एक बम दिल्‍ली खत्‍म

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प्रकृति बाद में तबाह करेगी, पर इंसानी ऩफरत, दुश्मनी और दुनिया में अपनी ताक़त का लोहा मनवाने की आतंकवादियों की चाह भारत में तबाही ले आएगी तथा दिल्ली और मुंबई पिघल जाएंगे. जयपुर, पटना, लखनऊ और भोपाल जैसे शहर इतिहास की चीज हो जाएंगे. सभी मरेंगे, चाहे हिंदू हों या मुसलमान या कोई और. हमला करने वाले योजना बनाकर हमला करेंगे, पर जिनके ऊपर बचाने की ज़िम्मेदारी है, हमारी सरकार, वह सोई है या बेहोश है. सरकार और सरकार का हिस्सा बना विपक्ष आज नहीं जागे और बचाव की तैयारियां नहीं कीं तो आतंकवादियों द्वारा किए जाने वाले एटमी हमले में दिल्ली में सरकार के साथ-साथ विपक्ष भी मर जाएगा. सच यह है कि हमारी सरकार आपराधिक बेहोशी में है और देश के अस्तित्व से खेल रही है.

delhi khatamभारत के चारों ओर न्यूक्लियर हथियारों का जमावड़ा हो रहा है. पाकिस्तान और चीन के पास हिंदुस्तान से ज़्यादा एटम बम हैं. कुछ रिपोर्ट यह भी बताती हैं कि बर्मा और बांग्लादेश भी परमाणु बम बनाने की कगार पर पहुंच चुके हैं. इन सबसे ज़्यादा ख़तरा आतंकवादियों से है, जिनके पास रेडिएशन फैलाने वाले बमों को बनाने की क्षमता है. साथ ही यह बात भी जगज़ाहिर हो चुकी है कि पूर्व सोवियत संघ के देशों से ग़ायब हुए न्यूक्लियर वारहेड्‌स आतंकियों तक पहुंच चुके हैं. भारत-पाकिस्तान के बीच बिगड़ते रिश्ते हों या फिर कोई सिरफिरा सेनाध्यक्ष पाकिस्तान की सत्ता पर क़ाबिज़ होकर युद्ध का ऐलान कर दे, अब यह कल्पना नहीं रही, आतंकवादियों का आसान निशाना भारत है. वे कभी भी दुनिया को आतंकित करने के लिए भारत में एटम बम का विस्फोट कर सकते हैं. इसके लिए देश की राजधानी दिल्ली और देश की आर्थिक लाइफ लाइन मुंबई सबसे बेहतर, सबसे आसान और सबसे प्रभावकारी स्थान हैं. अगर ऐसा होता है तो हमें जान लेना चाहिए कि क्या-क्या हो सकता है. पहले तो यही जानना चाहिए कि बम फटने के बाद क्या होता है, सब कुछ ख़त्म हो जाता है या फिर कुछ बचा भी रहता है, एक बम से कितने लोग मारे जाएंगे, एटम बम फटने के बाद बचाव का काम कैसे होता है और क्या हमारी सरकार ऐसी स्थिति से निपटने के लिए तैयार है?

