देश को बचाने का यह आखिरी मौका है

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देश का प्रजातंत्र खतरे में है. देश चलाने वालों ने झूठ बोलने, धोखा देने और मर्यादाओं को लांघने को ही राजनीति समझ लिया है. नतीजा यह हुआ कि संसद में नेता झूठ बोलने लगे हैं और सदन में सर्वसम्मति बनाकर जनता के साथ धोखा किया जाने लगा है. सरकार ऐसी-ऐसी नीतियां बना रही है, जिससे सा़फ ज़ाहिर होता है कि संविधान को ही ताक़ पर रख दिया गया है.

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इस बात से कौन इंकार कर सकता है कि भारत को जितना अंग्रेजों ने नहीं लूटा, उससे ज़्यादा देश चलाने वालों ने 65 सालों में इसे लूट लिया. इस लूट में राजनीतिक दलों के नेता,   अधिकारी, बिजनेस मैन और माफिया, सब शामिल हैं. देश को स़िर्फ लूटा ही नहीं, बल्कि सब कुछ तबाह कर दिया गया. लूटने वालों की भूख अब भी खत्म नहीं हुई है, बल्कि यह और भी तेज़ हो गई है. वे लूटने की नई-नई तरकीबें बनाते हैं. देश आज दो हिस्सों में विभाजित हो गया है. एक तऱफ वे हैं, जो वर्तमान व्यवस्था से फायदा उठा रहे हैं और दूसरी तऱफ वे जो इस व्यवस्था की वजह से तबाह हो गए हैं. एक तऱफ चंद परिवार हैं, तो दूसरी तऱफ देश का आम आदमी. एक तऱफ सारे राजनीतिक दल हैं, तो दूसरी तऱफ विपक्ष में खड़ा जनमानस. सवाल यह है कि ऐसा कब तक चलता रहेगा?
देश का प्रजातंत्र खतरे में है. देश चलाने वालों ने झूठ बोलने, धोखा देने और मर्यादाओं को लांघने को ही राजनीति समझ लिया है. नतीजा यह हुआ कि संसद में नेता झूठ बोलने लगे हैं और सदन में सर्वसम्मति बनाकर जनता के साथ धोखा किया जाने लगा है. सरकार ऐसी-ऐसी नीतियां बना रही है, जिससे सा़फ ज़ाहिर होता है कि संविधान को ही ताक़ पर रख दिया गया है. चीफ मिनिस्टर का बेटा चीफ मिनिस्टर, मिनिस्टर का बेटा मिनिस्टर और सांसद का बेटा सांसद. इस तरह लगभग सारे राजनीतिक दल किसी न किसी परिवार की जागीर बन गए हैं. परिवारवाद से ग्रसित प्रजातंत्र के ठेकेदारों ने पूरे तंत्र को नष्ट कर दिया है. सरकारें बनती हैं और नेता अधिकारियों के साथ मिलकर स़िर्फ देश के संसाधनों को लूटने में लग जाते हैं. नियम और क़ानून को तोड़-मरोड़ कर उद्योगपतियों को फायदा पहुंचाया जाता है. अ़फसोस की बात है कि संसद और विधानसभा जैसे संस्थान भी लूट के हिस्सेदार बन गए हैं.
 
समझने वाली बात यह है कि जब से मनमोहन सिंह ने देश में नव उदारवादी नीतियों को लागू किया, तब से देश में शोषण बढ़ा, राष्ट्रीय संसाधनों की लूट बढ़ गई, महंगाई पर किसी का नियंत्रण नहीं रहा, सरकारी तंत्र भ्रष्टाचार की गिरफ्त में आ गया, दिमाग़ हिला देने वाले एक से बढ़कर एक घोटाले होने लगे. अमीर पहले से कई गुणा ज़्यादा अमीर बन गए और ग़रीब पहले से ज़्यादा ग़रीब होते चले गए. सरकार विकास के नाम पर किसानों की ज़मीन छीनकर निजी कंपनियों को देने लगी है. सड़कों का नियंत्रण निजी कंपनियों को दिया जाने लगा. सरकार ने नदियों कापानी भी बेचना शुरू कर दिया. खनिज और खनन के नाम पर विदेशी और निजी कंपनियों को ़फायदा पहुंचाने के लिए जंगलों का इस्तेमाल किया जाने लगा. मज़दूरों की जगह मशीनों ने ले ली. जनसंख्या बढ़ती चली गई, लेकिन उसके लिए कोई इंतज़ाम नहीं हो सका. बेरोज़गारी बढ़ गई. किसान की हालत पहले से बुरी होती चली गई. किसानों की आत्महत्या के मामलों ने सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए. कहने का मतलब यह कि वर्ष 1991 से देश में जो आर्थिक नीति अपनाई गई, उससे देश की जनता के जीवन पर बुरा असर पड़ा. लोग परेशान हो गए. इस आर्थिक नीति का ़फायदा स़िर्फ बड़ी-बड़ी कंपनियों को ही हुआ.
