बजट- 2012 देश पर गंभीर आर्थिक संकट

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सरकार चलाने का यह अजीबोग़रीब तरीक़ा है. पहले एक समस्या को जन्म दो, उसे पाल-पोस कर बड़ा करो और उसे बढ़ने दो. फिर मीडिया के ज़रिए उसके खतरे के बारे में लोगों को बताओ, चिंता जताओ, फिर हाथ खड़े कर दो कि इससे निपटने के लिए कड़े फैसले लेने होंगे, क़ानून बदलना होगा. ऐसी रणनीति का फायदा यह हो जाता है कि सांप भी मर जाता है और लाठी भी नहीं टूटती. जन विरोधी एवं ग़रीब विरोधी नीतियों और क़ानूनों को लागू करने के लिए सरकार हमेशा इसी रणनीति का इस्तेमाल करती है. इसी तरह राजनीतिक दल और अधिकारी देश की जनता को मूर्ख बनाने में सफल हो जाते हैं और लोगों को सरकार की नीति जायज़ और सही लगने लगती है.

budget 2012सोलह मार्च को वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी बजट पेश करेंगे. पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव के बाद पेश किए जा रहे इस बजट की रूपरेखा पर हाल में वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी के घर पर एक मीटिंग हुई. दो घंटे के बाद मीडिया को स़िर्फ इतना बताया गया कि जनता के हितों को ध्यान में रखकर बजट तैयार किया जाएगा, लेकिन इस मीटिंग के बाद जितने भी नेता मुखर्जी के घर से बाहर निकल रहे थे, उनके चेहरे से पता चल रहा था कि आगे क्या होने वाला है. किसी ने मीडिया से बात नहीं की.

लोकसभा चुनाव से पहले का यह शायद आखिरी बजट है, जिसे प्रणव दा पेश कर रहे हैं. फिलहाल कांग्रेस के सामने कोई चुनाव नहीं है, इसलिए लोक लुभावन बजट पेश करने का दबाव वित्त मंत्री पर नहीं है. इसलिए सरकार मनचाहा काम करेगी. इसमें कोई शक नहीं है कि इस बजट पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, योजना आयोग के डिप्टी चेयरमैन मोंटेक सिंह अहलूवालिया के साथ ही उदारीकरण, निजीकरण एवं वैश्वीकरण के समर्थक अर्थशास्त्रियों की छाप होगी. यह बजट कांग्रेस पार्टी की आर्थिक नीति का आईना होगा. इससे पता चलेगा कि जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री एवं इंदिरा गांधी की आर्थिक नीति और वर्तमान कांग्रेस की आर्थिक नीति में कोई फर्क़ है या नहीं. यह समझना इसलिए ज़रूरी है कि मनमोहन सिंह की सरकार जबसे दिल्ली की गद्दी पर क़ाबिज हुई है, तबसे ग़रीबों, किसानों, मज़दूरों एवं वनवासियों के साथ स़िर्फ छलावा किया गया है और सारे फायदे उद्योगपतियों और कॉरपोरेट घरानों को दिए गए हैं. जितनी भी योजनाएं बनती हैं, उनका फायदा स़िर्फ चंद लोगों को होता है. सरकार की यह नियति बन गई है कि ग़रीबों को सब्सिडी देने के लिए उसके पास पैसे नहीं रहते, लेकिन वह बड़े-बड़े औद्योगिक घरानों को अरबों-खरबों का फायदा पहुंचाने के लिए तत्पर रहती है.