ज़ाहिर है, पाकिस्तान या आतंकवादी अगर इस बम को चलाएंगे तो पंजाब के खेतों पर नहीं चलाएंगे. उसके निशाने पर दिल्ली-मुंबई होगी. यह ख़तरा हमारे सामने तो है, लेकिन इससे निपटने की तैयारी ऐसी है कि बम धमाके में मरने वाले दस में से नौ लोगों की मौत धमाके से नहीं, बल्कि उपचार की कमी और अव्यवस्था की वजह से होगी. अगर बम का निशाना कनॉट प्लेस हुआ तो पहाड़गंज, करोलबाग, राजेंद्र नगर, आईटीओ, पुरानी दिल्ली के चांदनी चौक, जामा मस्जिद, बल्लीमारान, फतेहपुरी, तुर्कमान गेट, मटिया महल एवं सीताराम बाजार और लुटियन जोन में राष्ट्रपति भवन, संसद, सांसदों व सचिवों के घर, सेना मुख्यालय, ऑल इंडिया मेडिकल इंस्टीट्यूट, आईटीओ सहित पूरे क्षेत्र में कुछ भी नहीं बचेगा. इस इलाक़े की सारी इमारतें ध्वस्त हो जाएंगी. पूरी दिल्ली में तबाही का ऐसा मंजर नज़र आएगा, जो इंसानी सोच के दायरे से बाहर है. इस एक बम का असर दिल्ली के सभी इलाक़ों के साथ-साथ मेरठ, नोएडा, गुड़गांव एवं फरीदाबाद जैसे शहरों पर भी होगा. यहां भी लोगों की जानें जाएंगी. फेडरेशन ऑफ अमेरिकन साइंटिस्ट के मुताबिक़, पाकिस्तान के पास नौ हज़ार से बारह हज़ार टन टीएनटी वाले शक्तिशाली एटम बम हैं. अमेरिका ने जापान पर जो एटम बम गिराए थे, उनकी शक्ति स़िर्फ तेरह और अट्ठारह टन टीएनटी थी. इसमें अस्सी हज़ार लोगों की मौत हुई थी. दिल्ली की आबादी डेढ़ करोड़ से भी ज़्यादा है, जो हिरोशिमा की आबादी के मुक़ाबले काफी ज़्यादा घनी है, इसलिए यहां ज़्यादा तबाही होगी. जापान के मुक़ाबले यहां ज़्यादा लोगों की मौत होगी.

न्यूक्लियर साइंटिस्ट बताते हैं कि अगर एटम बम स़िर्फ एक मेगा टन का है, तो जिस जगह पर वह गिरेगा, वहां से छह मील के दायरे में जितने भी लोग होंगे, उनकी मौत गामा किरणों से होगी. धमाका होते ही वे लोग धुएं में तब्दील हो जाएंगे. पलक झपकते ही उनका अता-पता नहीं चलेगा. उन्हें यह भी पता नहीं चल पाएगा कि उनके साथ क्या हुआ है, क्योंकि जब तक उन्हें पता चलेगा कि क्या हुआ है, तब तक वे गामा किरणों की वजह से पिघल चुके होंगे. एटमी हमले में जो लोग इस छह मील के अंदर होंगे, उनकी क़िस्मत अच्छी होगी, वरना इसके बाद जो कुछ होगा, वह अत्यंत ही ख़ौ़फनाक और दर्दनाक होगा.

