26 लाख करोड़ का कोयला घोटाला: यह घोटाला नहीं, महाघोटाला है

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सरकार भ्रष्टाचार की नई गाथा लिख रही है, घोटाले का नया मापदंड बना रही है. 26 लाख करोड़ रुपये की लूट हो गई, लेकिन सरकार कहती है कि यह घोटाला नहीं है. सीएजी की रिपोर्ट बता रही है कि कोयला घोटाला हुआ है, सरकार कहती है कि यह सरकार की नीति है. टीम अन्ना जब सरकार पर आरोप लगाती है तो सरकार कहती है कि यह आरोप आधारहीन है. सरकार के तर्क अज़ीबोगरीब हैं. अगर निजी कंपनियों को फायदा पहुंचाना कोई घोटाला नहीं है, अगर नियमों का उल्लंघन करके प्राकृतिक संपदा की बंदरबांट घोटाला नहीं है तो सरकार को बताना चाहिए कि घोटाला आखिर होता क्या है? सरकार कह रही है कि कोयला घोटाला कोई घोटाला नहीं है. सरकार की दलीलों में दम नहीं है, क्योंकि चौथी दुनिया की तहकीकात बताती है कि यह घोटाला नहीं, बल्कि महाघोटाला है, दुनिया का सबसे बड़ा घोटाला. यह 26 लाख करोड़ रुपये का घोटाला है.

26 lakh crore

सरकार चलाने का यह एक नया मूलमंत्र है. पहले घोटाला करो और भ्रष्टाचार होने दो. अगर मामला सामने आ जाए तो सबसे पहले उसे नकार दो, दलीलें दो, मीडिया में बयान दे दो कि घोटाला हुआ ही नहीं है. और, जब घोटाले का पर्दाफाश होने लग जाए, मामला हाथ से बाहर निकल जाए, जांच शुरू हो जाए, कोर्ट में मुकदमा चलने लगे तो कह दो कि मामले की जांच हो रही है. यह मामला कोर्ट में है और कोर्ट का फैसला आखिरी फैसला है. देश में कोर्ट का फैसला कितने दिनों में आता है, यह सबको पता है. तब तक देश की जनता भूल जाएगी कि कोई घोटाला भी हुआ था. बोफोर्स का उदाहरण हम सबके सामने है, लेकिन कोयला घोटाले की जांच सीवीसी ने सीबीआई को दे दी है. अब सीबीआई की जांच से क्या निकलेगा, यह बड़ा सवाल है. राजनेताओं पर चल रहे भ्रष्टाचार के मामलों की जांच में सीबीआई खरी नहीं उतरी है. सीबीआई का राजनीतिक इस्तेमाल नई बात नहीं है. वैसे भी पिछले घोटालों के नतीजों को देखते हुए लोगों को अब सीबीआई की जांच पर भरोसा नहीं है.

