बिहार चुनावः लेफ्ट भी एक चुनौती है

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bihar chunavभारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव ए बी वर्धन देश के वरिष्ठतम और सम्मानित राजनीतिज्ञों में शुमार किए जाते हैं. देश, विदेश और राज्यों से संबंधित विभिन्न मामलों के वह अच्छे जानकार हैं. बिहार विधानसभा चुनाव का मामला हो या अयोध्या पर आए ताजा फैसले का, वह हर बिंदु पर बेबाक बोलते हैं. चौथी दुनिया के समन्वय संपादक मनीष कुमार ने पिछले दिनों उनसे विभिन्न गंभीर मुद्दों पर एक लंबी बातचीत की. पेश हैं मुख्य अंश:

बिहार विधानसभा में पिछली बार आपके पास 10 के आसपास सीटें थीं. इस बार भी कम्युनिस्ट पार्टी चुनाव लड़ रही है, आपकी रणनीति क्या है?

अख़बारों को पढ़ने से तो लगता है कि मानो अभी भी बिहार में चुनाव पोलेराइज़्ड है. एक तऱफ नीतीश कुमार एवं भाजपा और दूसरी तऱफ लालू प्रसाद यादव एवं रामविलास पासवान. यह बात पिछले तीन-चार चुनावों में सही थी, लेकिन अब बिल्कुल सही नहीं है. अभी पोलेराइजेशन तो है ही नहीं. कम से कम चार ऐसी पार्टियां हैं, जो लगभग सभी सीटों पर चुनाव लड़ रही हैं. अपर कास्ट का थोड़ा सा हिस्सा, जो लालू प्रसाद के साथ तो कभी नहीं रहा, लेकिन पिछली बार भाजपा के चलते जद-यू के साथ था, इस बार वह कांग्रेस के साथ जाएगा, इससे इंकार नहीं किया जा सकता. इलेक्टोरल फोर्स के रूप में बीएसपी बिहार में कोई बड़ी पार्टी नहीं है, लेकिन वह भी लगभग सभी सीटों पर लड़ रही है. चुनकर भले 3-4 सीट ले आए, लेकिन कई जगहों पर 3-4 हज़ार लोगों को तोड़ने की क्षमता उसके पास है. फिर इस बार तीनों मेजर लेफ्ट पार्टियां भी एक साथ मिलकर लड़ रही हैं. सौ प्रतिशत एकता नहीं है, लेकिन क़रीब 200 सीटों पर वे लड़ रही हैं और उनमें 170 सीटों में एडजस्टमेंट है. 24 सीटें ऐसी हैं, जहां क्लैश है. सीपीआई एमएल का सीपीआई के साथ 17 सीटों पर क्लैश है और सीपीएम के साथ 7 सीटों पर. इसे आप कम मत आंकिए, इसलिए लेफ्ट भी एक चुनौती है. मुझे नहीं लगता कि केवल दो गठबंधन ही सत्ता के दावेदार हैं. लेफ्ट को छोड़कर जितनी पार्टियां हैं, वे सत्ता में रह चुकी हैं, लेकिन लेफ्ट पार्टियां कभी राज्य में सत्ता में नहीं रहीं. बिहार का जो भी बंटाधार हुआ अब तक, उसके लिए लेफ्ट को तो कोई दोषी ठहरा ही नहीं सकता.

नीतीश कुमार के पिछले पांच साल के शासनकाल के बारे में आपकी क्या राय है?