जो लोग शक्तिशाली गामा किरणों से बच जाएंगे, उनके लिए ज़िंदगी एक अभिशाप बन जाएगी. जब एटम बम का विस्फोट होता है तो एक बड़ा सा आग का गोला बनता है. इस गोले के दायरे में आने वाली हर चीज पिघल जाती है. इस गोले से जो रोशनी निकलती है, वह कई सूरज की रोशनी से ज़्यादा होती है. इससे कोई फर्क़ भी नहीं पड़ेगा कि आंखें बंद हैं या खुली, यह रोशनी हर किसी को अंधा बना देती है. एक मेगा टन के एटम बम से जो रोशनी निकलती है, उसे अगर पचास मील की दूरी से कोई देख ले तो इसके  बाद वह जीवन में फिर कभी कोई साफ तस्वीर देखने लायक़ नहीं बचेगा. उसकी आंखें जीवन भर के लिए धुंधली हो जाती हैं. इसके साथ ही इलाक़े में आग की आंधी चलती है. इस हीट वेब के दौरान हवा का दबाव इतना बढ़ जाता है कि इसके रास्ते में आने वाली हर चीज तबाह हो जाती है. धमाके के साथ ही आंधी चलती है, जो कई सौ किलोमीटर की रफ्तार की होती है, जो अपने साथ रास्ते में पड़े सामानों को उड़ा ले जाती है. इससे लोगों की मौत होती है और साथ ही घायल भी होते हैं. धमाके के चारों तऱफ सौ वर्ग मील के क्षेत्र में तबाही मच जाती है. पूरे इलाक़े में अफरातफरी मचना लाज़िमी है. इससे भी ख़तरनाक स्थिति तब पैदा होती है, जब विस्फोट के बाद फैला रेडिएशन कई किलोमीटर इलाक़े को अपनी चपेट में ले लेता है. यह रेडिएशन इसलिए ख़तरनाक हो जाता है, क्योंकि यह इलाक़े में मौजूद धूल में मिल जाता है और हवा के ज़रिए कई मील क्षेत्र तक फैल जाता है. इसके बाद यह धीरे-धीरे ज़मीन पर गिरने लगता है. फिर उसके बाद शुरू होता है मौत का ऐसा ख़तरनाक खेल, जिसके बारे में सोचने भर से इंसान कांप उठता है. रेडिएशन की वजह से शरीर के अंदर की मोलिक्युलर संरचना टूटने लगती है. जो भी लोग उस इलाक़े में मौजूद होते हैं, उन्हें उल्टियां होने लगती हैं. पूरे शरीर में फोड़े पड़ने लगते हैं. त्वचा गलने लगती है. सिर के बाल गिरने लग जाते हैं. हर इंसान को ऐसी प्यास लगने लगती है, जिसे पानी भी मिटा नहीं पाता. ऐसा महसूस होने लगता है कि ऐसी ज़िंदगी से तो मौत बेहतर है.

हिरोशिमा और नागासाकी में एटमी हमले के बाद हुए रिसर्च से यह साबित हुआ है कि रेडिएशन से लोगों के दिमाग़ पर भी असर पड़ता है. रेडिएशन से नर्व कोशिकाओं और वेसेल्स को नुक़सान पहुंचता है. रेडिएशन का प्रभाव अगर ज़्यादा है तो लोगों की मौत भी हो जाती है. थायराइड ग्लैंड पर भी रेडिएशन का बुरा असर पड़ता है. जो लोग रेडिएशन की चपेट में आ जाते हैं, उनका ख़ून भी प्रदूषित हो जाता है. उनके ख़ून में लिम्फोकाइट सेल की कमी हो जाती है, जिससे शरीर में इंफेक्शन होने का ख़तरा बढ़ जाता है और यह ख़तरा कई सालों तक बना रहता है.

ऐसा नहीं है कि रेडिएशन के तत्काल ख़त्म होने के बाद सब कुछ ठीक हो जाता है. बम धमाके के कई सालों बाद तक रेडिएशन का असर जारी रहता है. धमाके के दस साल बाद तक लोगों को ल्यूकेमिया और कैंसर जैसी बीमारी होती रहती है. जापान में हुए रिसर्च के मुताबिक़, धमाके के दस साल बाद भी ख़ून की बीमारी होती रही, लोगों को एनिमिया सताता रहा. हिरोशिमा और नागासाकी में जो लोग बम धमाके में बच गए, कई सालों बाद भी उनके सिर के बाल गिरते रहे. जो लोग इस धमाके के बाद ज़िंदा बच जाते हैं, उनकी आने वाली कई नस्लें तबाह हो जाती हैं.