कोयला घोटाले में प्रधानमंत्री का नाम क्या आया कि कांग्रेस पार्टी और सरकार इमोशनल हो गई. मनमोहन सिंह ने सीधे राजनीति छोड़ने की धमकी दे डाली. प्रधानमंत्री कार्यालय आरोपों के जवाब तलाशने में जुट गया. घोटाले की जांच की जगह दलील और बयान देकर मामले को निपटाने की कोशिश की गई. ठीक उसी तरह, जिस तरह 2-जी स्पैक्ट्रम घोटाले के खुलासे के बाद प्रधानमंत्री ने की थी. संसद के अंदर और संसद के बाहर इसी तरह से ए राजा के बचाव में बयान दिए थे. जब मामला कोर्ट पहुंचा तो सरकार के चेहरे से नकाब उतर गया. प्रधानमंत्री ने अभी तक देश को यह नहीं बताया कि तीन सालों तक उन्होंने ए राजा का क्यों बचाव किया. वैसे राजनीति में नैतिकता के लिए कोई जगह बची ही नहीं है, वरना राजनीतिक मर्यादा जिंदा होती तो 2-जी घोटाले में कई लोग स्वयं ही इस्तीफा दे देते. किसी को बयानबाजी करने की ज़रूरत नहीं पड़ती, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. एक बार फिर देश ऐसे मोड़ पर खड़ा है, जहां हर दस्तावेज, हर रिपोर्ट और हर ज़िम्मेदार एजेंसी देश के सबसे बड़े घोटाले की ओर इशारा करते हैं. चौथी दुनिया ने सबसे पहले कोयला घोटाले का पर्दाफाश किया था. तबसे यह मामला राजनीतिक गलियारों में घूम रहा है, लेकिन अब सीएजी की लीक हुई रिपोर्ट से इसकी पुष्टि हो गई है. सरकार इस मामले को दबाना चाहती है. अगर सरकार की नीयत साफ है तो वह न्यायिक जांच या जेपीसी जांच क्यों नहीं कराती? लेकिन सरकार और उसके मंत्री-नेता बयानबाजी पर उतारू हैं. यह मामला 2-जी घोटाले से ज़्यादा गंभीर है, यह 2-जी घोटाले से कई गुना बड़ा है. इसमें शक की सुई सीधे प्रधानमंत्री पर जा टिकती है, क्योंकि कोयला खदानों की बंदरबांट सबसे ज़्यादा उस वक्त हुई, जब कोयला मंत्री स्वयं प्रधानमंत्री थे. अब जरा सरकार की दलीलों पर नज़र डालते हैं. प्रधानमंत्री कार्यालय ने दो सबसे महत्वपूर्ण तर्क दिए. दोनों ही तर्क हैरतअंगेज हैं. पहला यह कि कोयला खदानों के आवंटन का मकसद पैसा उगाहना नहीं, बल्कि अर्थव्यवस्था की विकास दर तेज करना था. दूसरा यह है कि कोयला खदानों को देश में मूलभूत सुविधाएं जुटाने और विकास के लिए आवंटित किया गया. आवंटन स़िर्फ ऐसी कंपनियों को किया जाना था, जिनका रिश्ता स्टील, बिजली और सीमेंट से है. सरकार कहती है कि यह घोटाला नहीं है, क्योंकि हमने उक्त कोयला खदानें स्टील, बिजली और सीमेंट कंपनियों को मुफ्त में इसलिए दी हैं, क्योंकि इससे विकास होगा.

वैसे यह दलील वर्तमान कानून और उस वक्त संसद में लटके बिल के खिलाफ है, क्योंकि उसमें साफ-साफ लिखा है कि कोयला खदानों का आवंटन नीलामी के जरिए हो. अगर सरकार की दलील को ही मान लिया जाए, तब भी यह सवाल उठता है कि ऐसी कंपनियों को कोयला खदानें क्यों दी गईं, जिनका रिश्ता न तो बिजली से है, न स्टील से और न सीमेंट से. हैरानी इस पर है कि सरकार यह बात सामने नहीं ला रही है कि कई कंपनियों के आवंटन रद्द भी किए गए हैं. सरकार को यह बताना चाहिए कि उन कंपनियों के आवंटन क्यों रद्द किए गए.

मतलब साफ है कि ऐसी कंपनियों को कोयला खदानें आवंटित की गईं, जो इसके योग्य नहीं थीं. जिस वक्त कोयला खदानों का आवंटन किया जा रहा था, उस वक्त इससे जुड़े लोगों को यह मालूम था कि इस पूरे मामले में गड़बड़ी हो रही है. यही वजह है कि कोयला सचिव लगातार प्रधानमंत्री कार्यालय को लिख रहे थे कि कोयला खदानों की नीलामी हो, लेकिन हर बार प्रधानमंत्री कार्यालय ने कोयला सचिव के सुझावों को दरकिनार कर दिया. अब प्रधानमंत्री कार्यालय ने यह फैसला किया है तो इस बात की जांच होनी चाहिए कि किस व्यक्ति या किस अधिकारी ने कोयला सचिव की राय को नामंजूर किया. देश को यह भी पता चलना चाहिए कि प्रधानमंत्री कार्यालय ने यह फैसला किस कानून के तहत किया. वैसे प्रधानमंत्री कार्यालय की दलीलों का जवाब नहीं है. अब जब सरकार यह तय ही कर ले कि कोयला मुफ्त बांटने की नीति बना लेंगे तो घोटाला कहां से होगा. वैसे यह दलील सुनकर ए राजा, चिदंबरम एवं कपिल सिब्बल को ईर्ष्या हुई होगी. 2-जी घोटाले के बाद वे यह दलील देते रहे कि कोई नुकसान नहीं हुआ. कपिल सिब्बल जीरो लॉस की थ्योरी देते रहे, लेकिन न तो कोर्ट ने और न सीएजी उनकी बात सुनी. लेकिन इस बार जो दलील प्रधानमंत्री कार्यालय ने दी, उसमें घाटा उठाने को ही नीति बता दिया गया है. यह बताया गया है कि देश में विकास की गति को मजबूती देने के लिए कोयला खदानें मुफ्त बांटनी पड़ीं. ए राजा, चिदंबरम साहब एवं कपिल सिब्बल को लग रहा होगा कि काश, उन्होंने भी यह दलील दी होती कि देश में मोबाइल फोन के इस्तेमाल में तेजी लाने के लिए निजी कंपनियों को फायदा पहुंचाना ज़रूरी था, तो आज बात इतनी आगे नहीं बढ़ी होती.