 
सरकार ने किस तरह निजी कंपनियों को फायदा पहुंचाया, इसका एक नमूना देखिए. यूपीए सरकार ने 2005-06 में कॉरपोरेट टैक्स में 34614 करोड़ रुपये की छूट दी, एक्साइज ड्यूटी में 66760 करोड़ रुपये और कस्टम ड्यूटी में 127730 करोड़ रुपये की छूट दी. मतलब यह कि सरकार ने 2005-2006 में 229108 करोड़ रुपये का ़फायदा कंपनियों को पहुंचाया. वह 2006-07 में निजी, विदेशी और अन्य कंपनियों को फायदा पहुंचाने में पहले से अधिक तत्पर दिखाई दी. वर्ष 2006-07 में 50075 करोड़ रुपये कॉरपोरेट टैक्स, 99690 करोड़ रुपये एक्साइज ड्यूटी और कस्टम ड्यूटी के रूप में 123682 करोड़ रुपये की छूट दी गई. कंपनियों को मिलने वाला यह ़फायदा पिछले साल से बढ़कर अब 273447 करोड़ रुपये हो गया. इसके बाद साल 2007-08 आया और कंपनियों को मिलने वाली छूट बढ़कर 303260 करोड़ रुपये हो गई, जिसमें 62199 करोड़ कॉरपोरेट टैक्स, 87468 करोड़ एक्साइज ड्यूटी और 153593 करोड़ रुपये कस्टम ड्यूटी शामिल हैं. यह उस समय की बात है, जब सरकार लगातार किसानों को मिलने वाली सब्सिडी ़खत्म कर रही थी और यह दलील दी जा रही थी कि इसके  लिए सरकार के पास पैसे नहीं हैं. मनमोहन सिंह ने जब प्रधानमंत्री की कुर्सी संभाली, तब उन्होंने कहा था कि देश के संसाधनों पर पहला हक़ देश के अल्पसंख्यकों का है, लेकिन ये आंकड़े बताते हैं कि सरकार बोलती कुछ है और करती कुछ है. ये आंकड़े यूपीए सरकार के  आंकड़े हैं,  जिसे  वह बजट के रूप में हर साल संसद में पेश करती आई है. हैरानी इस बात से भी है कि सरकार ग़रीबों और आम आदमी का हक़ काटकर अमीर कंपनियों और उसके मालिकों को फायदा पहुंचाती रही, लेकिन दूसरी पार्टियों ने इस पर सवाल नहीं उठाया.
सरकार ने किस तरह निजी कंपनियों को फायदा पहुंचाया, इसका एक नमूना देखिए. यूपीए सरकार ने 2005-06 में कॉरपोरेट टैक्स में 34614 करोड़ रुपये की छूट दी, एक्साइज ड्यूटी में 66760 करोड़ रुपये और कस्टम ड्यूटी में 127730 करोड़ रुपये की छूट दी. मतलब यह कि सरकार ने 2005-06 में 229108 करोड़ रुपये का फायदा कंपनियों को पहुंचाया.
