चुनावी सर्वे लोगो को भ्रमित करते हैं

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आम आदमी पार्टी का दावा है कि वह दिल्ली में सरकार बनाएगी. इस दावे का आधार आम आदमी पार्टी द्वारा किया गया सर्वे है. अगर सर्वे ही चुनाव के मापदंड होते तो स़िर्फ भारत ही क्योंदुनिया के किसी भी देश में लोग चुनाव के नतीजे का इंतज़ार नहीं करते. अरविंद केजरीवाल का दावा है कि आम आदमी पार्टी को 32 फ़ीसद वोट मिलेंगे और 70 में से 46 सीट पर उनकी पार्टी के उम्मीदवार जीत दर्ज कराएंगे. वैसे इस तरह का दावा करना राजनीतिक तौर पर तो ग़लत नहीं हैलेकिन हक़ीक़त यह है कि एक ही दिनएक ही इला़के में अगर दस सर्वे एक साथ होते हैंतो ये मान कर चलिए कि इन सभी के नतीजे अलग-अलग होंगे. इसलिए सर्वे के आधार पर ख़ुद को विजयी घोषित करना भ्रम फैलाने की पराकाष्ठा है. भारत में पहली बार किसी राजनीतिक दल ने चुनावी सर्वे को ही चुनावी प्रचार व प्रोपेगैंडा का हथियार बनाया है. इसलिए आम आदमी पार्टी की सर्वे की सच्चाई को समझना ज़रूरी है. 

chunavi surveyअरविंद केजरीवाल ने इंडिया टीवी के कार्यक्रम आपकी अदालत में एक खुलासा किया कि टीवी चैनलों पर हाल के दिनों में दिखाया गया चुनावी सर्वे एक घोटाला था, जिसमें 4-5 टीवी चैनल शामिल थे. सर्वे में आम आदमी पार्टी को तीसरे नंबर पर दिखाया गया था. फिर उन्होंने यह दावा किया कि उनके द्वारा किए गए सर्वे के मुताबिक, आम आदमी पार्टी दिल्ली में बहुमत लाएगी. साथ ही उन्होंने सब टीवी चैनलों को यह चैलेंज किया कि सर्वे का रॉ डाटा सार्वजनिक करें, क्योंकि आम आदमी पार्टी ने जो सर्वे कराया है, उसकी सारी जानकारी उन्होंने सार्वजनिक कर दी है. सर्वे का रॉ डाटा आम आदमी पार्टी की वेबसाइट पर है. चौथी दुनिया ने इस आम आदमी पार्टी की वेबसाइट से रॉ डाटा निकाला, प्रश्‍नावली निकाली, उसका अध्ययन किया तो कुछ चौंकाने वाली जानकारी सामने आई.

अगर कोई सर्वे पिछले चुनाव नतीजे की पुष्टि नहीं कर सकते हैं, तो इसका मतलब है कि सर्वे में कुछ न कुछ गड़बड़ है. सर्वे के नतीजों का संकलन करते वक्त इसका ध्यान रखना चाहिए. आम आदमी पार्टी के सर्वे की प्रश्‍नावली में सवाल नंबर पांच दिलचस्प है. इसमें लोगों से यह पूछा गया था कि 2008 में हुए पिछले विधानसभा चुनाव में आपने किस पार्टी को वोट दिया था. पहले यह जान लेते हैं कि पिछली विधानसभा चुनाव में किस पार्टी कितने वोट आए थे. दिल्ली के 2008 के चुनावों में कांग्रेस पार्टी को 40.31%, भारतीय जनता पार्टी को 36.34%, बहुजन समाज पार्टी को 14.05% और अन्य को 9.3% वोट मिले हैं. अब जरा आम आदमी पार्टी के सर्वे के नतीजों को देखते हैं. आम आदमी के तीसरे सर्वे के मुताबिक, 2008 में कांग्रेस पार्टी को 45.58%, भारतीय जनता पार्टी को 26.24%, बहुजन समाज पार्टी को मात्र 2.79%, मिले हैं. इसके अलावा सर्वे में 22.88% लोगों ने कोई जवाब नहीं दिया. जिन लोगों ने जवाब नहीं दिया अगर उनके वोटों को भी इसी अनुपात में बांट दिया जाए तो फाइनल नतीजे इस प्रकार हैं. कांग्रेस पार्टी को 55.93%, भारतीय जनता पार्टी को 32.59%, बहुजन समाज पार्टी को 3.43% मिले. सर्वे के नतीजे और 2008 दिल्ली चुनाव के नतीजे के आंकड़े मेल नहीं खाते. चुनाव के वास्तविक परिणाम में कांग्रेस और बीजेपी में वोटों का फ़र्क क़रीब 4% का था, लेकिन आम आदमी पार्टी के सर्वे के मुताबिक यह फ़र्क क़रीब 23% का है. बहुजन समाज पार्टी के बारे में जो इस सर्वे से पता चलता है वो तो हास्यास्पद है. वास्तविकता में बसपा को 14.05% वोट मिले, जबकि आम आदमी पार्टी के सर्वे के मुताबिक, इसे 2008 में स़िर्फ 3.43% मिले. अगर सर्वे करने वालों ने अपने सर्वे की इस सच्चाई को देखा होता तो शायद सर्वे रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं करते. अगर पिछले चुनाव के बारे में भी कोई सर्वे सही आकलन नहीं कर सकता है तो इसका मतलब यही है कि यह सर्वे विश्‍वसनीय नहीं है.