टीम अन्ना ने इस मामले को फिर से उठाकर सीधे प्रधानमंत्री पर हमला किया है. हमला भी ऐसा कि वह तिलमिला उठे और आनन-फानन में उन्होंने ऐसा बयान दे दिया, जिससे कई लोगों को उनसे सहानुभूति भी हुई. मनमोहन सिंह ने कहा कि अगर उन पर लगे आरोप सच साबित हुए तो वह सार्वजनिक जीवन से संन्यास ले लेंगे. मतलब यह कि राजनीति छोड़ देंगे. इस बयान को जो भी सुनेगा, उसे यही लगेगा कि इन आरोपों से मनमोहन सिंह को दु:ख पहुंचा है. लोगों को ज़रूर सहानुभूति हुई होगी, लेकिन सवाल यह है कि प्रधानमंत्री का दायित्व क्या है. कई मंत्रियों पर आरोप लगे हैं, कई मामलों की जांच हो रही है, 2-जी घोटाले में उनकी कैबिनेट का एक मंत्री जेल भी पहुंच गया. इससे एक बात तो यह साबित होती है कि प्रधानमंत्री ने जानबूझ कर या फिर अनजाने में सरकार के नीति निर्धारण में ऐसी कोई भूमिका नहीं निभाई, जिससे घोटालों और भ्रष्टाचार पर रोक लगाई जा सके. क्या प्रधानमंत्री का दायित्व स़िर्फ स्वयं के प्रति है. सही तो तब होता, जब प्रधानमंत्री यह कहते कि उनकी कैबिनेट के किसी भी मंत्री पर कोई आरोप सच साबित हुआ तो वह सार्वजनिक जीवन से संन्यास ले लेंगे. लगता है, भारत की राजनीति का मिजाज बदल गया है. प्रधानमंत्री जी वहां राजनीतिक नैतिकता का नया अध्याय लिख रहे हैं, जहां प्रधानमंत्री का अपनी कैबिनेट और सरकार के प्रति कोई दायित्व नहीं है, बल्कि वह स्वयं के लिए ही जवाबदेह है. इसके बावजूद कोयला घोटाले में जो प्रतिक्रिया प्रधानमंत्री और कोयला मंत्रालय ने दी है, वह शायद पर्याप्त नहीं है.