केंद्र सरकार का यह बजट ऐसे समय पर आ रहा है, जब सरकार की साख दांव पर लगी है. पिछले कुछ समय से महंगाई की वजह से लोगों का जीना दूभर हो गया और सरकार ने हाथ खड़े कर दिए. प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री की तऱफ से गैर ज़िम्मेदार बयान दिए गए. यह कहा गया कि हमारे पास महंगाई को नियंत्रित करने के लिए कोई जादू की छड़ी नहीं है. जनता में एक तऱफ नाराज़गी है तो दूसरी तऱफ देश के मज़दूर आंदोलन कर रहे हैं. हाल में हुए देशव्यापी बंद में कांग्रेस और भाजपा के मज़दूर संगठनों ने भी हिस्सा लिया. सरकार चलाने वालों को यह समझना पड़ेगा कि आम जनता के साथ-साथ उनके अपने कार्यकर्ता और संगठन के लोग भी सरकार की नीतियों से खुश नहीं हैं. इसके अलावा इस बजट की पृष्ठभूमि गंभीर आर्थिक संकट है. देश की अर्थव्यवस्था की रफ्तार लगातार घटती जा रही है. सरकार की नीतियां एक के बाद एक फेल हो रही हैं. केंद्र सरकार ने फरवरी 2011 में बजट पेश करने से पहले यह दावा किया था कि वह ऐसी नीतियों पर काम कर रही है, जिनसे देश की आर्थिक स्थिति खासी मज़बूत हो जाएगी. सरकार ने दावा किया था कि वह 2011-12 में 9 प्रतिशत विकास दर हासिल कर लेगी. कुछ समय बीतते ही सरकार को समझ में आ गया कि 9 प्रतिशत विकास दर मुमकिन नहीं है तो उसने इस टारगेट को घटाकर 8.4 प्रतिशत कर दिया. आज देश की आर्थिक स्थिति का हाल यह है कि सरकार ने खुद ही मान लिया कि 2011-12 में देश की जीडीपी विकास दर 8.4 प्रतिशत से घटकर 6.9 प्रतिशत रहेगी. यह पिछले तीन सालों में सबसे कम है. सरकार के मुताबिक़ ऐसा उत्पादन, कृषि और खनन में आई गिरावट की वजह से है. यूपीए की दूसरी पारी के पहले दो सालों में विकास दर 8.4 प्रतिशत थी. सरकार का जो भी अनुमान हो, हक़ीक़त यह है कि 6.9 प्रतिशत विकास दर को भी पाना मुश्किल है, क्योंकि थर्ड क्वॉर्टर के आंकड़े आ गए हैं और उनके मुताबिक़, जीडीपी विकास दर 6.1 प्रतिशत है. सरकार के मुताबिक़, सारे क्षेत्रों में गिरावट का माहौल है, उत्पादन की स्थिति एक साल में धरातल में पहुंच गई है. पिछले साल यह 7.6 प्रतिशत की गति से बढ़ रहा था, जो इस साल घट कर महज़ 3.9 प्रतिशत पर पहुंच गया है. कृषि की हालत भी बहुत खराब है. पिछले साल कृषि विकास दर 7 प्रतिशत थी, जो 2011-12 में 2.5 प्रतिशत पर पहुंच गई है. खनन की स्थिति दयनीय हो गई है. 2010-11 में खनन की विकास दर 5 प्रतिशत थी, लेकिन 2011-12 में यह -2.2 प्रतिशत पर पहुंच गई. विनिर्माण की हालत भी खस्ता है. इसकी विकास दर 4.8 प्रतिशत है, जबकि पिछले साल यह क्षेत्र 8 प्रतिशत की दर से विकास कर रहा था.

अब सवाल यह है कि भारत की आर्थिक स्थिति यहां तक कैसे पहुंची, इसके लिए कौन ज़िम्मेदार है, क्या स़िर्फ आंकड़े जारी करके सरकार की ज़िम्मेदारी खत्म हो जाती है? समझने वाली बात यह है कि सरकार ऐसी नीतियों को क्यों लागू करती है, जिनका असर उल्टा होता है. एक कठिन स्थिति से निकलने के लिए सरकार फैसले लेती है और जब उसका असर सामने आने लगता है तो परेशानी पहले से ज़्यादा बढ़ जाती है. क्या हमारे पास ऐसे अर्थशास्त्री नहीं हैं, जो खस्ताहाल अर्थव्यवस्था को ठीक कर सकें. मंदी के दौर में जब पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था डूब रही थी, तब भारत पर उसका असर नहीं दिखा. जब भाजपा की सरकार ने न्यूक्लियर टेस्ट किया और देश पर आर्थिक पाबंदियां लगीं, तब भी भारत पर उसका असर नहीं दिखा. जब भी स्टॉक एक्सचेंज में भूचाल आता है तो हमें बताया जाता है कि देश की अर्थव्यवस्था का आधार मज़बूत है. वैसे भी देश पर कोई विपदा नहीं आई. सूखा भी नहीं पड़ा. कोई ऐसी घटना भी नहीं हुई, जिसकी वजह से अर्थव्यवस्था पटरी से उतर जाए. फिर लगातार तीन सालों से हमारी अर्थव्यवस्था क्यों धरातल की ओर अग्रसर है. ऐसे में सवाल यही उठता है कि क्या यह जानबूझ कर किया जा रहा है.