मज़ेदार बात यह है कि आम आदमी पार्टी के सर्वे की प्रश्‍नावली का सवाल नंबर 8 भी वही है जो सवाल नंबर 5 है. जिसके बारे में पहले ज़िक्र किया गया. सवाल नंबर 5 व 8 में पूछा गया है कि 2008 में हुए पिछले विधानसभा चुनाव में आपने किस पार्टी को वोट दिया था. दोनों ही सवाल एक ही हैं. अब ज़रा देखते हैं कि इस बार इस सर्वे का नतीजा क्या है. इस बार कांग्रेस पार्टी को 42.72%, भारतीय जनता पार्टी को 24.31%, बहुजन समाज पार्टी को 2.40%, मिले. और 28.79% ने कोई उत्तर नहीं दिया. कहने का मतलब यह है कि अगर एक ही सवाल को दो मिनट के अंतराल में पूछा गया तो इस सर्वे के मुताबिक कांग्रेस और बीजेपी के दो-दो फ़ीसदी वोट कम हो गए. एक ही सर्वे में एक ही सवाल पर अलग-अलग नतीजे इस बात को दर्शाते हैं कि यह सर्वे हड़बड़ाहट में जैसे-तैसे तैयार किया गया है. लगता है कि आम आदमी पार्टी को नंबर वन दिखाकर इसका चुनाव प्रचार में इस्तेमाल करने के लिए तैयार किया गया है.

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वैसे जब आम आदमी पार्टी के लिए सर्वे कराने वाली एजेंसी सिसरो के डायरेक्टर धनंजय जोशी से यह सवाल किया गया कि एक ही सर्वे में एक ही सवाल दो-दो बार क्यों हैं, तो उन्होंने पूछा कि सर्वे में ऐसा कौन सा सवाल है जो दो बार है. इसका मतलब यह कि डायरेक्टर साहब इस बात से पूरी तरह से अनभिज्ञ हैं. उन्हें जब सवाल नंबर 5 और 8 बताया गया तो उन्होंने झट से जवाब दिया कि लगता है कि गलती हो गई होगी. वैसे एक सवाल विधानसभा के लिए था तो दूसरा सवाल लोकसभा के लिए था. ऐसा जवाब देकर उन्होंने सर्वे की और भी फज़ीहत कर दी. क्योंकि दिल्ली के चुनावों में कांग्रेस और बीजेपी का अंतर 20 फ़ीसदी नहीं था, जो इस सर्वे में बताया जा रहा है. अरविंद केजरीवाल ने ऐसे सर्वे पर विश्‍वास कर अपनी साख़ भी दांव पर लगा दी है. अब ये समझ में नहीं आ रहा है कि किसने उन्हें रॉ डाटा को सार्वजनिक करने का सुझाव दिया था.