एक मेगा टन के एटम बम के धमाके से जो आग का गुब्बारा बनता है, वह ज़मीन से दस मील की ऊंचाई तक पहुंच जाता है और इतने ही वर्ग मील में फैल जाता है. यानी अगर एटम बम का केंद्र दिल्ली का कनाट प्लेस हुआ तो ओखला, मयूर विहार, प्रीत विहार, पंजाबी बाग, राजौरी गार्डेन, आर के पुरम, ग्रेटर कैलाश, मालवीय नगर, मॉडल टाउन एवं आज़ादपुर आदि रिंग रोड के अंदर और इससे सटे इलाक़ों में इसका सबसे ज़्यादा और ख़तरनाक असर होगा. ऐसा नहीं है कि इसके बाहर के इलाक़ों में कुछ नहीं होगा. इसके बाहर भी लोग रेडिएशन की चपेट में आएंगे, लेकिन मरने वालों की संख्या कम होगी. बचाव और सुरक्षा के काम की ज़रूरत इन्हीं इलाक़ों में पड़ेगी. विस्फोट के कुछ देर बाद दस वर्ग मील के इलाक़े में फैला यह गुब्बारा स़फेद रंग का बन जाता है, क्योंकि इसके अंदर और बाहर के पानी का वाष्प जमने लगता है. क़रीब एक घंटे के बाद यह गुब्बारा नीचे उतरने लगता है, जिसकी वजह से ज़मीन पर कुछ भी देखना मुश्किल हो जाता है. कितने लोग मर चुके हैं और जो ज़िंदा भी बचे हैं, वे कहां हैं, यह पता लगाना मुश्किल हो जाता है. आसमान से रेडियो एक्टिव बादलों की वजह से रेडिएशन का फैलाव हो जाता है. सबसे बड़ी समस्या यह है कि इस क्षेत्र में बचाव का काम इसलिए नहीं हो सकता, क्योंकि इस क्षेत्र में जो भी जाएगा, ख़ुद रेडिएशन का शिकार हो जाएगा.

रेडियो एक्टिव ज़ोन में जाने के लिए मून शूट की ज़रूरत होती है. हैरानी की बात यह है कि हमने दिल्ली के जितने भी डाक्टरों से बातचीत की, उनका कहना यही था कि दिल्ली में मून शूट कहां हैं, यह किसी को पता नहीं है. इसलिए यह माना जा सकता है कि दिल्ली में मून शूट नहीं हैं और अगर हैं भी तो वे डॉक्टरों एवं राहतकर्मियों की पहुंच के बाहर हैं. वैसे भी हर तऱफ मची अफरातफरी में रेडियो एक्टिव बादलों की पहचान करने की बात शायद ही किसी के दिमाग़ में आए. अगर कोई रेडिएशन के बारे में सोच भी ले तो उससे भी कुछ फायदा नहीं होने वाला है, क्योंकि हक़ीक़त यह है कि शहर को एटमी हमले की विपदा से उबारने के लिए दिल्ली के अस्पताल तैयार नहीं हैं. राजधानी में 60 बड़े अस्पताल हैं, जिनमें दिल्ली सरकार के अंतर्गत 25 और केंद्र सरकार के तहत 11 हैं और 24 निजी अस्पताल हैं. छोटे-बड़े कुल मिलाकर राजधानी में 750 अस्पताल हैं. इन अस्पतालों में रेडिएशन से निपटने के इंतज़ाम न के बराबर हैं. सोचने वाली बात यह है कि ज़्यादातर अस्पताल शहर के बीचोंबीच हैं, जो एटमी हमले में ख़ुद ही नष्ट हो जाएंगे. ऐसे हालात में हमले के बाद दिल्ली के लोगों का क्या होगा, उनकी मदद के लिए कौन आएगा? कोई मदद करना चाहे भी तो रेडिएशन की वजह से जा नहीं पाएगा. घायलों का क्या होगा? ऐसे ही तमाम सवाल दिल और दिमाग़ को झकझोर देते हैं, लेकिन इन सवालों पर सरकार ने अब तक शायद ध्यान नहीं दिया है. ऐसी परिस्थिति में सरकार हाथ खड़े कर देगी, दिल्ली के लोगों को चिकित्सा सेवाओं के लिए आसपास के शहरों के डॉक्टरों और अस्पतालों के सहारे छोड़ दिया जाएगा, जहां न तो प्रशिक्षित डॉक्टर हैं और न ही रेडिएशन से फैली बीमारियों का इलाज.