सरकार देश को पूरी तरह से एक मुक्त बाज़ार में तब्दील करने का फैसला कर चुकी है. यही वजह है कि वह एक ऐसा माहौल तैयार करने में लगी है, जहां वह कह सके कि बिना कड़े फैसले के अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना नामुमकिन होगा. वित्त मंत्री रहते हुए मनमोहन सिंह ने जब 1991 में आर्थिक उदारीकरण की नीति अपनाई, तब भी वैसा ही माहौल था, जैसा आज है. वार्षिक विकास दर अस्सी के दशक में 3.5 प्रतिशत थी. सरकारी कंपनियों को लगातार नुक़सान हो रहा था, इंफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर का विकास नहीं हुआ और लाइसेंस राज ने उद्योगों को बढ़ने का मौक़ा नहीं दिया. साथ ही पूरी अर्थव्यवस्था भ्रष्टाचार के चंगुल में फंसी थी. राजीव गांधी के शासनकाल से ही देश की अर्थव्यवस्था की हालत खराब होने लगी थी, लेकिन इसका उपाय नहीं ढूंढा गया. सरकार चलाने वाले मंत्रियों एवं अर्थशास्त्रियों को यह पता था कि अगर इसका उपाय नहीं किया गया तो देश की अर्थव्यवस्था चौपट हो जाएगी. इसके बावजूद वित्त मंत्रालय में बैठे लोग इसे टालते रहे. जानबूझ कर अर्थव्यवस्था को बर्बाद होने दिया गया. ऐसी परिस्थिति पैदा हो गई कि देश को सोना गिरवी रखने की ज़रूरत पड़ गई. उस व़क्त मनमोहन सिंह तत्कालीन सरकार के आर्थिक मामलों के सलाहकार थे. हालांकि इस पर जमकर राजनीति हुई, लेकिन हक़ीक़त यह है कि ऐसी नौबत किसी एक सरकार की वजह से नहीं आई, बल्कि यह 1991 से पहले की नीतियों का नतीजा था. हक़ीक़त यह है कि सरकार चलाने वाले लोग समस्या का समाधान निकालने के बजाय उसे टालते रहे. अगर 80 के दशक में सरकारी कंपनियों की हालत बेहतर कर दी गई होती, उन्हें चलाने वालों की ज़िम्मेदारी तय कर दी गई होती तो शायद आज उन्हें बेचने की नौबत नहीं आती. देश की निजी कंपनियों और पूंजी को बढ़ावा देने के लिए नीतियां बनतीं तो आज हमें विदेशी पूंजी पर निर्भर नहीं होना पड़ता. आज सरकार जो बेहतरीन सड़कें बना रही है, एयरपोर्ट्स बना रही है, ये सारे काम 80 के दशक में भी हो सकते थे, लेकिन सरकार ने इसकी ज़रूरत नहीं समझी. नतीजा यह हुआ कि 1991 में सरकार की ग़लतियां ही सरकार की दलील बन गईं, सरकार की नाकामी सरकार का तर्क बन गई. न किसी को ज़िम्मेदार ठहराया गया, न व्यवस्था में परिवर्तन किया गया और न कोई कोशिश हुई. सरकार ने हाथ खड़े कर दिए. नव उदारवादी व्यवस्था को अपनाना ही एकमात्र रास्ता बताकर उदारीकरण की नींव रख दी गई. इस तरह मनमोहन सिंह ने देश की आर्थिक नीति और उसके दर्शन को ही बदल दिया. भारत में सरकारी योजनाओं के ज़रिए सामाजिक विकास और समानता हासिल करने का उद्देश्य पीछे छोड़ दिया गया. 1991 में ऐसी नीति की नींव रखी गई, जिसका असर हर तऱफ नज़र आ रहा है. अमीर पहले से ज़्यादा अमीर और ग़रीब पहले से ज़्यादा ग़रीब हो गए.