आम आदमी पार्टी का दावा है कि वो ईमानदारी के लिए लड़ रही है. लेकिन ज़रा एक नज़र डालते हैं इस सर्वे की ईमानदारी पर. आम आदमी पार्टी द्वारा किए जाने वाले दूसरे सर्वे में उन्होंने लोगों से कहा कि वो दिल्ली की संस्था ग्लोबल रिसर्च एंड एनालिटिक्स से आए हैं. जब सर्वे कराने वाली एजेंसी सिसरो के डायरेक्टर धनंजय जोशी से बात हुई तो उन्होंने पहले यह बताया कि यह संस्था दिल्ली के साकेत में है. जहां इसे बहुत ढूंढा गया, लेकिन इस संस्था का पता नहीं चला. इसकी कोई वेबसाइट भी नहीं है. इंटरनेट पर जब ढूंढा तो पता चला कि इस नाम की संस्था एस एंड पी यानि स्टैंडर्सड एंड पुअर्स की एक शाखा है. भारत में जिसकी ब्रांच मुंबई, गु़डगांव, चेन्नई और पुणे में है. आपको बता दें कि स्टैंडर्ड एंड पुअर्स एक अमेरिकी वित्तीय सेवा कंपनी है. यह शेयरों व वित्तीय मामले की अनुसंधान और विश्‍लेषण प्रकाशित करती है. इसकी रिपोर्ट से देशों की सरकारें हिल जाती हैं. अब यह समझ के बाहर है कि आम आदमी पार्टी के सर्वे का इस एजेंसी से क्या रिश्ता है. अगर रिश्ता है तो परेशानी की बात है और नहीं है तो इसका मतलब है कि सर्वे करने वाली एजेंसी ने झूठ की बुनियाद पर यह सर्वे किया. वैसे सिसरो के डायरेक्टर ने बड़े ही संदिग्ध तरी़के से पूछा कि ग्लोबल रिसर्च एनालिटिक्स के बारे में आपको कैसे पता चला. जब उन्हें बताया गया कि यह जानकारी कहीं से हाथ लगी है तो उनका जवाब था कि कहीं से हाथ लगी जानकारी के बारे में कुछ नहीं कह सकता है. डायरेक्टर साहब को शायद पता नहीं था कि यह जानकारी आम आदमी पार्टी की बेबसाइट पर है. आम आदमी पार्टी के दूसरे सर्वे की प्रश्‍नावली के पहले वाक्य में यह लिखा हुआ है और इन दस्ताव़ेजों को डायरेक्टर साहब के नाम के ज़रिए उसे प्रमाणित बताया गया है. बातचीत में सिसरो के डायरेक्टर ने यह भी बताया कि सर्वे का ग्लोबल रिसर्च एंड एनालिटिक्स से कोई लेना देना नहीं है. हम साथ में आम आदमी पार्टी के सर्वे की प्रश्‍नावली भी इसलिए छाप रहे हैं.

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आम आदमी पार्टी के सर्वे में दूसरा झूठ लोगों से यह बोला गया कि यह सर्वे अख़बारों के लिए लेख तैयार करने के लिए किया जा रहा है और इस सर्वे का किसी पार्टी या सरकार से कोई ताल्लुक नहीं है और जो जानकारी वो देंगे वो किसी को बताई नहीं जाएगी और उनकी पहचान गुप्त रखी जाएगी. आम आदमी पार्टी ने स़िर्फ लोगों की पहचान को गुप्त रखा और बाक़ी सारे वादे तोड़ दिए. जो लोग मर्यादा की बात करते हैं, ईमानदारी की बात करते हैं, उन्हें शायद अपने गिरेबान में भी झांककर देखना चाहिए. यह सर्वे आम आदमी पार्टी के लिए किया जा रहा था. इसकी जानकारी न स़िर्फ सार्वजनिक की गई, बल्कि इसका इस्तेमाल आम आदमी पार्टी ने चुनावी प्रोपेगैंडा के लिए किया. हैरानी की बात तो यह है कि अरविंद केजरीवाल ताल ठोंक कर यह भी कह रहे हैं कि स़िर्फ वो हैं जिन्होंने सर्वे का रॉ डाटा सार्वजनिक किया है. सही बात है. दुनिया की कोई सर्वे एजेंसी रॉ डाटा को सार्वजनिक नहीं करती है, क्योंकि यह सर्वे करने वालों के एथिक्स के ख़िलाफ़ है. सवाल यह है कि इस सर्वे के सूत्रधार योगेंद्र यादव जी ने 20 सालों में अब तक के किए हुए सर्वे का रॉ डाटा सार्वजनिक क्यों नहीं किया?