दुनिया में सबसे ज़्यादा भूख से मरने वाले लोगों के इस देश में लूट-खसोट और उद्योग जगत को फायदा पहुंचाने का काम यहीं खत्म नहीं हुआ. अब तक हमने आपको 2007-08 के आंकड़े बताए. अब ज़रा 2008-09 के आंक़डे को देखिए. इस बार कॉरपोरेट जगत को ़फायदा पहुंचाने में सरकार ने सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए. पिछले साल की तुलना में 117686 करोड़ रुपये की वृद्धि हुई. इस साल सरकार ने कंपनियों को 420946 करोड़ रुपये का फायदा पहुंचाया. इसमें कॉरपोरेट टैक्स के रूप में 66901 करोड़ रुपये, एक्साइज ड्यूटी के रूप में 128293 करोड़ रुपये और कस्टम ड्यूटी के रूप में 225752 करोड़ रुपये का ़फायदा पहुंचाया गया. देश में एक तऱफ महंगाई से लोग त्रस्त थे, तो दूसरी तऱफ लगातार अमीर हो रहे उद्योग जगत के मालिकों को छूट पर छूट दी जा रही थी. अगला साल आया तो उद्योग जगत को और भी छूट दी गई. वर्ष 2009-2010 में कॉरपोरेट टैक्स के रूप में 72881 करोड़ रुपये, एक्साइज ड्यूटी के रूप में 169121 करोड़ रुपये और कस्टम ड्यूटी के रूप में 195288 करोड़ रुपये मा़फ किए गए. कुल मिलाकर कॉरपोरेट जगत को 437290 करोड़ रुपये की छूट दी गई. अब देखते हैं कि 2010-11 में क्या हुआ? इस साल कुल छूट बढ़कर 460972 करोड़ रुपये हो गई. इसमें 88263 करोड़ रुपये कॉरपोरेट टैक्स के रूप में मा़फ कर दिए गए, जबकि एक्साइज ड्यूटी के रूप में 198291 करोड़ रुपये और कस्टम ड्यूटी के रूप में 174418 करोड़ रुपये की छूट दी गई. इन आंकड़ों को बजट में स्टेटमेंट ऑफ रेवेन्यू फारगोन के टेबल में बताया जाता रहा है. जो लोग देश के गांवों और ग़रीबों की हालत जानते हैं, वे कॉरपोरेट जगत को मिलने वाली छूट को किसी भी तरह से सही नहीं ठहरा सकते. भारत जैसे ग़रीब देश में कॉरपोरेट जगत को दी जाने वाली छूट शर्मनाक है. इसे हम घोटाला नहीं कह सकते, क्योंकि इसे बाक़ायदा बजट में शामिल करके संसद में पारित कराया गया है. सीधा सवाल यही उठता है कि यह सरकार किसकी है? यह संसद किसकी है? यहां किसके फायदे के लिए फैसले लिए जाते हैं? यह सरकार आम जनता के लिए है या फिर लोकतंत्र का नाटक स़िर्फ और स़िर्फ कॉरपोरेट जगत को फायदा पहुंचाने के लिए है? भारत जैसे ग़रीब देश में उद्योग जगत को मिलने वाली इस छूट को सही ठहराने वाली दलीलें अमानवीय मानी जाएंगी. किसी भी प्रजातंत्र में ऐसा कैसे हो सकता है कि एक तऱफ किसान आत्महत्या कर रहे हों, बच्चे भूख से मर रहे हों और सरकार यह कह रही हो कि उसके पास संसाधन नहीं हैं, जबकि दूसरी तऱफ वह उद्योगपतियों को इस तरह छूट पर छूट दे रही है.
प्रजातंत्र का यह कैसा रूप है, जिसमें ग़रीबों और शोषितों की समस्याओं का कोई मूल्य नहीं है. उनके उद्धार के लिए कोई एजेंडा नहीं है. यह जनता द्वारा चुनी हुई कैसी सरकार है, जो आम आदमी की बेहतरी की बात पर हाथ खड़े कर देती है? अर्थशास्त्र का यह कौन सा ज्ञान है, जिसने सरकार को यह सिखा दिया है कि ग़रीबों का हक़ मारकर अमीरों को ़फायदा पहुंचाया जाए. उदारवाद का यह कौन सा रूप है, जिसमें सरकार के पास जन वितरण प्रणाली चलाने के लिए पैसे नहीं हैं, लेकिन कॉरपोरेट जगत को ़फायदा पहुंचाने के लिए सारे दरवाज़े खोल दिए जाते हैं. यह भूलने वाली बात नहीं है कि पूरी दुनिया में भारत सबसे भूखा देश है. यहां भूख से पीड़ित लोगों की संख्या सबसे ज़्यादा है. देश में खाद्यान्न की कमी है, लेकिन लगता है कि सरकार को गांवों, शहरों और ग़रीबों की कोई फ़िक्र नहीं है. देश की सरकार, विपक्ष और अन्य सभी संस्थान देश के अमीरों की खातिरदारी में लग गए हैं. वर्ष 1991 के बाद से सारे घोटाले कॉरपोरेट सेक्टर के साथ मिलकर अंजाम दिए गए. देश के संसाधनों को सरकार नेता और उद्योगपति मिलजुल कर लूट रहे हैं. किसानों को ज़मीन से बेद़खल किया जा रहा है. आदिवासियों को जंगल से बाहर किया जा रहा है. खनिजों को देशी और विदेशी कंपनियों को लूटने के लिए छोड़ दिया गया है. आज़ादी के समय देश के महापुरुषों ने जो सपना देखा था, उसमें आज जो भारत में हो रहा है वह क़तई नहीं था. सरकार संविधान के खिलाफ फैसले ले रही है. कोई सवाल भी नहीं उठा रहा है. सवाल यह है कि ऐसा कब तक चलता रहेगा?