अब बजट पेश किया जा रहा है. उससे पहले माहौल तैयार किया जा रहा है. आज किसी के मन में कोई शक नहीं है कि देश की आर्थिक विकास दर धीमी है. मीडिया में कहा और लिखा जा रहा है कि अर्थव्यवस्था की तस्वीर खराब और चिंताजनक है. चिंताजनक इसलिए, क्योंकि निकट भविष्य में उम्मीद की कोई किरण नज़र नहीं आती. अब इसका तर्क यह दिया जाएगा कि अर्थव्यवस्था की स्थिति खराब इसलिए है, क्योंकि निवेश दर में कोई तेज़ी नहीं आई है. विकास दर के डूबने के लिए वैश्विक स्तर पर बढ़ती अनिश्चितता और सुस्त बाहरी मांग को ज़िम्मेदार बताया जाएगा. लेकिन इस पर सवाल कौन उठाएगा कि यह तो पिछले तीन सालों से चल रहा है, फिर सरकार ने क्या किया. आर्थिक मामलों के जानकार यह चेतावनी कई दिनों से दे रहे हैं कि सरकार की सुस्ती और रिज़र्व बैंक की कोताही विकास को रोक रही है. सरकार आंकड़ों को दुरुस्त रखने के लिए समय-समय पर क़दम उठाती रही है.

मनमोहन सिंह ने देश की आर्थिक नीति और उसके दर्शन को ही बदल दिया. भारत में सरकारी योजनाओं के ज़रिए सामाजिक विकास और समानता हासिल करने का उद्देश्य पीछे छोड़ दिया गया. 1991 में ऐसी नीति की नींव रखी गई, जिसका असर हर तऱफ नज़र आ रहा है. अमीर पहले से ज़्यादा अमीर और ग़रीब पहले से ज़्यादा ग़रीब हो गए.

एक उदाहरण है कोयले का. खनन क्षेत्र में लगातार गिरावट आ रही है. कई महीनों से अ़खबारों में कोयले को लेकर बहुत हंगामा मचा है. देश में बिजली की कमी है. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पावर प्लांट के लिए कोल इंडिया को कोयला आयात करने को कहा. सेंट्रल इलेक्ट्रिसिटी अथॉरिटी के मुताबिक़, वर्ष 2012-13 में 70 मिलियन टन कोयले का आयात करने का फैसला किया गया है. दूसरी तरफ उद्योग जगत सरकार पर यह दबाव डाल रहा है कि कोयला आयात पर लगने वाली कस्टम ड्यूटी पर 5 प्रतिशत की छूट दी जाए. अब सवाल यह है कि क्या देश में कोयले की कमी हो गई है. चौथी दुनिया की तहक़ीक़ात के मुताबिक़, यूपीए सरकार के दौरान कोयले की खानें सिर्फ 100 रुपये प्रति टन की खनिज रॉयल्टी के एवज़ में बांट दी गईं. ऐसा तब किया गया, जब कोयले का बाज़ार मूल्य 1800 से 2000 रुपये प्रति टन के ऊपर था. संसद में इस बात को लेकर कुछ सांसदों ने हंगामा भी किया, लेकिन कोई निष्कर्ष नहीं निकला. 1993 से 2003 तक 40 ब्लॉक बांटे गए थे, जिनमें से अब तक स़िर्फ 24 ने उत्पादन शुरू किया है. तो बाक़ी 16 कंपनियों के लाइसेंस ख़ारिज क्यों नहीं किए गए? 2004 में 4 ब्लॉक बांटे गए थे, जिनमें आज तक उत्पादन शुरू नहीं हो पाया. 2005 में 22 ब्लॉक आवंटित किए गए, जिनमें से आज तक केवल 2 ब्लॉकों में ही उत्पादन शुरू हो पाया है. इसी तरह 2006 में 52, 2007 में 51, 2008 में 22, 2009 में 16 और 2010 में एक ब्लॉक का आवंटन हुआ, लेकिन 18 जनवरी, 2011 तक की रिपोर्ट के अनुसार, कोई भी ब्लॉक उत्पादन शुरू होने की अवस्था में नहीं है. 1993 से लेकर 2010 तक कोयले के 208 ब्लॉक बांटे गए, जो कि 49.07 बिलियन टन कोयला था. इनमें से 113 ब्लॉक 184 निजी कंपनियों को दिए गए, जो कि 21.69 बिलियन टन कोयला था. अगर बाज़ार मूल्य पर इसका आकलन किया जाए तो 2500 रुपये प्रति टन के हिसाब से इस कोयले का मूल्य 5,382,830.50 करोड़ रुपये होता है. अगर इसमें से 1250 रुपये प्रति टन काट दिया जाए, यह मानकर कि 850 रुपये उत्पादन की क़ीमत है और 400 रुपये मुनाफ़ा, तो भी देश को लगभग 26 लाख करोड़ रुपये का राजस्व घाटा हुआ. यह आज तक के इतिहास का सबसे बड़ा घोटाला है और शायद दुनिया का सबसे बड़ा घोटाला होने का गौरव भी इसे ही मिलेगा. शिबू सोरेन के जेल जाने के बाद जब कोयला मंत्रालय प्रधानमंत्री के अधीन था, तब सबसे अधिक यानी कोयले के 63 ब्लॉक बांटे गए. इन चार सालों में लगभग 175 ब्लॉक आनन-फानन में पूंजीपतियों और दलालों को मुफ्त में दे दिए गए. लगभग 21.69 बिलियन टन कोयले के उत्पादन क्षमता वाली खदानें निजी क्षेत्र के दलालों और पूंजीपतियों को मुफ्त दे दी गईं. देश में कोयला खदानों की लूट हो रही है, कंपनियां उन्हें आवंटित कराकर चुपचाप बैठ गई हैं और सरकार कह रही है कि देश में कोयले की कमी है. सरकार कोयले की कमी का नाटक क्यों कर रही है. सरकार कोयले की कमी का झांसा देकर विदेशी कंपनियों और देश के उद्योगपतियों को फायदा पहुंचाना चाहती है, ताकि कम दामों में विदेशों से कोयला भी खरीदा जा सके, निजी कंपनियों को फायदा भी पहुंच सके और सरकारी आंकड़ा भी दुरुस्त रहे. जो हाल कोयले का है, वही हाल दूसरे खनिजों और उद्योगों का है. अगर जांच हो तो पता चलेगा कि हर क्षेत्र में सरकार की कोताही और भ्रष्टाचार की वजह से देश की अर्थव्यवस्था गर्त में जा रही है.