नीतीश के शासनकाल में किडनैपिंग, लॉ एंड ऑर्डर प्रॉब्लम, एब्डक्शन एवं मर्डर जैसी बातें थोड़ी घटी हैं, लेकिन ख़त्म नहीं हुईं. लालू के राज में तो मैं जब कभी पटना से मधुबनी गया तो आठ घंटे लगते थे. सड़कों की हालत बहुत ख़राब थी, उनकी कभी मरम्मत नहीं होती थी. लालू इतने विकास विरोधी थे कि एक बार उन्होंने बयान दिया कि बयानबाज़ी और बकवास करने में उनके जैसा कोई नहीं है. ग़रीबों को सड़कों से क्या लेना-देना, सड़कें तो मोटरगाड़ियों के लिए हैं. यही उनकी विकास के प्रति समझ है. उन्हें विकास की कोई परवाह नहीं थी. नीतीश ने थोड़ा सुधार किया. लॉ एंड ऑर्डर सुधारा, लेकिन उनका यह दावा कि बिहार की विकास दर 11 प्रतिशत है, हास्यास्पद है. बिहार की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार अभी भी कृषि है और उसमें 1-2 प्रतिशत विकास है. इंडस्ट्रीज तो हैं ही नहीं बिहार में. जो सुगर मिल्स थीं, उन्हें भी नहीं खुलवाया गया. उनका दावा वैसा है, जैसा एनडीए सरकार ने इंडिया शाइनिंग का किया था और लोग क़दम-क़दम पर देखते थे कि इंडिया की क्या हालत है. इसलिए इंडिया शाइनिंग उनके लिए उल्टा ही पड़ा. नीतीश का भी दावा टिकेगा नहीं. नीतीश का दावा केवल छलावा है, बेवकूफ बनाने की चाल है. बिहार की जनता बैकवर्ड हो सकती है, लेकिन बिहार बड़ी संख्या में विद्वानों को भी पैदा करता है. इन पार्टियों का विरोध करने की एक हजज़र वजहें हैं. बिहार की जनता अभी अनिर्णय की अवस्था में है. वजह यह है कि नीतीश पिछले पांच साल में विकास का जो दावा कर रहे हैं, वह झूठा है. केवल 17 प्रतिशत सड़कें बनाई या मरम्मत की गईं, बाक़ी उसी हालत में हैं. ग्रामीण क्षेत्रों में रोज़गार नहीं मिलता, लेकिन जब विकल्प की बात आती है तो उनके सामने लालू यादव हैं. लालू कभी विकल्प नहीं हो सकते. लोगों ने उन्हें पंद्रह साल तक देखा है, 7 साल उनके और 8 साल राबड़ी के.

इस बार बिहार में कौन से मुद्दे ज्यादा हावी रहेंगे?

बिहार का यह दुर्भाग्य है कि हर पक्ष कास्ट कैलकुलेशन में ही लगा हुआ है. सारी राजनीति इसी के इर्द-गिर्द घूमती है. अन्य जगहों पर विकास एक मुद्दा होता है. हिंदीभाषी क्षेत्रों, कुछ हद तक दक्षिण भारत में भी जाति एक फैक्टर है, लेकिन बिहार में तो सारा कैलकुलेशन ही इसी आधार पर किया जाता है, जबकि यह आज उतना बड़ा मुद्दा नहीं है. आज हर यादव लालू को वोट नहीं देता, न हर कुर्मी नीतीश का समर्थक है. जातियों के बीच आज उतनी कटुता नहीं है, जो बाबरी कांड से पहले और उसके बाद थी. इसका सबसे बड़ा उदाहरण अयोध्या मामले में आया फैसला है. हम और आप उस पर नुक्ताचीनी करते हैं, जबकि वह कोई ज्यूडिशियल प्रोनाउंसमेंट नहीं है. सभी यही कहते हैं, लेकिन लोग कहीं भी इसके लिए सड़कों पर नहीं उतरे, मारकाट नहीं हुई. तो फिर किस पोलेराइजेशन की बात हो रही है, जिसका लाभ उन्हें मिल सकता है.

लेफ्ट की समस्या यह है कि उसका विरोध दिल्ली में प्रेस कांफ्रेंस और टीवी चैनलों तक ही सीमित होकर रह जाता है. आप अपनी लड़ाई सड़क पर क्यों नहीं लड़ते?

मैं इसे स्वीकार करता हूं, लेकिन जज़्बाती सवालों को लेकर तो हम नहीं जा सकते. बिहार में तो कमीशन बैठाया गया, उसकी रिपोर्ट भी आई. एक हफ्ते के अंदर कह दिया गया कि हम इसे लागू नहीं करेंगे. जितने ज़मीन मालिक थे, छोटे-छोटे ज़मीन मालिक ही होंगे, लेकिन उनके लीडिंग लाइसेंस बड़े-बड़े ज़मीन मालिकों की तरह थे. जद-यू, भाजपा, कांग्रेस एवं राजद सबने विरोध किया. कमीशन की जो रिपोर्ट है, उसकी बड़ी बातों को लेकर अगर हम न भी चलें तो तीन-चार स़िफारिशें ऐसी हैं, जिन्हें अमल में लाने में बहुत संघर्ष करना पड़ेगा, ऐसा मैं नहीं मानता. एक स़िफारिश है कि घर नहीं हैं, पांच लाख परिवार बेघर हैं, उनकी झोपड़ियां ज़मीन मालिकों के घरों पर बनी हुई हैं. अच्छा, तुम्हारी झोपड़ी अगर वहां पर बनी हुई है तो तुम कुछ अनपेड लेबर, बांडेड लेबर की तरह कुछ तो बेगार दे रहे हो? कहा गया कि इन्हें दस डेसिमल ज़मीन दीजिए. नीतीश ने कहा कि दस डेसिमल बहुत ज़्यादा होता है. अरे भाई, पांच डेसिमल ही दे दो. वह भी नहीं किया. इस मुद्दे पर तीनों लेफ्ट पार्टियां एकमत हैं. जब बात हुई कि किसी दूसरी पार्टी के साथ चर्चा हो सकती है या नहीं, तो द डिवाइडिंग लाइन वॉज दिस…क्या होगा, अगर ऑल अगेंस्ट दि डिस्ट्रीब्यूशन ऑफ लैंड्‌स.