कोयला घोटाला देश का अब तक का सबसे बड़ा घोटाला है. चौथी दुनिया ने सबसे पहले इस घोटाले का पर्दाफाश किया था. हमने संबंधित दस्तावेज, संसदीय कमेटी की रिपोर्ट, कोयला खदानों में कोयला भंडारों के विवरण के साथ-साथ आवंटन से फायदा उठाने वाली कंपनियों की सूची भी प्रकाशित की थी. हमारी तहकीकात के मुताबिक, देश को इस घोटाले की वजह से 26 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है. लेकिन हाल में कुछ अखबारों ने सीएजी की लीक हुई रिपोर्ट छापी, जिसके मुताबिक, सरकार ने जिस तरह कोयला खदानों की बंदरबांट की है, उससे देश को 10.67 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है. यह 2-जी स्पैक्ट्रम के आवंटन में हुए नुकसान से छह गुना ज़्यादा है. लेकिन सरकार और मीडिया के कुछ पंडितों का कुतर्क देखिए, जो कहते हैं कि यह कोई घोटाला नहीं है. सरकार कहती है कि कोयला या कोई भी प्राकृतिक संपदा निजी कंपनियों को मुफ्त देने और उन्हें फायदा पहुंचाने से कोई घोटाला साबित नहीं होता. इस तर्क के मुताबिक, अगर सरकार यह तय कर लेती है कि कोयला मुफ्त ही बांट देना है और इस नीति से अगर सरकारी खजाने को नुकसान होता है तो भी चिंता करने की बात नहीं है. इसे घोटाला नहीं माना जाएगा. सरकार का यह तर्क सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले का उल्लंघन है, जिसमें कहा गया था कि किसी भी प्राकृतिक संपदा के आवंटन के लिए सरकार को नीलामी करनी चाहिए. सरकार के इस तर्क का दूसरा पहलू यह है कि अगर वह किसी प्राकृतिक संपदा को निजी कंपनियों को मुफ्त देने का फैसला करती है तो आवंटन की प्रक्रिया न्यायसंगत और पारदर्शी होनी चाहिए. अब सवाल यह उठता है कि जिस तरह निजी कंपनियों को कोयला खदानों का आवंटन किया गया, क्या वह न्यायसंगत है और पारदर्शिता के मापदंड पर कितना खरा उतरता है? 2004 से 2009 तक कोयला खदानों का आवंटन एक स्क्रीनिंग कमेटी देख रही थी, जिसका संचालन कोयला सचिव कर रहे थे. हम पहले ही इस कमेटी के क्रियाकलापों के बारे में बता चुके हैं कि किस तरह वहां मनमर्जी से काम हो रहा था. कोयला सचिव लगातार इस बात के लिए पत्र लिख रहे थे कि कोयला आवंटन नीलामी के जरिए हो, लेकिन सरकार अब कह रही है कि यह एक नीतिगत फैसला था कि स्टील, बिजली और सीमेंट कंपनियों को देश का विकास करने के लिए कोयला खदानें मुफ्त बांट दी जाएं. अब सवाल यह उठता है कि इस नीति के बारे में क्या कोयला सचिव को पता नहीं था? इस नीति का फैसला कैबिनेट ने ही लिया होगा तो अब तक सरकार ने कैबिनेट के उस फैसले को सामने क्यों नहीं रखा और उस फैसले के बारे में कोयला सचिव को क्यों नहीं बताया गया? इसका मतलब यह है कि इस सरकार के अधिकारियों के बीच, प्रधानमंत्री और अधिकारियों के बीच कोई समन्वय नहीं है. अगर यह नीतिगत फैसला था तो कोयला सचिव की चिट्ठी के जवाब में कोई चिट्ठी क्यों नहीं लिखी गई? सरकार की कोयला खदान मुफ्त बांटने की नीति क्या दिमाग की उपज है? कहीं ऐसा तो नहीं कि ऐसी कोई नीति ही न हो औैर घोटाले का पर्दाफाश होने के बाद प्रधानमंत्री कार्यालय के अधिकारी इस नीति के बहाने घोटाले पर पर्दा डालना चाह रहे हैं. यह फैसला कहां हुआ, कैसे हुआ, अगर सरकार 3 दिनों के भीतर इस फैसले से जुड़े दस्तावेज सामने नहीं लाती है तो इसका मतलब यही है कि सरकार की पूरी थ्योरी झूठी है. हैरानी तो तब होती है, जब कोयला आवंटन की पूरी प्रक्रिया 2-जी स्पैक्ट्रम के आवंटन की तरह संदिग्ध दिखाई पड़ती है, जहां उक्त कंपनियां अपना शेयर विदेशी कंपनियों के हाथों बेचकर मुनाफा कमाने में जुट गईं. लेकिन अब सवाल स़िर्फ आवंटन की प्रक्रिया में गड़बड़ी का नहीं है, बल्कि प्रधानमंत्री का है.

