत्रिक मूल्यों में विश्वास करने वाले नेता हैं और सरकार की कार्यशैली में जवाबदेही एवं पारदर्शिता चाहते हैं. कई लोगों का मानना है कि अरविंद केजरीवाल को ज़्यादा सीटें नहीं मिलेंगी, क्योंकि चुनाव जीतने के  लिए काफी तिकड़म करने पड़ते हैं. सवाल चुनाव जीतने या हारने का नहीं है. यह शायद अरविंद केजरीवाल को भी पता हो कि अगले ही चुनाव में 272 सीटें नहीं मिलने वाली हैं. यहां मसला प्रजातंत्र में राजनीति के उद्देश्य का है. क्या देश में जनता की पक्षधर राजनीति नहीं होगी, क्या ग़रीबों एवं वंचितों के हक के लिए राजनीति नहीं होगी? जिस तरह आज़ादी के बाद से अब तक दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों, मुसलमानों, किसानों और मज़दूरों के साथ धोखा हुआ है, क्या उनके अधिकारों के लिए राजनीति नहीं होगी? वर्तमान में जिन पार्टियों के हाथ में देश और राज्यों की कमान है, उन्होंने इन सवालों को उठाना बंद कर दिया है. उन्होंने स़िर्फ और स़िर्फ कॉरपोरेट्‌स एवं उद्योगपतियों के लिए काम करने को ही शासन समझ लिया है.

मौजूदा राजनीतिक दलों में ऐसे नेताओं की कमी है, जो इन मुद्दों के प्रति संवेदनशील हों. ग़रीबों और वंचितों की राजनीति करने के लिए ज़मीन से जुड़े नेता होने चाहिए, जो इन राजनीतिक दलों के पास नहीं हैं. राजनीतिक दलों ने अच्छे नेता बनाना बंद कर दिया है. वंशवाद और भाई-भतीजावाद की बीमारी से ग्रस्त पार्टियों से ऐसी उम्मीद भी करना आज के जमाने में बेमानी है. राजनीतिक दल अगर पथभ्रष्ट हो जाएं तो क्या देश की जनता को उनके सुधरने का इंतज़ार करना चाहिए या फिर नए नेताओं को सामने आने का मौक़ा देना चाहिए?

दरअसल, मौजूदा राजनीतिक दलों में ऐसे नेताओं की कमी है, जो इन मुद्दों के प्रति संवेदनशील हों. ग़रीबों और वंचितों की राजनीति करने के लिए ज़मीन से जुड़े नेता होने चाहिए, जो इन राजनीतिक दलों के पास नहीं हैं. राजनीतिक दलों ने अच्छे नेता बनाना बंद कर दिया है. वंशवाद और भाई-भतीजावाद की बीमारी से ग्रस्त पार्टियों से ऐसी उम्मीद भी करना आज के जमाने में बेमानी है. राजनीतिक दल अगर पथभ्रष्ट हो जाएं तो क्या देश की जनता को उनके सुधरने का इंतज़ार करना चाहिए या फिर नए नेताओं को सामने आने का मौका देना चाहिए? राजनीतिक दलों की संवेदनहीनता और भ्रष्टाचार ने देश को विकट परिस्थितियों में लाकर खड़ा कर दिया है. देश और समाज पर जब भी संकट आता है तो लीडर पैदा होता है, यही नियम है. इसलिए भ्रष्टाचार के खिला़फ मुहिम से भविष्य के नेताओं का सृजन होना निश्चित है. अरविंद केजरीवाल इसी संकट काल की एक उपज हैं.

हो सकता है कि अरविंद केजरीवाल की कई बातों से लोग सहमत न हों. वैसे भी हर बात से सहमत होना ज़रूरी नहीं है. लालकृष्ण आडवाणी, सोनिया गांधी, नरेंद्र मोदी, नीतीश कुमार, ममता बनर्जी, मुलायम सिंह यादव एवं मायावती आदि भी देश के बड़े नेता हैं. उनकी कई बातों से हम सहमत नहीं होते, लेकिन फिर भी वे एक नेता ही हैं. यह देश का सौभाग्य है कि संकट की इस घड़ी में परंपरागत राजनीतिक क्षेत्र के बाहर से नए लोग नई ऊर्जा, नई सोच और नई कार्यशैली के साथ सामने आ रहे हैं. उनका तिरस्कार नहीं, स्वागत होना चाहिए. एक केजरीवाल की वजह से राजनीतिक दलों की नींद हराम हो गई. भ्रष्ट अधिकारियों को अब रिश्वत लेने में डर लगता है.

उद्योगपतियों से पैसे लेकर सरकारी आदेशों पर हस्ताक्षर करने वाले मंत्री और अधिकारी अब सतर्क हो गए हैं. भ्रष्टाचार को लेकर पूरे देश में जागरूकता बढ़ी है. जनता की मांगों को लेकर जगह-जगह आंदोलन हो रहे हैं. दिल्ली में शीला दीक्षित ने तो मानहानि का नोटिस भी दे दिया, लेकिन केजरीवाल के आंदोलन की वजह से सरकार को झुकना पड़ा, बिजली की बढ़ी हुई कीमतें कम करनी पड़ीं. जिस दिन हर राज्य में अरविंद केजरीवाल जैसे विकट नेता पैदा हो गए, उसी दिन से सत्ता चलाने वाले लोगों की मनमानी बंद हो जाएगी. इस देश को कई अरविंद केजरीवाल की ज़रूरत है.

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