सरकार को देश के ग़रीबों, मज़दूरों और किसानों से ज़्यादा उद्योगपतियों की चिंता है. यही वजह है कि सरकारी नीतियों का सीधा फायदा चुने हुए उद्योगपतियों को होता है. हाल में जितने भी घोटाले उजागर हुए हैं, उनमें उद्योगपतियों और सरकारी अधिकारियों की मिलीभगत सामने आई है. सरकार देश में ऐसा माहौल तैयार कर चुकी है, जिससे वह यह दलील दे सके कि उदारीकरण और निजीकरण में तेज़ी लाए बिना अर्थव्यवस्था को पटरी पर नहीं लाया जा सकता है. सरकार अब हर क्षेत्र में विदेशी पूंजी निवेश का फैसला कर चुकी है. शिक्षा से लेकर खुदरा बाज़ार तक को विदेशी निवेश के लिए खोल दिया जाएगा. उदारीकरण के 20 सालों में देश का़फी कठिन दौर से गुज़रा है. नक्सलियों का प्रभाव 60 जिलों से बढ़कर 260 जिलों तक फैल गया है. किसान आत्महत्या करने को मजबूर हैं. हाल में हुआ देशव्यापी बंद यह बताता है कि मज़दूर भी अपने भविष्य को लेकर चिंतित हैं. मध्य वर्ग की नाराज़गी उनसे भी ज़्यादा है. युवाओं का भविष्य अंधकारमय है. देश में भ्रष्टाचार को लेकर लोग आंदोलन कर रहे हैं. व्यवस्था परिवर्तन की मांग ज़ोर पकड़ रही है. जो जहां है, वहीं सरकारी तंत्र से नाराज़ है. ऐसे में अगर बजट में आम लोगों को राहत नहीं मिलती है तो उनका ग़ुस्सा भड़क सकता है. सरकार अगर विदेशी कंपनियों को कृषि, उद्योग, खुदरा बाज़ार एवं शिक्षा आदि जैसे क्षेत्रों में प्रवेश की छूट देती है तो यह मान लेना चाहिए कि देश के प्रजातंत्र पर संकट गहरा जाएगा.

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