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर सवाल इसलिए उठ रहे हैं, क्योंकि 2006 से 2009 के दौरान जब वह कोयला मंत्री थे, तब कोयला खदानों के आवंटन में ज़रूरत से ज़्यादा तेजी आई. कोयला खदानों के आवंटन में प्रधानमंत्री कार्यालय की काफी सक्रिय भूमिका रही. कोयले से प्रधानमंत्री कार्यालय के रिश्ते ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं. इस साल मार्च के महीने में प्रधानमंत्री कार्यालय के फैसले की वजह से कोल इंडिया की कीमत पर एक निजी कंपनी को सीधा फायदा पहुंचाया गया. कोल इंडिया का 90 फीसदी स्वामित्व भारत सरकार के पास है. प्रधानमंत्री पर आरोप है कि उन्होंने निजी कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए अपने अधिकारों का गलत इस्तेमाल किया, जो प्रिवेंशन ऑफ करप्शन एक्ट के सेक्शन 13 के तहत आता है. इस कानून के तहत किसी भी सरकारी अधिकारी को दंडित किया जा सकता है. इससे कोई मतलब नहीं है कि उसने खुद पैसे लिए या नहीं. इसलिए प्रधानमंत्री ने पैसे लिए या नहीं लिए, उसका कोई मतलब नहीं रह जाता है. बात केवल इतनी है कि क्या प्रधानमंत्री या प्रधानमंत्री कार्यालय के किसी भी फैसले से सरकार को नुकसान और किसी निजी कंपनी को फायदा पहुंचा या नहीं. इसलिए प्रधानमंत्री का यह कहना कि मैं ईमानदार हूं, इसका कोई मायने नहीं है. प्रधानमंत्री अकेले व्यक्ति नहीं है, जिन पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाया गया है. इसलिए बेहतर तो यही है कि सरकार पर लगे सारे आरोपों की न्यायिक जांच या जेपीसी जांच हो, ताकि दूध का दूध  और पानी का पानी हो सके. सबसे अहम सवाल यह है कि प्रधानमंत्री और यूपीए सरकार की दरियादिली स़िर्फ निजी कंपनियों के लिए क्यों है? गरीबों, किसानों एवं मज़दूरों के लिए सरकारी खजाना बंद क्यों होता जा रहा है, क्या इस देश में गरीब होना पाप हो गया है?

  • जब सरकार ने 2006 में यह वादा किया था कि जब तक नया कानून नहीं पास हो जाता, तब तक कोयला खदानों का आवंटन नहीं किया जाएगा. तो फिर ऐसा क्यों हुआ?
  • नए कानून के मुताबिक, कोयला खदानों का आवंटन नीलामी के जरिए होना है तो फिर इस कानून को 2010 तक क्यों लटका कर रखा गया?
  • एक तऱफ कानून को लटका कर रखा गया, दूसरी तऱफ तेजी से निजी कंपनियों को कोयला खदानें बांट दी गईं.
  • सरकार ने ऐसी कंपनियों को कोयला खदानें आवंटित कीं, जो इसके योग्य नहीं थीं.
  • कोयला खदानों की नीलामी हो, कोयला सचिव के इस सुझाव को प्रधानमंत्री कार्यालय ने क्यों नज़रअंदाज किया?
  • कई कंपनियां कोयला खदानें और कोयला मुनाफा कमाकर बेच रही हैं, क्या यह सरकारी नियमों का उल्लंघन नहीं है?
  • 1993 से लेकर 2010 तक कोयले के 208 ब्लॉक बांटे गए, जो कि 49.07 बिलियन टन कोयला था. इनमें से 113 ब्लॉक निजी क्षेत्र में 184 निजी कंपनियों को दिए गए, जो कि 21.69 बिलियन टन कोयला था.
  • अगर बाज़ार मूल्य पर इसका आकलन किया जाए तो 2500 रुपये प्रति टन के हिसाब से इस कोयले का मूल्य 5,382,830.50 करोड़ रुपये होता है. अगर इसमें से 1250 रुपये प्रति टन काट दिया जाए, यह मानकर कि 850 रुपये उत्पादन की क़ीमत है और 400 रुपये मुनाफ़ा, तो भी देश को लगभग 26 लाख करोड़ रुपये का राजस्व घाटा हुआ.
  • 2006 से 2009 के बीच 17 बिलियन टन कोयला निजी कंपनियों को दिया गया. सीबीआई के मुताबिक, अगर इसे 50 रुपये प्रति टन की न्यूनतम दर से बेचा गया होता तो 8,50,000 करोड़ रुपये का फायदा होता.
  • बाज़ार में कोयले की क़ीमत 2500 रुपये प्रति टन है. 2006 से 2009 के बीच आवंटित कोयले को अगर इस दर पर बेचा गया होता तो देश को 42 लाख 50 हज़ार करोड़ रुपये का फायदा होता.