सीपीआई एमएल ने बीच में एक रैली भी की थी, उस पर पुलिस का रवैया काफी चौंकाने वाला था. उससे यह नहीं लगता कि जैसे-जैसे हम समय के साथ आगे बढ़ रहे हैं… बिहार में ऐसा देखने को मिला है कि चाहे टीचर्स या स्टूडेंट्‌स प्रोटेस्ट करते हों, चाहे अल्पसंख्यक हों अथवा कोई भी प्रोटेस्ट करता है तो उस पर पुलिस डंडा चलाती है.

एव्रीथिंग इज मेड बाइ द पुलिस. मैं वह जो लैंड रिकॉर्ड कमीशन की बात कर रहा था. 1971 में, फिर 1977 में और एक बार 1960 में. तीन बार हमने बड़े-बड़े लैंड स्ट्रगल किए. अभी भी अगर आप जाएंगे तो मधुबनी में पार्टी कार्यालय के सामने या बेगूसराय में क़रीब सौ-सौ माटियर्स के नाम आपको लिखे मिल जाएंगे. वह ज़मीन उनके क़ब्ज़े में अभी भी है, जो हम लोगों ने वितरित की. सब छीन नहीं सके. लालू ने दो बार वादा किया कि जिनके पास ज़मीन है, वही उसके मालिक होंगे, लेकिन अभी तक कोई पर्चा नहीं मिला. इस वजह से क़ब्ज़े में होते हुए भी ज़मीन उनकी नहीं है. किसानों को क्रेडिट मिलने के लिए ज़मीन मिलना आवश्यक है. फिर लालू ने पर्चे बांट दिए. जिन्हें पर्चे बांटे, उनकी ज़मीन कहां है, कोई नहीं जानता. यानी पर्चा विदाउट ज़मीन और ज़मीन विदाउट पर्चा. हमने कहा कि यह तीर लड़ाई तो कर लो कि ज़मीन किसी के क़ब्ज़े में है और पर्चा दिया है दूसरे को.

फेनटेलिस्टिक पॉलिटिकल पार्टीज के बारे में आपकी क्या राय है?

सबसे बड़ी पॉलिटिक्स तो कांग्रेस और राहुल की है, जो यूथ को अपील है. किस यूथ को? जिनके बाप एमपी, एमएलए और मंत्री रह चुके हैं, उनके लड़के-लड़कियां और भतीजे-भांजे? वे ही अगली जेनेरेशन के हैं. बिहार में लालू ने कितने टिकट बांटे, यह तो नहीं जानता, लेकिन उनका बेटा उत्तराधिकारी ऐलान हो गया. इन दलों की न कोई राजनीति है, न कार्यक्रम और न आइडियोलॉजी. लोगों के बीच आख़िर क्या संदेश जाएगा?

एक और मुद्दा बिहार के लिए खास है कि हर पार्टी नंबर बढ़ा रही है कि उसने कितने हार्डकोर अपराधियों को…वह भी कोई छोटे-मोटे नहीं, लूट-बलात्कार जैसे बड़े-बड़े अपराध करने वालों को टिकट …

वह तो फिगर आ गया है कि किसके कितने उम्मीदवार ऐसे हैं. राहुल जी ने भी इस बात का कोई जवाब नहीं दिया कि लवली आनंद और पप्पू यादव को टिकट कैसे और कौन से एथिक्स के तहत दिया गया. भाजपा वाले भी उतने ही हैं जितने कांग्रेस के. ये जो दल हैं, दे आर ऑनली फाइटिंग फॉर पावर. और अगर पावर में रहकर रिटायर होने का वक्त आ गया तो बेटे को अपनी जगह कर देते हैं. यही राजनीति का तरीक़ा है.