अगर देश में मूलभूत परिवर्तन नहीं लाया गया, तो इस देश में प्रजातंत्र नहीं बचेगा और अगर प्रजातंत्र बच गया तो इसका चेहरा इतना वीभत्स होगा कि दुनिया के सबसे बड़े प्रजातंत्र को लोग प्रजातंत्र मानने पर भी ऐतराज़ करेंगे. देश के सामने यह सबसे ब़डा खतरा है कि एक तऱफ आम आदमी हाशिए पर जा रहा है, दूसरी तऱफ सारी शक्तियां कुछ लोगों तक सीमित हो रही हैं. भारत का प्रजातंत्र एक ऐसी बीमारी से ग्रसित है, जिसमें सारी शक्तियां कुछ सौ परिवारों तक सिमट कर रह जाएंगी. राजनीति के क्षेत्र को देखिए, कुछ पार्टियों को छोड़कर सारी पार्टियां किसी एक परिवार की जायदाद बन गई हैं. जिन पार्टियों में यह बीमारी नहीं थी, उनमें भी यह शुरू हो चुकी है. अगर यह सब नहीं रुका तो भविष्य में देश की चुनावी राजनीति पर चंद परिवारों का क़ब्ज़ा हो जाएगा. आर्थिक क्षेत्र में भी यही सब हो रहा है. कुछ बड़ी कंपनियां हैं, जो छोटी कंपनियों को ़खत्म कर रही हैं. ये कंपनियां जनता की नहीं, बल्कि कुछ घरानों की हैं. यही उद्योग घराने राजनीतिक दलों को पैसे देते हैं और चुनाव जीतने के बाद यही राजनीतिक दल नियम-क़ानून बदल कर इन्हें ़फायदा पहुंचाते हैं. यही नेक्सस है, यही खतरा है और यही देश के लोगों की परेशानी का मूल कारण है.
अगर देश के प्रजातंत्र को बचाना है, तो इस नेक्सस को खत्म करना होगा. अमीरों को ़फायदा पहुंचाने वाली नीतियों का पर्दा़फाश करना होगा. उन्हें खत्म करना होगा. सरकार को आम लोगों के कल्याण और उनको फायदा पहुंचाने वाली नीतियों को प्रमुखता देनी होगी. ग़रीबों और शोषितों के विकास के लिए योजनाएं बनानी होंगी. सरकार को लोगों के साथ मिलकर, लोगों की मदद से और लोगों के लिए योजनाएं बनानी होंगी. देश की जनता का भरोसा जीतना होगा. अब सवाल यह है कि यह काम कौन करेगा? वर्तमान राजनीतिक दलों से लोगों का भरोसा उठ गया है. वे यह काम नहीं कर सकते. ये राजनीतिक दल स्वयं भ्रष्टाचार में लिप्त हैं, अमीरों को ़फायदा पहुंचाने वाले तंत्र के हिस्सेदार हैं. प्रजातंत्र को पथ भ्रष्ट करने वालों के अगुवा हैं.
यह काम अन्ना हजारे के साथ-साथ देश में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों और व्यवस्था परिवर्तन आंदोलनों के ज़रिए किया जा सकता है. इसकी शुरुआत पटना के गांधी मैदान से हो रही है. इसमें अन्ना हजारे के साथ जनरल वीके सिंह, एकता परिषद के प्रमुख पीवी राजगोपाल और मैग्सेसे अवॉर्ड विनर राजेंद्र सिंह और देश भर के कई सामाजिक संगठन शामिल हो रहे हैं. यह एक मौका है, जब लोकोन्मुखी सरकार बनाने की ओर देश पहला क़दम रखे. अन्ना हजारे के इस आंदोलन की सफलता से यह तय होगा कि भविष्य का भारत कैसा होगा? यही वजह है कि जिन लोगों को लगता है कि वे वर्तमान व्यवस्था से संतुष्ट नहीं हैं, उन्हें अन्ना के आंदोलन का समर्थन करना चाहिए. 30 जनवरी को पटना के गांधी मैदान पहुंचना चाहिए. देश की जनता की परीक्षा का शायद यह आखिरी मौक़ा है, क्योंकि अगर इस समय यह आंदोलन विफल हो गया, तो यक़ीन मानिए अगले
30-40 सालों तक देश में कोई आंदोलन नहीं हो पाएगा और तब तक पूरा भारत देश के गिने चुने सौ परिवारों के क़ब्ज़े में चला जाएगा.

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