26 लाख करोड़ का महाघोटाला

यह बात है 2006-2007 की, जब शिबू सोरेन जेल में थे और प्रधानमंत्री ख़ुद ही कोयला मंत्री थे. उस दौरान दासी नारायण और संतोष बागडोदिया राज्यमंत्री थे. प्रधानमंत्री के नेतृत्व में कोयले के संशोधित क्षेत्रों को निजी क्षेत्र में सबसे अधिक तेजी से बांटा गया. सबसे बड़ी बात यह है कि ये कोयले की खानें स़िर्फ 100 रुपये प्रति टन की खनिज रॉयल्टी के एवज़ में बांट दी गईं. ऐसा तब किया गया, जब कोयले का बाज़ार मूल्य 2000 रुपये प्रति टन के ऊपर था. जब संसद में इस बात को लेकर कुछ सांसदों ने हंगामा किया, तब शर्मसार होकर सरकार ने कहा कि माइंस और मिनरल डेवलपमेंट एंड रेगुलेशन एक्ट 1957 में संशोधन किया जाएगा और तब तक कोई भी कोयला खदान आवंटित नहीं की जाएगी. 2006 में यह बिल राज्यसभा में पेश किया गया और यह माना गया कि जब तक दोनों सदन इसे मंजूरी नहीं दे देते और यह बिल पास नहीं हो जाता, तब तक कोई भी कोयला खदान आवंटित नहीं की जाएगी, लेकिन यह विधेयक चार साल तक लोकसभा में जानबूझ कर लंबित रखा गया और 2010 में ही यह क़ानून में तब्दील हो पाया. इस दरम्यान संसद में किए गए वादे से सरकार मुकर गई और कोयले के ब्लॉक बांटने का गोरखधंधा चलता रहा. असल में इस विधेयक को लंबित रखने की राजनीति बहुत गहरी थी. इस विधेयक में साफ़-साफ़ लिखा था कि कोयले या किसी भी खनिज की खदानों के लिए सार्वजनिक नीलामी की प्रक्रिया अपनाई जाएगी. अगर यह विधेयक लंबित न रहता तो सरकार अपने चहेतों को मुफ्त कोयला कैसे बांट पाती. इस समयावधि में लगभग 21.69 बिलियन टन कोयले के उत्पादन क्षमता वाली खदानें निजी क्षेत्र के दलालों और पूंजीपतियों को मुफ्त दे दी गईं. इस दरम्यान प्रधानमंत्री भी कोयला मंत्री रहे और सबसे आश्चर्य की बात यह है कि उन्हीं के कार्यकाल में सबसे अधिक कोयले के ब्लॉक बांटे गए. ऐसा क्यों हुआ? प्रधानमंत्री ने हद कर दी, जब उन्होंने कुल 63 ब्लॉक बांट दिए. इन चार सालों में लगभग 175 ब्लॉक आनन-फानन में पूंजीपतियों और दलालों को मुफ्त में दे दिए गए.

चौथी दुनिया ने पता लगाने की कोशिश की कि इस घोटाले से देश को कितना घाटा हुआ. जो परिणाम सामने आया, वह स्तब्ध कर देने वाला है. दरअसल निजी क्षेत्र में कैप्टिव (संशोधित) ब्लॉक देने का काम 1993 से शुरू किया गया. 1993 से लेकर 2010 तक कोयले के 208 ब्लॉक बांटे गए, जो कि 49.07 बिलियन टन कोयला था. इनमें से 113 ब्लॉक निजी क्षेत्र में 184 निजी कंपनियों को दिए गए, जो कि 21.69 बिलियन टन कोयला था. अगर बाज़ार मूल्य पर इसका आकलन किया जाए तो 2500 रुपये प्रति टन के हिसाब से इस कोयले का मूल्य 5,382,830.50 करोड़ रुपये होता है. अगर इसमें से 1250 रुपये प्रति टन काट दिया जाए, यह मानकर कि 850 रुपये उत्पादन की क़ीमत है और 400 रुपये मुनाफ़ा, तो भी देश को लगभग 26 लाख करोड़ रुपये का राजस्व घाटा हुआ.

ऐसे हुई नियमों की अनदेखी

सरकारी नियमों के अनुसार, कोयले के ब्लॉक आवंटित करने के लिए भी कुछ नियम हैं, जिनकी साफ़ अनदेखी कर दी गई. ब्लॉक आवंटन के लिए कुछ सरकारी शर्तें होती हैं, जिन्हें किसी भी सूरत में अनदेखा नहीं किया जा सकता. ऐसी ही एक शर्त यह है कि जिन खदानों में कोयले का खनन सतह के नीचे होना है, उनमें आवंटन के 36 माह बाद (और यदि वन क्षेत्र में ऐसी खदान है तो यह अवधि छह महीने बढ़ा दी जाती है) खनन प्रक्रिया शुरू हो जानी चाहिए.