चौथी दुनिया की तहक़ीक़ात के दौरान यह पता चला कि दिल्ली के एम्स हॉस्पिटल के ट्रॉमा सेंटर की तीसरी मंज़िल पर रेडिएशन और केमिकल के प्रकोप से बचने के लिए एक सेंटर बनाया गया है. इस सेंटर के पास तीन कमरे हैं, लेकिन वह पूरी तरह से तैयार नहीं है. इस सेंटर में ताला लगा है. बताया गया कि इसे कॉमनवेल्थ गेम्स तक तैयार कर लिया जाएगा. अब पता नहीं कि कॉमनवेल्थ गेम्स का केमिकल और रेडिएशन की बीमारी से क्या रिश्ता है. वैसे सरकार ने इस सेंटर के उद्घाटन के लिए काफी प्रचार-प्रसार किया था. सरकार की तैयारी क्या है, इसकी पोल तब खुल गई, जब दिल्ली के मायापुरी इलाक़े में किसी स्क्रैप में मौजूद कोबाल्ट के रेडिएशन से तीन-चार लोग नीले पड़ गए. इन लोगों को इसी सेंटर में लाया गया था. सेंटर तैयार नहीं था. जाहिर है, ट्रॉमा सेंटर के डॉक्टरों ने इन मरीज़ों का इलाज करने की कोशिश की. 28 अप्रैल को हुई घटना के दौरान एम्स के डॉक्टरों को यह समझ में नहीं आ रहा था कि रेडियो एक्टिव मरीज़ों का इलाज कैसे किया जाए. इस छोटे से केस को सही तरीक़े से निपटाने में असफल रहे डॉक्टरों पर नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी के अधिकारी नाराज़ हो गए. इसके बाद इन अधिकारियों ने भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर से मदद ली. सरकार चलाने का हमारे देश में अंदाज़ भी सरकारी है. डिजास्टर मैनेजमेंट की कलई खुली तो उसके अधिकारियों ने यह हवाला दे दिया कि केमिकल, बायोलॉजिकल, रेडियोलॉजिकल व न्यूक्लियर गाइड लाइन 2007 में ही जारी कर दी गई थी, जिसकी 500 कॉपियां सभी संस्थानों को भेज दी गई थीं. अब सवाल यह है कि जब नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी ने इतना बड़ा काम कर ही दिया था तो कोबाल्ट के मरीज़ों के साथ-साथ एम्स के डॉक्टर क्यों नीले पड़ गए, इलाज करने में उनके हाथ-पांव क्यों फूल गए?