इस सर्वे में एक ऐसी बात है कि जिसे समझना ज़रूरी है कि किस तरह सर्वे को भी ट्विस्ट किया जा सकता है. जैसे अगर आप किसी से पूछें कि क्या कोयला घोटाले में मनमोहन सिंह जेल जाएंगे? तो ज़्यादातर लोग जबाव देंगे कि नहीं, क्योंकि लोग इस बात पर विश्‍वास नहीं करेंगे कि प्रधानमंत्री भी जेल जा सकते हैं. दूसरा सवाल अगर यह पूछें कि यूपीए के बाकी मंत्री जो भ्रष्टाचार में लिप्त हैं, उन्हें सज़ा मिलेगी या बच जाएंगे? ज़्यादातर लोग कहेंगे कि बच जाएंगे. फिर आप यह सवाल करें कि क्या देश से भ्रष्टाचार ख़त्म होगा तो ज़्यादातर लोग कहेंगे कि नहीं. भ्रष्टाचार तो ख़त्म हो ही नहीं सकता है. पूरा देश ही भ्रष्ट है. तो इस सर्वे का रिज़ल्ट आएगा कि देश के लोगों का मानना है कि भ्रष्टाचार ख़त्म नहीं हो सकता है. अब ज़रा दूसरा तरीक़ा अपनाते हैं. यदि सवाल पूछा जाए कि क्या लालू यादव की तरह और भी नेताओं को भ्रष्टाचार के मामले में जेल होगी? तो लोग कहेंगे हां. ये तो अभी शुरुआत ही है. क्या आपको सुप्रीम कोर्ट पर विश्‍वास है और क्या आप चाहते हैं कि सभी भ्रष्ट नेताओं को जेल भेजना चाहिए, इसका भी जवाब हां होगा. इसके बाद अगर ये सवाल पूछा जाए कि क्या देश से भ्रष्टाचार ख़त्म होगा. तो लोग कहेंगे कि हां. भ्रष्टाचार ख़त्म करना बिल्कुल संभव है. इसका जवाब होगा कि देश में भ्रष्टाचार ख़त्म किया जा सकता है. आम आदमी पार्टी ने अपने सर्वे में जिस तरह से सवाल बनाया है, उससे यही लगता है कि इस सर्वे का मक़सद आम आदमी पार्टी का प्रचार है, क्योंकि ज़्यादातर सवाल पार्टी से जुड़े हैं और इसमें कांग्रेस व बीजेपी के बारे में इक्का-दुक्का सवाल हैं.

बीजेपी ने सबसे पहले इस तरह सर्वे कराने की प्रथा की शुरुआत की. बीजेपी ने चुनाव के लिए सबसे पहले 1999 के लोकसभा चुनाव में सर्वे कराया था, लेकिन उस वक्त इसे ज़्यादा महत्व नहीं दिया गया. लेकिन एनडीए सरकार बनने के बाद और जबसे अरुण जेटली पार्टी की चुनावी रणनीति के केंद्र में आए, तब से बीजेपी में सर्वे का महत्व बढ़ गया. लेकिन बीजेपी अपने सर्वे को सार्वजनिक नहीं करती थी. इस सर्वे का मक़सद ज़मीनी हक़ीक़त जानने के लिए किया जाता था. मुद्दे क्या हैं. लोगों का मूड क्या है. उम्मीदवार कैसे होने चाहिए. प्रचार-प्रसार का तरीक़ा क्या होना चाहिए. इन महत्वपूर्ण मुद्दों को समझने के लिए ऐसे सर्वे कराए जाते थे. चुनाव से जुड़े फैसले में ऐसे सर्वे का बहुत महत्व होता था. मज़ेदार बात यह है कि बीजेपी के ज़्यादातर सर्वे ग़लत साबित हुए और सर्वे के आधार पर लिए गए कई फैसले ग़लत साबित हुए. कुछ तो ऐसे ख़तरनाक साबित हुए, जिसकी वजह से बीजेपी जीती हुई बाज़ी गंवा बैठी.