सरकार और बिचौलियों एवं फर्ज़ी कंपनियों के बीच क्या साठगांठ है, यह समझने के लिए रॉकेट साइंस पढ़ना ज़रूरी नहीं है. अगर ऐसा न होता तो आज 208 ब्लॉकों में से स़िर्फ 26 में उत्पादन हो रहा हो, ऐसा भी न होता. इसके बावजूद अगर कोयला मंत्री यह कहते हैं कि कोयले के आवंटन में कोई अनियमितताएं नहीं बरती गईं, कोई घोटाला नहीं हुआ है तो भला उनकी बातों पर कौन विश्वास करेगा?

यदि खदान ओपन कास्ट किस्म की है तो यह अवधि 48 माह की होती है (जिसमें अगर वन क्षेत्र हो तो पहले की तरह ही छह महीने की छूट मिलती है). अगर इस अवधि में काम शुरू नहीं होता है तो खदान मालिक का लाइसेंस रद्द कर दिया जाता है. समझने वाली बात यह है कि इस प्रावधान को इसलिए रखा गया है, ताकि खदान और कोयले का उत्खनन बिचौलियों के हाथ न लगे, जो सीधे-सीधे तो कोयले का काम नहीं करते, बल्कि खदान ख़रीद कर ऐसे व्यापारियों या  उद्योगपतियों को बेच देते हैं, जिन्हें कोयले की ज़रूरत है. इस गोरखधंधे में बिचौलिए मुंहमांगे और अनाप-शनाप दामों पर खदानें बेच सकते हैं. लेकिन सरकार ने ऐसी कई खदानों का लाइसेंस रद्द नहीं किया, जो इस अवधि के भीतर उत्पादन शुरू नहीं कर पाईं. ऐसा इसलिए, क्योंकि आवंटन के समय बहुत बड़ी मात्रा में ऐसे ही बिचौलियों को खदानें आवंटित की गई थीं, ताकि वे उन्हें आगे चलकर उद्योगपतियों को आसमान छूती क़ीमतों पर बेच सकें. 2003 तक 40 ब्लॉक बांटे गए थे, जिनमें अब तक स़िर्फ 24 ने उत्पादन शुरू किया है. तो बाक़ी 16 कंपनियों के लाइसेंस रद्द क्यों नहीं किए गए? 2004 में 4 ब्लॉक बांटे गए थे, जिनमें आज तक उत्पादन शुरू नहीं हो पाया. 2005 में 22 ब्लॉक आवंटित किए गए, जिनमें आज तक केवल 2 ब्लॉकों में ही उत्पादन शुरू हो पाया है. इसी तरह 2006 में 52, 2007 में 51, 2008 में 22, 2009 में 16 और 2010 में एक ब्लॉक का आवंटन हुआ, लेकिन 18 जनवरी, 2011 तक की रिपोर्ट के अनुसार, कोई भी ब्लॉक उत्पादन शुरू होने की अवस्था में नहीं है. पहले तो बिचौलियों को ब्लॉक मुफ्त दिए गए, जिसके लिए माइंस और मिनरल एक्ट में संशोधन को लोकसभा में चार साल तक रोके रखा गया. फिर जब इन बिचौलियों की खदानों में उत्पादन शुरू नहीं हुआ (क्योंकि ये उत्पादन के लिए आवंटित ही नहीं हुई थीं), तो भी इनके लाइसेंस रद्द नहीं किए गए. सरकार और बिचौलियों एवं फर्ज़ी कंपनियों के बीच क्या साठगांठ है, यह समझने के लिए रॉकेट साइंस पढ़ना ज़रूरी नहीं है. अगर ऐसा न होता तो आज 208 ब्लॉकों में से स़िर्फ 26 में उत्पादन हो रहा हो, ऐसा भी न होता. इसके बावजूद अगर कोयला मंत्री यह कहते हैं कि कोयले के आवंटन में कोई अनियमितताएं नहीं बरती गईं, कोई घोटाला नहीं हुआ है तो भला उनकी बातों पर कौन विश्वास करेगा?

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