एटमी बम के हमले के बाद फैले रेडिएशन के असर और मरीज़ों के उपचार की व्यवस्था की तहक़ीक़ात के दौरान यह पता चला कि दिल्ली में सरकार के तीन आपदा प्रबंधन केंद्र हैं. पूरी दिल्ली में स़िर्फ 150 ऐसे लोग हैं, जिन्होंने आपदा प्रबंधन की ट्रेनिंग ली है. इन तीनों सेंटरों में एक समय पर स़िर्फ 15 लोग ही तैनात रहते हैं, जो बिल्कुल न के बराबर है. हमने पुलिस अधिकारियों से बात की. इन सेंटरों पर तैनात अधिकारियों से जब पूछा गया कि एटमी बम के हमले को झेलने के लिए ये सेंटर कितने सक्षम हैं तो वे सन्न रह गए. सभी अधिकारियों ने यह माना है कि वर्तमान में जो व्यवस्था है, वह ऐसे हमले में किसी भी काम नहीं आएगी. इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के पूर्व चेयरमैन एवं दिल्ली मेडिकल एसोसिएशन के सदस्य डॉ. अनिल बंसल से जब हमने पूछा कि एटमी हमले के बाद लोगों के इलाज के लिए दिल्ली कितनी तैयार है, तो उनका जवाब था कि बम फटने के बाद यहां कुछ नहीं किया जा सकता है. रेडिएशन से बचने के लिए ट्रीटमेंट हैं नहीं हमारे पास. रेडिएशन होने से तत्काल असर होता है, इसके लिए विशेष ट्रीटमेंट की ज़रूरत पड़ती है, जो हमारे पास उपलब्ध नहीं है. विशेष तरीक़े से प्रशिक्षित डॉक्टरों और असिस्टेंट की ज़रूरत पड़ती है. इसके अलावा अलग तरह के मास्क, कवर्स आदि की ज़रूरत पड़ती है और डे़ढ करोड़ लोगों के इलाज के लिए हमारे पास सामान्य व्यवस्था भी नहीं है. जब रेडिएशन होता है तो जिसका जो नुक़सान होना होता है, वह तो हो चुका होता है. रेडिएशन के इफेक्ट को ट्रीट करने के लिए विशेष गार्ड और सिक्योरिटी होते हैं. डॉक्टरों को भी अपनी जान बचाने के लिए स्पेशल किट पहननी पड़ती है, जो ज़्यादातर अस्पतालों में मौजूद नहीं है. जहां है भी, वहां भी बहुत ही कम संख्या में है. बड़े स्तर पर ऐसे प्रभावों से निपटना बहुत मुश्किल है. डॉक्टरों के बचाव के लिए मास्क, गाउन एवं ग्लोब की ज़रूरत होती है, जिससे रेडियो एक्टिव तत्व चिकित्सक के शरीर पर असर न कर पाएं. इसके अलावा जो मरीज़ होते हैं, उन्हें भी वे चीजें पहननी पड़ती हैं, ताकि उनके शरीर से निकलने वाले रेडिएशन किसी और को नुक़सान न पहुंचा सकें. अस्पतालों में भी इस तरह के ट्रीटमेंट के लिए स्पेशल वार्ड होने चाहिए. जाहिर है, डॉक्टर बंसल की बातों से यही लगता है कि एटमी हमले के बाद की स्थिति ऊपर वाले के ही भरोसे रहेगी.

अगर यह हमला मुंबई में हुआ तो स्थिति और भी ख़तरनाक हो जाएगी, क्योंकि वहां की आबादी दिल्ली से भी ज़्यादा घनी है. सबसे बड़ी द़िक्क़त मुंबई के आकार से होगी. मुंबई दिल्ली की तरह चारों तऱफ फैला नहीं है. मुंबई एक टापू की तरह है. इसके तीन तऱफ समंदर है और एक तऱफ नदी है. एटमी हमले के बाद मची तबाही और शहर में फंसे लोगों को बचाने और सामान पहुंचाने के रास्ते कम हैं. अगर नदी पर बने पुलों को क्षति पहुंचती है तो फिर मुंबई में फंसे लोगों को बचाने में काफी द़िक्क़तें होंगी. मदद के इंतज़ार में ही लोग दम तोड़ते रहेंगे. इसके अलावा समंदर का पानी रेडिएशन की चपेट में आ जाएगा, जिसका असर कई दशकों तक नज़र आएगा. देश की अर्थव्यवस्था की कमर टूट जाएगी, जिसका असर पूरा देश महसूस करेगा. मुंबई और दिल्ली बड़े शहर हैं. इनका फैलाव इतना है कि एटमी हमले के बावजूद यहां पर लोग ज़िंदा बच जाएंगे, लेकिन पटना, जयपुर, भोपाल, बनारस एवं लखनऊ जैसे शहरों पर अगर यह हमला होता है तो पलक झपकते ही ये शहर इतिहास बन जाएंगे.