ऐसा कई बार देखा गया है कि सर्वे की सच्चाई सबसे पहले इस पर निर्भर करती है कि सर्वे करने वाले फील्ड-वर्कर ने कितनी ईमानदारी से सर्वे किया है? क्या वो सचमुच लोगों के घर गए? सही ढंग से सवाल किया या फिर किसी तरह से प्रश्‍नावली को भर दिया? वैसे हक़ीक़त यह है कि ज़्यादातर सर्वे झूठे इसलिए भी साबित होते हैं, क्योंकि प्रश्‍नावली को लेकर फील्ड-वर्कर लोगों के पास जाता भी नहीं है. ग्रुप बनाकर ये लोग किसी होटल या रेस्टोरेंट में बैठ जाते हैं और अपने हिसाब से उसे भर देते हैं. दिमाग़ इसमें यह लगाया जाता है कि प्रश्‍नावली को इस तरह से भरा जाए, जिससे वो पकड़े नहीं जाएं. इसलिए ज़्यादातर सर्वे सही नतीजे देने के बजाय कन्फ्यूज करते हैं. सर्वे कराने वाली एजेंसियां दिल्ली की जवाहरलाल नेहरू युनिवर्सिटी, दिल्ली युनिवर्सिटी के कालेजों व मीडिया इंस्टीट्यूट के छात्रों का इस काम में इस्तेमाल करती हैं, जिन्हें फील्ड वर्क और रिसर्च का अनुभव होता है. ये छात्र इस अनुभव का इस्तेमाल फ़र्ज़ीवाड़े से फार्म भरने में करते हैं. अब सवाल यह है कि जब प्रश्‍नावली ही जब फ़र्ज़ीवाड़े से भरा गया हो तो सर्वे का परिणाम तो ग़लत ही होगा. अब चाहे कोई रॉ डाटा सार्वजनिक करे या न करे, इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता है.

 

आम आदमी पार्टी ने यह सर्वे सिसरो एशोसिएट्स के द्बारा करवाया था. इस सर्वे में 34,427 लोगों की प्रतिक्रिया ली गई. इन लोगों के दिल्ली के 70 विधानसभा क्षेत्रों के 1,750 पोलिंग बूथ से चुना गया था. वैसे दिल्ली के लिए इतना बड़ा सैम्पल बहुत पर्याप्त है. आम आदमी पार्टी का दावा है कि सभी लोगों के घर जाकर आमने-सामने बैठकर बातचीत की गई और यह सर्वे 5 सिंतबर और 5 अक्टूबर के बीच किया गया. लेकिन इस बार सर्वे करने वालों ने ग्लोबल रिसर्च एंड एनालिटिक्स के नाम की जगह सिसरो एसोसिएट्स का नाम लिया. साथ ही कहा कि वो सरकार की तरफ़ से नहीं आए हैं. शायद आम आदमी पार्टी के नेताओं को अपनी भूल का पता चल चुका था कि उन्होंने दूसरे सर्वे में मर्यादा का उल्लंघन किया है. इसलिए तीसरे सर्वे में इसे हटा दिया गया है. लेकिन फिर भी एक सवाल उठता है कि क्या सर्वे करने वाले अन्जान बन कर गए थे? क्या वो आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ता थे? क्या उन्होंने आम आदमी पार्टी की टोपी पहन कर ये सर्वे किया? यह जानना ज़रूरी है, क्योंकि अगर वो आम आदमी पार्टी कार्यकर्ता थे तो वैसे ही इस सर्वे का कोई मायने नहीं रह जाता है. इसे फिर हमें एक पार्टी के प्रचार का एक तरीक़ा समझ लेना चाहिए. वह इसलिए क्योंकि सवाल पूछने वाला कौन है, इससे भी आम लोगों के जवाब बदल जाते हैं. यह सवाल इसलिए उठाया जा रहा है, क्योंकि जिन सवालों का जवाब सीधा था, उसमें क़रीब 27 फ़ीसदी से ज़्यादा लोगों ने अपनी कोई राय नहीं दी.