इस बार लेफ्ट एलायंस को कितनी सीटें मिलेंगी?

मैं इस पर कोई प्रेडिक्शन नहीं करना चाहता. जो भी लड़ रहे हैं, जीतने के लिए लड़ रहे हैं, लेकिन चुनाव में तो दो ही अल्टरनेटिव हैं, तीसरा नहीं है. या तो आप जीतोगे या हारोगे. हर कोई कोशिश करेगा. मनी प्लेज ए बिग रोल, उस मामले में बहुत कमज़ोर रहे हैं हम.

आप उस पीढ़ी के नेता हैं कि जो आप कहते हैं, लोग उसे सुनते हैं और गाइडिंग लाइट हैं, जहां पॉलिटिक्स वॉज बेसिकली बेस्ड ऑन एथिक्स, आइडियोलॉजी. बतौर उदाहरण आप लोगों की चर्चा हम अपने साथियों से करते हैं…

मैं पहली दफा 1957 में चुनकर आया. माय टोटल एक्सपेंडिचर वॉज वन थाउजेंड एट हंड्रेड. पार्लियामेंट में जब खड़ा हुआ थर्ड इलेक्शन में, 1967 या 72 में, उसमें माय एक्सपेंडिचर वॉज वन लेक एंड टू थाउजेंड. अभी तो आप इमेजिन नहीं कर सकते. करोड़ से नीचे सवाल ही नहीं है. हम कहां से करोड़ रुपये लाएंगे?

बाबरी मस्जिद मामले में मुसलमानों को क्या क़दम उठाना चाहिए?

यह जो फैसला है, मुसलमान इससे सबसे ज़्यादा निराश हैं. दोनों पक्षों में किसी के पास साक्ष्य नहीं हैं, बस फेथ. कैसे कह रहे हैं कि यह उनकी जगह है, क्योंकि हिंदुओं की मान्यता है कि राम वहीं पैदा हुए थे. विश्वास पर केवल अगर आप निर्णय करो तो क्या होगा. इसलिए हिंदू हो या मुसलमान, मैं दोनों कम्युनिटी की समझदारी को दाद देता हूं कि कोई मैदान पर नहीं उतरा. यह पंचायत जैसा फैसला है. बीपी राव का भी यही विचार है, यही विचार हिस्टोरियंस का भी है. मैं कहता हूं कि थोड़ा-थोड़ा करके ले लो. हालांकि इट इज नॉट बेस्ड ऑन एनी एविडेंस… इन्हें दो हिस्से और उन्हें एक हिस्सा, क्यों? इसका भी कोई जस्टीफिकेशन नहीं. लेकिन लोगों ने समझदारी दिखाई और किसी तरह उन तक यह बात पहुंची कि जो प्रोसेस है, वह यही है. आपसी समझौते से तो नतीजे तक पहुंच नहीं सकते और आपसी समझौता होगा, इस पर मेरा विश्वास भी नहीं है, क्योंकि अब एक सीमा बांध दी गई है, तुम भी थोड़ा ले लो और तुम भी. मेरा मानना है कि अब जब सब सुप्रीमकोर्ट जाने की बात कर रहे हैं तो वहां विश्वास और फेथ पर आधारित फैसले से बचा जाए.

पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी जिस तरह आगे जा रही हैं, जिस तरह आपने सिंगूर आदि की चर्चा की और सीपीएम की आलोचना की, आपको नहीं लगता कि सीपीएम की नीतियों या समस्याओं के कारण आप लोगों को भी भुगतना पड़ता है?

पश्चिम बंगाल में तीस-चौंतीस सालों में लेफ्ट फ्रंट से सबसे बड़ी जो ग़लती हुई, वह है सिंगूर, नंदीग्राम. लोगों को लगा कि उन्हें जिन्होंने ज़मीन दी थी, वही अब उनसे ज़मीन वापस छीनना चाहते हैं. हम फ्रंट में हैं तो फ्रंट में रहेंगे. ममता बनर्जी का हमला सीपीएम के ख़िला़फ है, उसे देखते हुए हम आपस में दरार नहीं होने देंगे. बेशक एक ही नाव के ज़रिए हैं, लेकिन एक ज़माने में क्रेडिट के हिस्सेदार रहे हैं. थोड़ा-बहुत जो अटैक है, उसका भी सामना करने में हिस्सेदार रहेंगे. इस राजनीतिक दबाव को समझना चाहिए.

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