यह हैरानी की बात है कि एटमी हमले का ख़तरा देश के सामने मंडरा रहा है, लेकिन सरकार ने अब तक ऐसी स्थिति से निपटने के लिए न तो कोई तैयारी की है और न ही कोई योजना बनाई है. आतंकवादियों ने अगर यह हमला किया तो वह अचानक ही होगा. अगर पाकिस्तान से मिसाइल के ज़रिए हमला होता है तो किसी भी मिसाइल को दिल्ली पहुंचने में दस मिनट से ज़्यादा समय नहीं लगेगा. हमारे पास सौ फीसदी फुलप्रूफ रडार भी नहीं हैं, जो पाकिस्तान या किसी भी देश से आने वाले मिसाइल की पहले ही पहचान कर सकें. जो रडार हमारे पास हैं, वे यह तो बता सकते हैं कि कोई मिसाइल या फाइटर प्लेन हमारी सीमा में घुस गया है, लेकिन इस बात का कतई पता नहीं चल सकता है कि वह प्लेन या मिसाइल परमाणु हथियार से लैस है या नहीं. मतलब यह कि जो कुछ होगा, अचानक होगा. किसी को कानोंकान ख़बर नहीं होगी और परमाणु बम मौत का बादल बनकर छा जाएगा. ज़िंदा बचे लोगों को बचाने के लिए सरकार के पास व़क्त नहीं होगा. अगर हम पहले से तैयार नहीं हैं तो हमारे देश में मौत का मंजर हिरोशिमा और नागासाकी से कई गुना दर्दनाक और ख़तरनाक होने वाला है.

हम इन सवालों को इसलिए नहीं उठा रहे हैं कि परमाणु हथियार अच्छे हैं या बुरे या फिर इनका इस्तेमाल जायज़ है या नहीं. ख़तरा हमारे सामने है. पड़ोसियों के पास शक्तिशाली बम हैं, मिसाइलें हैं. जिनके पास नहीं हैं, वे कुछ ही साल में हासिल भी कर लेंगे. अब तो यह हक़ीक़त है कि आतंकवादियों के हाथों में परमाणु बम आ चुका है. इन बमों का इस्तेमाल अमेरिका या फ्रांस पर नहीं होने वाला है. इन हथियारों का इस्तेमाल भारत के ख़िला़फ होना है. हम तो यही चाहते हैं कि ऐसा न हो, लेकिन हमें इस विपदा से निपटने के लिए तैयार तो रहना पड़ेगा. हम सरकार से यह पूछना चाहते हैं कि परमाणु हथियारों को लेकर हमारे पास यह जानकारी है. अगर यह ग़लत है तो सरकार इसे ग़लत साबित करे. अगर सही तो इसके लिए अब तक कोई तैयारी क्यों नहीं है? कामनवेल्थ के नाम पर हम इतना कुछ ख़र्च कर सकते हैं, लेकिन देश के सामने मंडरा रहे ख़तरों के बारे में सरकार क्यों चिंतित नहीं है? हम यह सवाल इसलिए उठा रहे हैं कि ये देश के नागरिकों की सुरक्षा एवं बचाव के सवाल हैं. हमारी यह चिंता नहीं है कि एटमी हमले के बाद भारत क्या करेगा या फिर पाकिस्तान के कितने शहरों पर हमारी सेना एटम बम गिराएगी. लेकिन अगर भारत सरकार उन दस मिनटों में पाकिस्तान पर एटमी हमला कर देती है तो लाहौर, इस्लामाबाद, रावलपिंडी और कराची न केवल पूरी तरह तबाह हो जाएंगे, बल्कि इतिहास का हिस्सा उसी तरह बन जाएंगे, जैसे हम बनेंगे. उस स्थिति में न सरकारें बचेंगी और न आतंकवादी. भारत की एटमी शक्ति पाकिस्तान से बहुत ज़्यादा है. लेकिन पाकिस्तानी एटमी हथियार अमेरिका की कितनी भी निगरानी में हों, जुनूनी आतंकवादियों की पहुंच से बहुत दूर नहीं है. इस सवाल पर दोनों सरकारों को अपनी-अपनी जनता को बचाने के लिए बच्चों की तरह लड़ना छोड़ ईमानदार और गंभीर क़दम फौरन उठाने चाहिए.

 

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