वैसे भी चुनाव में अभी काफ़ी वक्त है. दिल्ली के बारे में कहा जाता है कि एक दिन में पूरा माजरा बदल जाता है. इसकी वजह यह है कि यहां का चुनाव बहुत ही व्यक्तिगत होता है. पार्टी का आंशिक रोल होता है. उम्मीदवारों को अपने बलबूतों पर ही चुनाव जीतना होता है. एक मज़ेदार बात बताता हूं. 2004 के चुनावों में अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री के रेस में हमेशा सबसे आगे रहे. हर सर्वे यही कहता था, लेकिन बीजेपी चुनाव हार गई. वजह साफ़ है कि देश में लोग मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री को वोट नहीं देते. वोट स्थानीय एमपी या एमएलए को पड़ता है. अगर वह लोकप्रिय नहीं है तो पार्टी को वोट नहीं मिलते. भारत में ज्यादातर लोग जिसे वोट देते हैं, उसका व्यक्तित्व और उसकी पृष्ठभूमि देखते हैं. इसलिए चुनाव से पहले किए गए सर्वे का कोई मतलब नहीं है. दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने सबसे ज़्यादा उम्मीदवारों की घोषणा कर दी है. कांग्रेस व भारतीय जनता पार्टी ने अपने उम्मीदवारों की घोषणा नहीं की है. इन दोनों ही पार्टियों में मज़बूत और ज़मीनी आधार वाले कई नेता हैं. जब बीजेपी कांग्रेस के उम्मीदवारों की घोषणा हो जाएगी, तब आकलन करने का प्रयास किया जा सकता है. इसलिए यह कहा जा सकता है कि दिल्ली में उम्मीदवारों का पता नहीं, कौन सा मुद्दा सबसे महत्वपूर्ण रहेगा, इसका पता नहीं है. किस पार्टी का कैंपेन कैसा होगा, यह भी पता नहीं, कौन-कौन नेता, फिल्म स्टार, खिलाड़ी कैंपेन करने दिल्ली आएंगे और उनका क्या असर होगा, यह भी पता नहीं. किस पार्टी के कार्यकर्ता क्या करेंगे, किस पार्टी में विद्रोह होगा, कितने विद्रोही उम्मीदवार खड़े होंगे, अन्ना हजारे व रामदेव के कैंपेन का क्या असर होगा और सबसे महत्वपूर्ण बात कौन सी पार्टी का मैनेजमेंट कैसा होगा, यह अभी तक किसी को पता नहीं है. और ये बातें ऐसी हैं जिसमें ज़रा सी चूक जीत को हार में बदल सकती है और हार को जीत में. इसलिए चुनाव से पहले किए गए सर्वे का कोई असर चुनाव पर नहीं होता है. आम आदमी पार्टी ने सर्वे का सहारा लेकर चुनावी प्रचार में एक नया प्रयोग किया है. इसे प्रचार के रूप में ही देखना चाहिए.

वैसे भी चुनावी सर्वे इतिहास बताता है. वह भविष्य नहीं बता सकता. यही सच है. अगर कोई यह दावा करे कि सर्वे से किसी चुनाव का भविष्य बताया जा सकता है तो वह लोगों को धोखा दे रहा है. मज़ेदार बात यह है कि कई सालों से सर्वे करने वाली ऐजेंसियां लोगों को और राजनीतिक दलों को मूर्ख बनाती आ रही हैं. हिंदुस्तान में ऐसी कोई सर्वे एजेंसी नहीं है, जिसकी भविष्यवाणी ग़लत नहीं हई हो. 2004 में सारे सर्वे एनडीए की सरकार को भारी मतों से जिता रहे थे, लेकिन जब परिणाम आए तो सारे सर्वे ग़लत साबित हो गए. देश के सबसे जाने माने व सबसे विश्‍वसनीय माने जाने वाले योगेंद्र यादव का सर्वे ज्यादातर ग़लत साबित हुआ है. वो कई बार मोदी को सर्वे में हरा चुके हैं. जयललिता को हरा चुके और अमरेंद्र सिंह को जिता चुके हैं और इस तरह कई बार ग़लत साबित हो चुके हैं. जब सबसे विश्‍वसनीय का हाल यह है तो दूसरों की बात करना ही बेमानी है. कहने का मतलब है सर्वे अपने आप में ग़लत नहीं होते. यह एक तरीक़ा है, एक ज़रिया है जिससे एक अनुमान, बस अनुमान ही लगाया जा सकता है. भविष्य को जानने का कौतुहल मानव स्वभाव है, इसलिए सर्वे प्रजांतत्र और चुनावी माहौल को जीवंत बनाता है, लेकिन इसे आधार बनाकर किसी को विजयी घोषित कर देना लोगों में भ्रम पैदा करना है.

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